Saturday, June 29, 2024

अनाथ

 अनाथ 


मैं  अनाथ हूँ 

अर्थात  मेरा कोई नाथ नहीं 

मेरे माँ - बाप नहीं 


मैं यहाँ 

अपरिचित  चेहरों  की भीड़ में

अकेली हूँ 


किसी अनजान शहर में 

किसी अनजानी गली में 

किसी खंडहरी इमारत में 

किसी सीलन भरे 

अँधेरे तंग कमरे में 

अपने वजूद तो तलाशती 

मैं ऐसे सूर्य  की रौशनी हूँ 

जिसकी काली किरणे 

इस कमरे के अँधेरे को 

और अधिक गहरा देती हैं 

और उस मुर्दा सन्नाटे में रात 

एक अंतहीन  रात 

निरंतर करवटें बदलती है 

मेरी आत्मा बिलख बिलख उठती है 

चंद  सर्पीली उँगलियाँ

 मेरे शफ़्फ़ाक़ बदन पर 

बेतरतीबी से रेंगने लगती है 

और 

मेरा बदन ढल जाता है 

दर्द की एक अंतहीन नदी में 

दर्द की यह नदी 

रात के मूक सन्नाटे के साथ 

मिलकर गाती है 

दर्द का अंतहीन मर्सिया 


सुबह की रौशनी का 

लिबास ओढ़कर 

मैं  एक बार फिर से 

कोशिश करती हूँ 

अपने वजूद को पहचानने की 


उस अनजान शहर में 

उस अनजानी गली में 

उस खंडहरी  इमारत  में 

उस अँधेरे कमरे से गुज़रते हुए 

मैं  अब नहीं घबराती 

अब मैं  परिचित हूँ 

यहाँ  की धूप , हवा , रौशनी 

चेहरे , मुखोटें 

सब को पहचान लेती हूँ 

बस पहचान नहीं पाती तो 

उन सर्पीली उंगलिओं को 

जो रात में देर तक 

मेरे मिटटी के बदन पर 

अनगिनत दंश छोड़ जाती है 

पीर की एक नदी 

बिलख बिलख जाती  है 


मैं रोज़ बनती हूँ दुल्हन 

लेकिन बन्ने के गीत 

मेरे गले में ही घुट जाते हैं 

प्रेम के सब गीत चुक जाते हैं 

सर्पीली उंगलिओं के दंश 

न जाने कितनी सदिओं में जाएँगे 

एक न एक दिन ये आंसूं भी मुस्कुराएँगे  


मैं  अगली सुबह 

फिर उठती हूँ काली चादर छोड़ कर 

रौशनी की ऊँगली पकड़ मुस्कराती हूँ 

प्रेम का वही अनंत गीत 

अपनी आत्मा में गुनगुनाती हूँ ।


कवि  -इन्दुकांत आंगिरस 



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