ठहरी पीर नदी सी यह प्रेम कहानी है
मुझ से इस पीड़ा की पहचान पुरानी है
आग लगाए शीतलता ज़ख़्मी दिल तड़पाए
टूटे तारों की वीणा अब घमका नग़मा गाए
बिरहा की अग्नि में दिल मेरा जलता जाए
जलते इस दामन से ये आग बुझानी है
ठहरी पीर नदी सी........
जन्मों का बंधन भी टूटा अब बनते बनते
राख़ हुआ साया भी बिरहा में जलते जलते
डूब गया सूरज भी आँखों में भरते भरते
डूबे इस सूरज से ये शमा जलानी है
ठहरी पीर नदी सी........
आँसू रीत गए अब तो शबनम के कतरों से
साहिल रूठ गए अब तो दरिया की लहरों से
तोडा दम बहारों ने पतझड़ के पहरों से
मुरझाए फूलों से ये चिता सजानी है
ठहरी पीर नदी सी........
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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