जग कहता दीवाना मुझको
गीत अगर तुम पर में लिखता
फूलों की घाटी में जा कर
कलियों की नज़रों से बच कर
फूल अगर चुन भी मैं लाता
रात नहीं खिलती फिर भी
बात नहीं बनती फिर भी
तन मिलने की बात नहीं है
मन कैसे गरिमा से गिरता
सूरज को पलकों में भर कर
अपनी ही साँसों में जल कर
दीप अगर चुन भी मैं लाता
रात नहीं जगती फिर भी
बात नहीं बनती फिर भी
जल जाने की बात नहीं है
मन कैसे शमा से लड़ता
ग़ैरों की बस्ती से बच कर
अपनी ही बस्ती में लुट कर
गीत अगर चुन भी मैं लाता
रात नहीं सुनती फिर भी
बात नहीं बनती फिर भी
लुट जाने की बात नहीं है
मन कैसे अपनों को छलता
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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