मौन आँखों का निमंत्रण हो गया
पीर से हृदय का अनुबंध हो गया
रौशनी से रौशनी भी जल गयी
इक किरण आँसू में जैसे ढल गयी
आग में जलता रहा ये दिल मिरा
इक नदी थी प्रीत की जो छल गयी
ज़िंदगी का एक मौसिम तंग हो गया
चाँद जब इक चाँदनी में ढल गया
इक दर्द सा सीने मेरे पल गया
जो सपन ठहरा हुआ था आँख में
पीर के परबत सा वो गल गया
रौशनी का एक आँगन बंद हो गया
मौन हो तुम मौन हैं हर इक दिशा
मौन हैं अब प्रेम की बिसरी कथा
बांवरा मन गीत से कहने लगा
एक नग़मा दर्द का मीठा सुना
आरती का एक नग़मा सँग हो गया।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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