लघुकथा - विशवास
उस रात मैं फिर देर से घर लौटा। उंघती पत्नी मेरी आहट से उठ खड़ी हुई और मेरा कोट उतारते हुए बोली - " बहुत देर लगा दी आज आपने , सब ठीक है ना ? "
- " हाँ , सब ठीक है , वो दफ़्तर में ज़रूरी काम था , इसलिए रुकना पड़ा। डिनर भी दफ़्तर में ही हो गया है। " मैंने उतावलेपन से जवाब दिया।
- "आप मुँह - हाथ धो लीजिए , मैं चाय बना कर लाती हूँ " कह कर पत्नी रसोई में घुस गई और मैं थका थका वही सोफे में धँस सोचने लगा ' कितनी भोली है ये , मैंने कहा और इसने यक़ीन कर लिया। लेकिन आज मैं इसे ज़रूर बता दूँगा। पत्नी चाय लेकर आई तो मैंने उस से कहा -
" जानती हो कहाँ से आ रहा हूँ मैं ? "
- " दफ़्तर से और कहाँ से " - पत्नी का जवाब सपाट था।
- " नहीं मनु , दफ़्तर से नहीं बल्कि मैं एक दूसरी औरत के बिस्तर से उठ कर आ रहा हूँ " मैंने नपे - तुले शब्दों में कहा।
- " आपके मज़ाक की आदत जाएगी नहीं , अच्छा सुनो , अगर हमारे बेटा हुआ तो हम उसका नाम ' विशवास ' रखेंगे और अगर बेटी हुई तो उसका नाम ' निष्ठा ' रखेंगे , क्यों ठीक है ना। " पत्नी चपलता से बोली थी।
मैंने धीरे से " हाँ " कहा और पत्नी को अपनी बाँहों में भर लिया।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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