Saturday, June 3, 2023

कहानी - पिस्तौल

  पिस्तौल 

पश्‍चिम की ओर खुलता दालान, घर का ओपन बावर्चीखाना था। दालान के पिछवाडे में इकलौता बड़ा हॉल जिसके तीन दरवाज़े  दालान में खुलते थे लेकिन इनमें से दाये-बाए के दो दरवाज़े हमेशा बंद रहते, बस बीच का दरवाज़ा ही खुलता और बंद होता था, दालान की छत पत्थर की टुकड़ियों की बनी थी और दीवारों का उखड़ा प्लास्टर इस बात की गवाही दे रहा था कि इस मकान की मरम्मत एक मुद्दत से नहीं हुई है। 

यह दालान लज्जो मौसी की ओपन रसोई थी जहाँ एक ज़माने में मेरी कई शामें गुज़री थी। दालाननुमा रसोई का ओपन होना कोई फ़ैशन नहीं अपितु दालान की मजबूरी थी क्योंकि पश्‍चिम की ओर खुलते इस दालान में न कोई दरवाज़ा था और न हीं कोई खिड़की। गर्मियों में धूप और सर्दियों में ठंडी हवा से बचने के लिए रसोई की तरफ दालान में एक चिक पड़ी रहती जो ज़रूरत के हिसाब से ऊपर नीचे कर दी जाती। चिक की झिरियों से छनती  धूप की किरणों से तस्वीर और चिक का संगीत आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा है। 

दालान के बाए कोने में थी लज्जो मौसी की लाजवाब रसोई । अंगीठी , घासलैट का स्टोव और बिजली का हीटर सभी कुछ था उनके पास । उस ज़माने में गैस के चूल्हे नहीं आए थे। लकड़ी के पतले पटरे  पर बैठ लज्जो मौसी खाना पकाती थी । अंगीठी की आँच  और चिक की झिरियों से छनती धूप की किरणें लज्जो के तांबाई चेहरे को सतरंगा बना देती । उसके माथे से टपकती पसीनों की बूँदों में धुले कुछ सिंदूरी कण डूबते सूरज की लालिमा में इस कदर घुल जाते कि उन्हें जुदा करना नामुमकिन हो जाता। मैं समझ नहीं पाती कि लज्जो की कमर पर छलछलाती पसीने की बूँदों को किस नाम से पुकारूँ शबनमी ओस या जलते छालें। 

मेरी शादी नई-नई हुई थी और हमारे लिए यह एक अजनबी शहर था। पति नौकरी के सिलसिले में अक्सर हफ़्तों बाहर रहते, इसीलिए हम लज्जो मौसी के किराएदार बन गए थे। रवि भी इस बात से निश्‍चिंत था की अनजान शहर में अब मैं अकेली नहीं रहूँगी। अक्सर अपनी ऊब मिटाने के लिए मैं लज्जो मौसी के पास जा बैठती। लज्जो मौसी दुनियादारी की बहुत बातें मुझे समझाती और उनके लज़ीज़ खाने की तो मैं दीवानी थी। बहुत-सी रेसिपी तो उन्होंने मुझे खेल-खेल में ही सिखा दी थी। 

लज्जो मौसी का खिला खिला रूप मुझे बहुत सुहाता था। फूल-सा चेहरा, तांबाई रंग, सुराही  - सी गर्दन, कजरारी आँखें, कमान - सी भौंहें, गुलाब की पंखुडी से होंठ,  उठी चट्टान से उरोज  और खिलखिलाती नदी - सी हँसी। 

रोटियाँ बेलते हुए उनके आसमान में कई सूरज उगने लगते। मैं आँखें फाड़ कर उन सूरजों को देखती रहती। ऐसे ही एक शाम लज्जो मौसी  मेरी चोटी पकड़ कर बोली थी-

 "क्यों री बन्नों, इतनी हैरान क्यों हो रही है? तेरे अनार भी एक दिन ऐसे ही सख्त और बड़े हो जाएँगे।"

- "नहीं मौसी, ऐसा कुछ नहीं " मैंने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा था। 

लेकिन मेरे ना ना करते हुए भी लज्जो मौसी ने मेरे अनारों की चुटकी काट ली थी। उस रात मैं मुश्किल से सो पायी थी। वह केवल नाम की लज्जो थी, लज्जा उसमें नाम भर को भी न थी। अपनी जवानी के क़िस्से  चटकारे ले ले कर मुझे सुनाती। उसे उसकी माँ ने बताया था कि मर्द की दो ही भूक होती है, एक पेट की और दूसरी पेंट की। और लज्जो मर्द की यह दोनों भूख मिटाने में न सिर्फ सक्षम थी अपितु एक अनुभवी उस्ताद थी। क्या मजाल उसकी रसोई से कोई मर्द भूखा उठ जाए। 

लज्जो मौसी का पति पेशे से एक घड़ीसाज़ था । बाज़ार में पटरी पर उसका घड़ी का काउंटर सिर्फ वक़्त  काटने का एक ज़रिया था। कमाई के नाम पर जो कुछ भी मिलता, शाम होते होते दारू में बह जाता। वह घड़ीसाज़ ज़रूर था लेकिन उसका अपना वक़्त हमेशा खराब चलता रहता । सुई के ऊपर सुई आते ही उसकी सुई अक्सर फिसल जाती और वह दो मिनट में पैंडूलम की तरह झूलने लगता। लज्जो मौसी के बदन पर फिर पसीने की बूँद उभर आती और वह दौड़कर बाथरूम में घुस जाती । इसलिए वह अपने घड़िसाज़ पति को ’झण्डू पैंडूलम’ कहकर बुलाती थी । शतर्मुर्ग  -  सी लंबी पतली टाँगे , खिचड़ी - से बाल, सुअर - सी गर्दन, चमगादड़ - सी आँखें, मुँह पर चेचक के गहरे दाग़, कोई अंधेरे में देख ले तो डर के मारे चीख़ पड़े। ऐसे कुरूप और बेमेल पति के साथ लज्जो अभी तक रह रही थी यही ग़नीमत थी । इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि उस ज़माने में तलाक का इतना चलन नहीं था और दूसरा कारण यह कि वह अपने अपने झण्डू पैंडूलम को पति से भड़वा  बनाने में सफल हो गयी थी। 

लज्जो सुइयों के इस बेमेल खेल से पूरी तरह से उकता चुकी थी और उसके झण्डू पैंडूलम को भी रोज़ दारू पीने की लत लग चुकी थी। इसीलिए ’झण्डू पैंडूलम’ अक्सर हर हफ़्ते अपने किसी नए दोस्त को घर ले आता। 

उस दिन दारु की पार्टी होती, घर में मुर्ग-मछली पकते और देर रात तक दावत उड़ती। मौसम कोई भी हो उस रात झंड़ पेंडुलम को दालान में सोना पड़ता और मेहमान भीतर हॉल में लज्जो मौसी की बाँहों में जन्नत का लुत्फ़  उठाता। 

एक शाम मैं कुछ सौदा लेने बाज़ार के लिए निकल ही रही थी कि लज्जो मौसी ने रोका - " बाज़ार  जा रही हो क्या? "

- " जी मौसी, कुछ चाहिए क्या?" मैंने सहजता से पूछा था।  

- " हाँ, इधर मेरे करीब तो आ बन्नो, " उन्होंने रहस्यमयी  आवाज़ में मुझे बुलाया।

मैं उनके करीब पहुँची तो मेरे कान में मुँह लगा कर बोली- "मेरे लिए एक पिस्तौल तो ले आ।" 

- " पिस्तौल " मैंने लगभग चौकते हुए पूछा। झण्ड पैंडुलम के क़त्ल  का इरादा है क्या? "

- "अरे नहीं बन्नो, असली नहीं , टॉय पिस्तौल चाहिए। वैसे भी उस भड़वे  को मार कर मुझे क्या मिलेगा? वो  परसों एक कोतवाल को लाया था। " 

- " तो फिर....? " मैंने जिज्ञासा से पूछा।  

- " उस कोतवाल ने मेरे नंगे बदन पर ऐसी पिस्तौल घुमाई कि अभी तक फुरफुरी उठ रही है।"  

- " तो क्या अब पिस्तौल से.....? "

- " नहीं समझेगी ठण्डे लोहे की गरमाहट को ... बस तू टॉय पिस्तौल ले आ और प्लास्टिक की नहीं लोहेवाली ही लाइयो । "

उस शाम बाज़ार से लौटकर जब मैंने टॉय पिस्तौल लज्जो मौसी को पकडाई तो उसने ख़ुशी  से मेरे गाल चूम लिए और झट से पिस्तौल अपने आसमान में छुपा ली। मैं आश्‍चर्य से उसकी बावली ख़ुशी  को देखती रही थी । 

इस वाक़ये  के कुछ दिनों बाद ही मेरे पति का तबादला दूसरे शहर में हो गया । बिछड़ते वक़्त लज्जो मौसी मुझसे पागलों की तरह लिपट कर रोई थी और मुझसे वा'दा लिया था कि मैं जब भी कभी उसके शहर में आऊँ तो उनसे मिले बग़ैर  न जाऊँ । उस शाम उनकी गुदाज़ बाँहों  से मैं बमुश्किल ख़ुद को जुदा कर पाई थी। 

नए शहर में हमारा अपना छोटा-सा मार्डन फ्लैट था। पति की तरक्की हो चुकी थी और उन्हें नौकरी के सिलसिले में अब भी अक्सर दौरों पे जाना पड़ता था। लेकिन यहाँ सुरक्षा की दृष्टि से कोई कमी नहीं थी। बिल्डिंग में सी सी टी वी कैमरे, 24 घण्टे सिक्यूरिटी गार्ड । इसीलिए रवि मेरी सुरक्षा को लेकर निश्‍चिंत रहते। हर महीने दो-तीन दिन के लिए घर आते और उसी वक़्त घर का ज़रूरी सामान भी ख़रीद  लिया जाता। 

गरमियों की ऐसी ही एक दोपहर थी । हम बाज़ार से काफी कुछ ख़रीद  कर लाए थे और अपने फ़्लैट के दरवाज़े के सामने खड़े थे। मैं अपने बड़े पर्स में फ्लैट की चाबी ढूँढ रही थी। पर चाबी नहीं मिल पा रही थी। कुछ वक़्त गुज़रने के बाद रवि ने मेरे हाथ से पर्स ले लिया और वही कॉरिडोर  में पर्स उलटा कर दिया । बिखरे सामान से फ़्लैट की चाबी उठा कर मुझे पकड़ाई । मुझे दरवाज़ा खोलने को कहा और पर्स से निकली चीज़ों को वापस पर्स में डालने लगा। बिखरी चीज़ों में एक टॉय पिस्तौल को देखकर रवि ने चौकते हुए पूछा- " यह क्या है ?  "

कुछ नहीं, अतिरिक्त सुरक्षा के लिए .. मैंने एक अटपटा - सा जवाब दिया और फ़्लैट के भीतर घुस गयी थी । 

 " टॉय पिस्तौल, आर यू ओके डार्लिंग ? "- रवि कुछ हैरानी से बोला था। 

- "आप छोड़िए यह सब और जल्दी से फ्रेश हो जाइए, तब तक मैं आपके लिए बढ़िया शर्बत बनाती हूँ।" - मैंने रवि को लगभग बाथरूम की तरफ ढकेलते हुए कहा और अपनी रसोई की ओर बढ़ गयी ।

 आज कई सालों बाद टॉय पिस्तौल ने लज्जो मौसी की याद ताज़ा कर दी थी। मैं अपनी रसोई में एक भूत - सी खड़ी थी । पश्‍चिम से शीशों को भेदती  धूप मेरी टाँगों के मध्यभाग पर ठहर गयी थी । मैंने उस टॉय पिस्तौल कोअपनी मुट्ठी में ज़ोर से भींच रखा था। मेरी कमर और आसमान में पसीने की बूँदें छलछला आई थी। मैंने एक लम्बी साँस छोड़कर अपनी पलकें बंद करी और अपने होंठों को ज़ोर से भींच लिया  लेकिन फिर भी मेरे मुँह से बेसाख़्ता  फूट पड़ा था एक प्रेम राग - " लज्जो मौसी, कहाँ हो तुम ? "



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 



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