प्रेमचंद और उनकी कहानी ' कफ़न '
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई , १८८० को बनारस के एक छोटे से गाँव लमही में हुआ था। उनका जन्म का नाम धनपत राय था। उनकी माँ का नाम आंनदी देवी और पिता का नाम अजायब राय था। प्रेमचंद को बचपन से ही क़िस्से - कहानियाँ पढ़ने में रूचि थी। इन्हें पढ़ते पढ़ते उनके भीतर का लेखक जाग गया और वे स्वयं एक लेखक बन गए। उन्होंने कई उपन्यास लिखे जिनमे ' गोदान ' और ' गबन ' अत्यधिक लोकप्रिय हुए। उन्होंने लगभग ३५० कहानियाँ लिखी जो ' मानसरोवर ' के ७ भागों में संकलित हैं। उन्होंने अपना आरंभिक लेखन उर्दू में किया लेकिन बाद में हिंदी भाषा में रचनाएँ लिखी। उनकी बहुत - सी कहानियाँ काफी चर्चित रही और कुछ कहानियों पर फ़िल्में भी बनी। उनकी कहानी पर आधारित सत्यजीत रे द्वारा निर्देशित फ़िल्म ' शतरंज के खिलाडी ' काफी लोकप्रिय हुई।
उनकी ' कफ़न ' कहानी भी अत्यधिक लोकप्रिय है। इस कहानी पर कोई फ़िल्म तो अभी तक नहीं बनी है लेकिन इस कहानी का नाट्य मंचन अनेक बार हो चुका है। ' कफ़न ' कहानी हिंदी साहित्य में इसलिए भी विशिष्ट बन पड़ी है क्योंकि इस कहानी में लेखक ने आदर्शवाद को दरकिनार कर यथार्थ का चित्रण करा है। वास्तव में देखा जाये तो यह एक कालजयी कहानी है और न केवल भारतीय साहित्य में अपितु विश्व साहित्य में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखती है।
' कफ़न ' कहानी में लेखक ने एक दलित परिवार की ग़रीबी और त्रासदी को उजागर किया है। माधव की पत्नी बुधिया प्रसव पीड़ा से तड़प रही है लेकिन माधव और उसके पिता घीसू को उसकी ज़रा भी चिंता नहीं है। न तो वे लोग उसको अस्पताल ले जा रहे हैं और न ही किसी दाई का इंतज़ाम कर रहे हैं। वास्तव में उनके पास घर में खाने के लिए भी पैसे नहीं है और इसीलिए माधव जिसने अपनी पत्नी का एक साल तक सुख भोगा है अब इस बात को लेकर बिलकुल भी दुखी नहीं है कि उसकी पत्नी पीड़ा में है , बल्कि वह उसके मरने की प्रतीक्षा कर रहा है।
लेखक ने पुरुष समाज की मानसिकता और औरत की दुर्दशा का सजीव चित्रण किया है। जिस देश में नारी को देवी समान पूजा जाता है उसी देश में नारी प्रताड़ित भी होती है। सिर्फ ठाकुर लोग ही अपनी औरतों को पैरो की जूती नहीं समझते बल्कि घीसू और माधव जैसे भिखमंगे भी औरत को अपने पैरो की जूती ही समझते हैं। लेखक ने क़र्ज़ से लदे इन दोनों बाप - बेटे के आरामतलबी और काम से मन चुराने की प्रकृति को अत्यंत व्यंग्यपूर्ण भाषा में उजागर किया है। गाँव में काम की कमी नहीं है लेकिन ये काम पर नहीं जाते , दुगनी मज़दूरी मांगते ,अगर एक दिन कमाते तो हफ़्ते भर आराम करते। लोगो की गालियाँ भी खाते लेकिन इन्हें किसी बात का ग़म नहीं होता।
आख़िरकार माधव की पत्नी बुधिया प्रसव वेदना से तड़प तड़प कर मर जाती है और ये दोनों बाप - बेटे उबले हुए आलू खाते रहते हैं। घर की गृहणी बुधिया की मौत का इन्हें ज़रा भी दुःख नहीं होता। इन्हें इस बात की भी चिंता नहीं कि अब उसका दाह संस्कार कैसे करेंगे। जब इसके बारे में माधव पूछता है तो अनुभवी घीसू उसे निश्चिन्त रहने को कहता है। उसे मालूम है कि इस कार्य के लिए गाँव वाले उन्हें पैसे देंगे और गाँव वाले उन्हें पैसे देते भी हैं। जब उनके पास पैसे आ गए तो वे बाज़ार से कफ़न ख़रीदने गए। उन्हें लगा कि महंगा कफ़न खरीद कर क्या करना है , कफ़न तो लाश के साथ जल ही जायेगा , फिर कफ़न पर इतने पैसे क्यों खर्च करने है। ऐसे ही तर्क - वितर्क करते वे दारु के ठेके पर पहुँच गए। कफ़न के पैसे दारु और पूरी खाने में उड़ा दिए । दारू की इस दावत के लिए दोनों बुधिया को आशीर्वाद दे रहे थे लेकिन बुधिया की लाश अभी भी घर पर कफ़न का इन्तिज़ार कर रही थी। चिंतातुर माधव अपने पिता घीसू से पूछता है कि अब कफ़न के पैसे कहाँ से आएंगे। अनुभवी घीसू कहता है कि बुधिया के दाह संस्कार की चिंता करने की ज़रूरत नहीं। इस बार भी कफ़न का इंतिज़ाम गाँव वाले ही करेंगे , लेकिन इस बार पैसे उनके हाथ में नहीं आएंगे। दोनों बाप बेटे बुधिया के कफ़न को लेकर निश्चिन्त थे। उन्हें किसी बात की फ़िक्र नहीं थी। नशे में कूद रहे थे , नाच रहे थे और नाचते नाचते नशे में बदमस्त हो कर वे वही गिर पड़े थे।
बुधिया के कफ़न का इंतिज़ाम गाँव वालो ने कर दिया था लेकिन अफ़सोस कि आज भी ऐसी बहुत - सी बुधिया कफ़न का इन्तिज़ार करती हैं। प्रेमचंद की ' कफ़न ' कहानी इसलिए भी कालजयी है क्योंकि एक सदी के गुज़रने के बाद भी बहुत कुछ नहीं बदला है। अगर आपने यह कहानी अभी तक नहीं पढ़ी हो तो ज़रूर पढ़े क्योंकि ' कफ़न ' कहानी विश्व की बेहतरीन कहानियों में से एक है।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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