लघुकथा - नुक़्ता - ए - ज़िंदगी
कवि मित्र का नवीनतम काव्य संग्रह " जिंदगी " के मुख पृष्ठ पर ही ज़िंदगी लफ़्ज़ बिना नुक़्ते के छपा देख मैंने उन से पूछा -" यह एक प्रूफ़ की ग़लती छूट गयी हैं या आपने जानबूझ या अनजाने में " ज़िंदगी " से नुक़्ते को निकाल दिया है।
कवि मित्र हाज़िर जवाब थे , तत्काल बोले - " ज़िंदगी की भाग दौड़ में कभी ज़िंदगी नुक़्ते के साथ मिली तो कभी बिना नुक़्ते के , लेकिन जैसे भी मिली मैंने भरपूर जिया है इसको " । ,
उनका जवाब सुन कर दिल ख़ुश हुआ और मुझे भी लगा वाकई ज़िंदगी नुक़्ते के साथ हो या बिना नुक़्ते के रहेगी तो ज़िंदगी ही। ज़िंदगी कोई ' ख़ुदा ' थोड़े ही न है जो नुक़्ता न लगाने से ' जुदा ' हो जायेगा।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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