देखते ही देखते वो शाम सूनी ढल गयी
मेरे दिल की आग से चांदनी भी जल गयी
रो उठा आकाश भी , तारो का बिछड़ा क़ाफ़िला
दिल से ज़ख़्मों का जुड़ा इक मुसलसल सिलसिला
पीर का पर्वत मगर इन आँसुओं से कब गला
इक नदी पर पीर की लम्हा लम्हा गल गयी
ज़िंदगी है इक सफ़र और मौत है उसका कफ़न
सामने मंज़िल है पर दिल में है भारी थकन
हर सफ़र में हम को लूटा रौशनी ने हर क़दम
रौशनी के नाम पर तीरगी भी छल गयी
लौट कर न आएंगे अब जो बिछड़े हमसफ़र
दश्त ही बस दश्त अब सूनी है हर रहगुज़र
बुझ गए ये चिराग़ भी , हर दुआ अब बेअसर
ज़िंदगी इक राख़ - सी मेरे दिल पर मल गयी
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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