बंजर ज़मीन , बारिश और बादल
बारिश को तरसती बंजर ज़मीन और बाबा की नज़र उठती आसमान में। दूर दूर तक आग उगलती गरमी और पानी को तरसते प्यासे होंठ। उमड़ती - घुमड़ती जब कोई काली बदरी आती तो खिल उठते उम्मीद के फूल लेकिन जब ये बदरी बिन पानी बरसाए लौट जाती तब धरती फिर उदास हो जाती। । बाबा को यूँ उदास और टकटकी लगाए देख कर उधर से गुज़रते किसी फ़रिश्ते ने उस से कहा -
- " यूँ देखते भर रहने से बारिश नहीं होगी "
-" तो फिर क्या करूँ , अगर इस साल भी बारिश नहीं हुई तो सब बर्बाद हो जायेगा " - बाबा ने मायूसी से पूछा।
- " यूँ चुप बैठने से कुछ न होगा , दो - चार खरी - खोटी सुनाओ ऊपर वाले को , फिर देखना कैसे बारिश होती है " फ़रिश्ते ने जवाब दिया।
फ़रिश्ते की बात सुन कर बाबा ने ख़ूब खरी खोटी सुनाई ऊपर वाले को और देखते देखते बारिश की बूँदें बंजर ज़मीन की प्यास बुझाने लगी।
बाबा समझ गया था कि वो युग चला गया जब प्रार्थनाएँ सुनी जाती थी , इस कलियुग में तो जब तक किसी को हड़काओ नहीं कोई सुनता ही नहीं।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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