तुम तुलसी हो आँगन की
मैं जूठा गंगाजल हूँ
तुम विशवास हो मन का
मैं चटका हुआ दरपन हूँ
तुम मधुमास उपवन का
मैं जलता हुआ चन्दन हूँ
लाख समझाया मन को
ख़ुश्बू हाथ नहीं लगती
तुम दस्तक हो जीवन की
मैं बीता हुआ कल हूँ
तुम मौसिम हो फूलों का
मैं रीता हुआ पतझर हूँ
तुम पत्थर हो देहरी का
मैं टूटा हुआ इक घर हूँ
लाख समझाया मन को
बिगड़ी बात नहीं बनती
तुम धड़कन हो जीवन की
मैं साँसों की दलदल हूँ
तुम नग़मा हो अधरों का
मैं भटका हुआ इक सुर हूँ
तुम सागर हो मदिरा का
मैं बिखरा हुआ परिमल हूँ
लाख समझाया मन को
मदिरा मुफ़्त नहीं मिलती
तुम धारा हो नदिया की
मैं ठहरा हुआ जल हूँ।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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