जल रहा हूँ दीप - सा हर लहर के हर अधर पर
रच रहा हूँ गीत - सा प्राण की सूनी डगर पर
रिस गया फिर ज़ख़्म कोई , फूल भी घायल हुए
सपने सा टूटे सदा हम , कब आँख के काजल हुए
दिल को दिल कहने लगे हम , इश्क़ में पागल हुए
गल रहा हूँ पीर - सा आँसुओं की रहगुज़र पर
ज़ौक़ मुझसे मिलने का , दिल से तेरे जाता रहा
एक नग़मा पीर का मैं रात - दिन गाता रहा
इश्क़ जलती आग इक , दिल को समझाता रहा
हँस रहा हूँ मीर- सा अपने ही ज़ख़्मी जिगर पर
ज़िंदगी इक बुलबुला है मौत की ठहरी नदी का
इस नदी की आग में जलता बदन है चांदनी का
बुझ गया फिर दीप कोई ज़िंदगी की आरती का
बन रहा हूँ ख़्वाब - सा राख़ की बुझती नज़र पर
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
No comments:
Post a Comment