कहानी - आज का कृष्ण
" भैया , आपके बहुत पुराने दोस्त आये हैं " - मेरे घर में घुसते ही छोटी बहिन ने मुझे बताया।
" कौन है ? " - पूछते हुए मैंने बैठक में झाँका , लेकिन वहाँ कोई भी नहीं था।
" ज़रा सोचो " - बहिन ने मेरा इम्तहान लेते हुए कहा - ' म ' अक्षर से शुरू होता है उनका नाम। "
मैं , ' म ' अक्षर से शुरू होने वाले पने सभी यार दोस्तों का नाम याद करने लगा , पर जहाँ दुनियादारी की इस भाग - दौड़ में इंसान कभी - कभी अपना ही नाम भूल जाता हो , वहाँ मुझे इतना पुराना नाम कैसे याद आता।
" नहीं याद आया , वही आपका पुराना दोस्त ' मनुआ ' , बहिन ने मेरी याद ताज़ा करते हुए कहा।
मनुआ ...मनुआ .... मेरी आँखों के सामने १५ बरस पुराने मित्र मनुआ की तस्वीर उभर आई। हम लोग एक सरकारी कॉलोनी में किराये के मकान में रहा करते थे। हमारे पड़ोस में रहता था एक गढ़वाली परिवार। उसी परिवार का बड़ा लड़का था मनुआ , मेरे बचपन का दोस्त।
मनुआ के पिता होमगार्ड के दफ़्तर में क्लर्क के पद पर कार्यरत थे। मनुआ पढ़ाई - लिखाई में औसत भी न था पर किस तरह से रो - पीट कर उसने बी. ए. की डिग्री हासिल कर ली थी। उसके पिता इस बात से बहुत ख़ुश थे कि उनका लड़का भी अब बी. ए. पास है और वे अब किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर अफ़सर न सही , कम से उनकी तरह सरकारी क्लर्की ज़रूर पा लेगा। उसके बाद मनुआ एक के बाद एक प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठता रहा लेकिन सरकारी नौकरी तो दूर की बात है उसकी प्राइवेट नौकरी भी न लग पाई। इसका एक कारण उसका दब्बूपन भी रहा। बचपन से ही पिता का डंडा खा - खा कर वह इतना दब्बू बन गया था कि वह अपनी बात भी दूसरों को ठीक से समझा नहीं पाता था। कार्य क्षमता , विवेक , आत्म विशवास , कुछ कर गुज़र जाने की महत्वकांक्षा , ऐसे गुण उसमे रत्ती भर भी न थे।
" भैया , अपने दोस्त से मिलोगे नहीं ? " बहिन मेरी तन्द्रा भंग करते हुए मुझसे कहा।
" मिलूँगा क्यों नहीं ? , पर वो है कहाँ ?"
" आपके कमरे में सो रहे है "
" सो रहा है .... मेरे कमरे में ...." मैं लम्बे - लम्बे डग भरते हुए अपने कमरे की ओर बढ़ा।
अपने डबल बैड पर रजाई ओढ़े सो रहे उस प्राणी को देख कर क्षण भर को तो मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ - सा खड़ा रहा। वक़्त कैसे सूरते बदल देता है इंसान की , इसका एहसास मुझे आज ही हुआ। पिचके हुए गाल, तीन - चौथाई पके हुए बाल , ३२ की आयु में वह ५० से ऊपर का दीखता था , उसका यूँ मेरे डबल बैड पर पैर पसरे सोना मुझे एक पल को भी न भाया।
" ओ ..मनुआ ....मनुआ " ज़ोर से बोलते हुए मैंने उसे लगभग पलंग से उठाते हुए कहा - " आ यार ... बाहर घूमने चलते है , ये कोई सोने का टाइम है ? और कब आया ? घर में सब ठीक है न ? " यह सब मैं एक ही साँस में कह गया।
" बस अभी आधे घंटे पहले आया था , तू घर पे था नहीं , मैंने सोचा थोड़ा आराम ही कर लूँ " - मनुआ ने दबे स्वर में जवाब दिया।
मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि मेरी बीवी और बच्चें घर पर नहीं थे , अगर वे इस प्राणी को देखते तो न जाने कैसे कैसे सवाल करते।
किसी ने सच ही कहा है कि उड़ते हुए परिंदे , कटे पंखों वाले परिंदों के दर्द को महसूस नहीं कर सकते।
" चाय पियेगा ? " , मैंने औपचारिकता निभाते हुए पूछा।
" पी लेंगे " - उसने बुझे स्वर में जवाब दिया।
" चल फिर बाहर ही चलते है , मार्किट में आराम से बैठ कर पिएँगे , कुछ गपशप भी हो जाएगी " - कहते हुए मैं उसे सड़क पर ले आया।
बाते चलीं तो बचपन कि यादें भी ताज़ा हो गयीं। बचपन के दिन भी क्या दिन थे। न कोई फ़िक्र न कोई झमेला। शाम देर तक खेलना फिर अपने - अपने घरों में घुस जाना। अपनी माँ के प्यारे हाथो की रोटियॉँ खा कर फिर रात देर तक सड़कें नापना। कभी - कभी ऐसा भी होता कि मैं मनुआ के घर या मनुआ मेरे घर एक साथ ही खाना खाते। मनुआ की माँ कई दालों को मिला कर एक दाल बनाती थी जो मुझे बहुत स्वादिष्ट लगती थी और जब कभी भी उसके घर वो दाल बनती तो मैं मनुआ के साथ उसी के घर खाना खाता। मनुआ की माँ खाना खिलाते खिलाते मुझसे कहती - " इसे कुछ समझा बेटे , ठीक से पढ़ेगा - लिखेगा नहीं तो कही चपरासीगिरी भी नहीं मिलेगी "।
मैं , हाँ ..हूँ ...करता रहता। मेरा मन दाल में लगा रहता था। खा - पी कर हम झटपट सड़क पर आ जाते और देर तक बतियाते रहते। हमारी बातों का पढ़ाई - लिखे से कोई विशेष सम्बन्ध न होता था। मोहल्ले की कौन - सी चिड़िया को कैसे फँसाया जाये , कौन - सी चिड़िया के लिए कौन - सा दाना उपयुक्त रहेगा। चिड़िया दाना चुगेगी कि नहीं और अगर दाना चुग के भी उड़ गई तो ...बस यही सब हमारी बातों का सिलसिला होता।
समय तेज़ गति से बीतता गया। मनुआ के पिता रिटायर हो गए। मनुआ को अभी तक कोई नौकरी न मिल पाई थी। सरकारी मकान भी छूट गया था। नया किराये का मकान लेना मनुआ के पिता के सामर्थ्य से बाहर था। कुछ ही दिनों में मनुआ और मनुआ का परिवार अपने पैतृक गाँव को रवाना हो गया। गाँव जाने से पहले उसने मुझे बताया था अपने छोटे - से गाँव के बारे में। बहुत दूर पहाड़ों के बीच , एक छोटी - सी नदी के किनारे , एक छोटा - सा गाँव , दूर , हाँ , बहुत दूर .. महानगर कि विषमताओं से दूर।
मनुआ के गाँव का पता बहुत पहले ही मुझसे खो गया था पर मनुआ ने अपने दोस्त को ढूंढ़ ही निकाला। बाते करते करते हम मार्किट में एक छोटे से रेस्टॉरेंट तक पहुँच गए थे।
" और सुना , सब ठीक है ना ? " , रेस्टोरेंट में बैठते हुए मैंने उससे पूछा।
- " हाँ , सब ठीक है। " उसका जवाब सपाट था।
-" शादी - वादी हो गई ? "
- " हाँ , शादी तो हो गई। " उसने शरमाते हुए कहा।
- " तो बीवी कहा है ? "
- " गाँव में ही है। "
- " और तू यहाँ क्या कर रहा है ? "
- " मैं...नौकरी की तलाश में आया हूँ , अपने चाचा के यहाँ ठहरा हुआ हूँ। यार , कही कोशिश कर के मेरी नौकरी लगवा दे। " उसने मुझसे चिरौरी करते हुए कहा।
- " ठीक है , कोशिश करूँगा " मैंने उसे टालते हुए कहा।
- " ठीक है फिर , चलता हूँ मैं " - उसने चाय ख़त्म करते हुए कहा।
- "चल , ठीक है " , मनुआ के बढे हुए हाथ की दो उँगलियों को छूटे हुए मैंने उससे विदा ली। जब घर पहुँचा तो आठ बज चुके थे।
" अरे , आ गए तुम...खाना खा लो " , मेरी माँ ने मेरी आहट लेते हुए मुझसे कहा। मेरे साथ मनुआ को न देख कर माँ ने पूछा - "मनुआ कहा रह गया ?"
- " मनुआ तो चला गया। "
मेरा सपाट जवाब सुन कर माँ नाराज़ होते हुए बोली - " चला गया , बिना खाना खाये चला गया , तूने क्यों जाने दिया उसे ? "
- " मैं क्या करता , चला गया वो " , मैंने लगभग चिढ़ते हुए कहा।
- " कम से कम खाना खिला के भेजता उसे , इतने सालों बाद आया था .." माँ बड़बड़ाती हुई रसोई में घुस गई और मैं वही थका - सा डाइनिंग टेबल पर ही बैठ गया। टेबल पर पड़े हुए एक पैकेट को देख कर मैंने माँ से पूछा - " माँ , ये किसका पैकेट है , क्या है इसमें ? "
- " मुझे नहीं पता , मनुआ लाया था , खोल कर देख ले क्या है " माँ ने रसोई से जवाब दिया।
" मनुआ लाया था ..." कहता हुए मैंने पैकेट खोल डाला। पैकेट में छुपी दो बड़ी चॉकलेट पर नज़र पड़ते ही मैं जड़ हो गया।
मुझे लगा सुदामा आज भी वैसा ही है बस कृष्ण ही अपनी पहचान खो बैठा है।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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