मन एक मीत अनजाना है
इसको किसने पहचाना है
कभी फूलों में छिप कर रोता
कभी शूलों पे हँस कर सोता
कभी ग़ैर लगे इसको अपने
कभी अपनों के छीने सपने
काम किसी के आये न जो
वो जीना तो मर जाना है
कभी बोझ पहाड़ों का ढोता
कभी एक चुभन से ही रोता
कभी सात समुन्दर पार गया
कभी घर में अपने हार गया
दुःख जो मिलते हैं जीवन में
उन में ही हमें सुख पाना है
कभी तितली के सँग उड़ जाता
कभी दरिया के सँग मुड़ जाता
कभी उछले है ये पारा - सा
कभी ढूंडे हैं किनारा - सा
पर कौन डगर है अब जाना
तय आज हमें कर जाना है।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
No comments:
Post a Comment