लघुकथा - दीवार
पडोसी ने अपना पुराना मकान तुड़वा कर नया मकान बनवाया तो आँगन की ३ फ़ीट की दीवार को ६ फ़ीट ऊँचा कर दिया। यह देख कर मेरी पत्नी उदास हो कर मुझसे बोली - "देखिये भाईसाहब ने दीवार कितनी ऊँची कर दी है , पहले तो कभी कभी आमने -सामने खड़े हो कर बात हो जाती थी अब तो हम एक दूसरे की शक्ल भी नहीं देख पाएँगे , बात करना तो दूर की बात है। "
- " अरे धीरे बोलो , दीवारों के भी कान होते हैं , अगर उन्होंने सुन लिया तो बुरा मान जायेंगे " - मैंने पत्नी को शांत करते हुए कहा।
- " मैं तो चाहती हूँ वो सुन ले , दीवारों के कान ही नहीं दिल भी होता है , ज़रा ग़ौर से देखिये , ये दीवार कैसे सुबक - सुबक के रो रही है। "पत्नी मायूसी से बोली।
आँगन की ऊँची दीवार से टपकती बारिश की बूँदों में पत्नी के आँसू घुल - मिल गए थे और उन बूँदों से मेरा दिल भी भीग गया था। ।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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