बाग़े - इरम
जन्नत के बाग़ में आज मैं अकेला नहीं था। पहलू में मेरे लम्बे क़द वाले मेहबूब की ज़ुल्फ़ों के साये में शाम गहरा रही थी। उसके नाज़ुक लबों पर प्रीत का एक नग़मा तड़प रहा था। उसकी पतली उँगलियों ने कैन्वस पर उकेर दिया था ज़िंदगी का चित्र । उसकी सुराही - सी गर्दन पर टिका मुहब्बत का साज़ गुनगुना रहा था प्रीत का तराना । दूधिया चाँदनी मेरे मेहबूब के बदन से लिपटी हुई थी और चाँद झील में नहा रहा था। पहाड़ों से गिरते झरने मेरे मेहबूब के क़हक़हों से जल रहे थे और उसकी नीम - बाज़ आँखों की मस्ती में सारा आलम डूबा हुआ था।
मेरे ख़्याल में रात का एक बजा होगा। सारी दुनिया सो रही थी कि तभी मेरी आँख खुल गयी। टूट गया था बाग़े - इरम का सपना। सपने तो टूटने के लिए ही होते हैं , टूट गया तो क्या हुआ , मेरा दिल तो बाग़ बाग़ हुआ ।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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