Friday, June 23, 2023

लघुकथा - मानदेय



लघुकथा - मानदेय

 पत्रिका के सम्पादक ने मेरी रचना यह कह कर लौटा दी कि रचना इसलिए नहीं प्रकाशित की जा सकती क्योंकि मैंने उनकी  पत्रिका की सदस्यता अभी तक नहीं ख़रीदी है।  पत्रिका की सदस्यता १०००/  सलाना थी।  यह जानकारी मेरे लिए नई थी।  मैंने सहयोग के माध्यम से १०००/ प्रेषित कर दिए और अगले अंक में ही मेरी रचना उस पत्रिका में प्रकाशित हो गयी। रचना  छपने की स्वीकृति  सुखद थी ।  मेरी समझ में अब बाज़ार की चाल आ गयी थी।  वो ज़माना अब जा चुका था जब लेखक की रचना किसी पत्रिका में उसकी गुणवत्ता के आधार पर छपती थी और लेखक को  उसके लिए कुछ मानदेय मिलता था। 

उस ज़माने के प्रकाशक शायद अमीर थे जो लेखकों को मानदेय देते थे। अब ज़माना बदल चुका है। आज प्रकाशक ग़रीब है और लेखक अमीर। अब लेखक, प्रकाशकों को मानदेय देते हैं और जहाँ चाहे वहाँ छपते  हैं।    

यक़ीन नहीं आ रहा आपको , आज़मा कर देख लीजिए।  हाथ कंगन को आरसी क्या , पढ़े - लिखे को फ़ारसी क्या। लेकिन अफ़सोस फ़ारसी तो दूर की बात है , अभी तो लोग हिन्दी और उर्दू ही सीख रहे हैं। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

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