उन क़दमों का बढ़ना कैसा
नियति जिनकी बढ़ कर थमना
बढ़ कर थमते , थम कर बढ़ते
क़दमों का कटा ठौर ठिकाना
काबा जिस में , मंदिर जिस में
जिस आँगन में तुलसी बौराये
थी ख़ुशियाँ जिस में डेरा डाले
औ अधरों पर जीवन मुस्काये
छोटा -सा इक घर था अपना
टूट गया वो मीठा सपना
घर का सपना , सपना घर का
टूटे न अब और किसी का
उन सपनों का बनना कैसा
नियति जिनकी बन कर मिटना
बन कर मिटते मिट कर बनते
सपनो का क्या ठौर ठिकाना
सूरज जिस को ,चंदा जिस को
औ तारे भी जिसको चमकाए
वो किरने जिसमें डेरा डाले
नूर ख़ुदा का वो बन जाए
रौशन जिस से घर अपना था
घर उस दीपक से जलना था
घर का दीपक , दीपक घर का
फूंके न घर और किसी का
उन दीपों का जलना कैसा
नियति जिनकी जल कर बुझना
जल कर बुझते , बुझ कर जलते
दीपों का क्या ठौर ठिकाना
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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