Monday, June 12, 2023

गीत - उन क़दमों का बढ़ना कैसा

 उन क़दमों    का बढ़ना कैसा 

नियति जिनकी बढ़ कर थमना 

बढ़ कर थमते , थम कर बढ़ते 

क़दमों का कटा ठौर ठिकाना 


काबा जिस में , मंदिर जिस में 

जिस आँगन में तुलसी बौराये 

थी ख़ुशियाँ जिस में डेरा डाले 

औ अधरों पर जीवन मुस्काये 


छोटा -सा इक घर था अपना 

टूट गया वो मीठा सपना 

घर का सपना , सपना घर का 

टूटे न अब और किसी का 


उन सपनों का बनना कैसा 

नियति जिनकी बन कर मिटना 

बन कर मिटते मिट कर बनते 

सपनो का क्या ठौर ठिकाना 


सूरज जिस को ,चंदा जिस को 

औ तारे भी जिसको चमकाए 

वो किरने जिसमें डेरा डाले 

नूर ख़ुदा का वो बन जाए  


रौशन जिस से घर अपना था 

घर उस दीपक से जलना था 

घर का दीपक , दीपक घर का 

फूंके न घर और किसी का 


उन दीपों का जलना कैसा 

नियति जिनकी जल कर बुझना 

जल कर बुझते , बुझ कर जलते 

दीपों का क्या ठौर ठिकाना 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


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