मैं सपनो का सौदागर हूँ
सपनो के बुनता मैं घर हूँ
रात रात सपने बुनता हूँ
फिर उठ कर उन को गिनता हूँ
जो आँखें हो आस से ख़ाली
उन नयनों में जा बसता हूँ
मैं सपनो का सौदागर हूँ
सपनो के बुनता मैं घर हूँ
बिन सपनो के रात अधूरी
बिन अपनों के बात अधूरी
जीवन ऐसा खेल है जिस में
बिन ख़ुद हारे मात अधूरी
मैं सपनो का सौदागर हूँ
मिटटी का नन्हा इक घर हूँ
गीत उसी के मन गाएगा
दर्द जो दिल को दे जाएगा
गहरी नींद सुला दे जो
वो सपना कब आएगा
मैं सपनो का सौदागर हूँ
मिट्टीमें मिलता अक्सर हूँ
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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