Friday, June 30, 2023

लघुकथा - फेयरवेल पार्टी

 फेयरवेल पार्टी 


दफ़्तर में एक सहकर्मी के रिटायर होने के अवसर पर  फेयरवेल पार्टी  का आयोजन था। पुराने साथी के बिछड़ने का दुःख तो था लेकिन फिर भी सभी तैयारी में जुटे थे। एक दूसरे साथी जो गवैये थे  अपनी रियाज़ में मशगूल थे। समय पर सब तैयारियाँ हो गयी थी।  तभी कम्पनी के निदेशक    आये तो सभी खड़े हो गए। उन्होंने भाषण दिया और सबने बजाई तालियाँ। वातावरण को सहज बनाने के लिए गायक साथी से गाने की फ़रमाईश की गयी। इसी बीच जलपान आ गया और सभी खाने - पीने  में मसरूफ़ हो गए। मैंने अपने साथी गायक को उनकी सुन्दर गायकी के लिए बधाई दी तो वे मुस्कुराते हुए बोले - " ग़ज़ल तो साहब को भी बहुत पसंद आई , मैं देख रहा था साहब अपने एक हाथ की उँगलियाँ दूसरे हाथ की उँगलियों पर थपथपा रहे थे और होंठों -  होंठों में धीरे धीरे गुनगुना रहे थे। "

अपने गवैये साथी की इस  टिप्पणी पर मैं हैरान था कि एक  गायक ग़ज़ल गाते - गाते इतना  हिसाब - किताब  कैसे लगा सकता हैं। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस       

Thursday, June 29, 2023

प्रेमचंद और उनकी कहानी ' कफ़न '

 प्रेमचंद और उनकी कहानी ' कफ़न ' 


उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई , १८८० को बनारस के एक छोटे से गाँव लमही में हुआ था।  उनका जन्म का नाम धनपत राय था।  उनकी माँ का नाम आंनदी देवी और पिता का नाम अजायब राय था।  प्रेमचंद को बचपन से ही क़िस्से - कहानियाँ पढ़ने में रूचि थी।  इन्हें पढ़ते पढ़ते उनके भीतर का लेखक जाग गया और वे स्वयं एक लेखक बन गए। उन्होंने कई उपन्यास लिखे जिनमे ' गोदान ' और ' गबन ' अत्यधिक लोकप्रिय हुए।  उन्होंने लगभग ३५० कहानियाँ लिखी जो ' मानसरोवर ' के ७ भागों में संकलित हैं। उन्होंने अपना आरंभिक लेखन उर्दू में किया लेकिन बाद में हिंदी भाषा में रचनाएँ लिखी।   उनकी बहुत - सी कहानियाँ काफी चर्चित रही और कुछ कहानियों पर फ़िल्में भी बनी। उनकी कहानी पर आधारित सत्यजीत रे द्वारा निर्देशित फ़िल्म  ' शतरंज के खिलाडी '  काफी लोकप्रिय हुई। 


उनकी ' कफ़न ' कहानी भी अत्यधिक लोकप्रिय है।  इस कहानी पर कोई फ़िल्म तो अभी तक नहीं बनी है लेकिन इस कहानी का नाट्य मंचन अनेक बार हो चुका है।  ' कफ़न  ' कहानी हिंदी साहित्य में इसलिए भी विशिष्ट बन पड़ी है क्योंकि इस कहानी में लेखक ने आदर्शवाद को दरकिनार कर यथार्थ का चित्रण करा है। वास्तव में देखा जाये तो यह एक कालजयी कहानी है और न केवल भारतीय साहित्य में अपितु विश्व साहित्य में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखती है। 


' कफ़न ' कहानी में लेखक ने एक दलित परिवार की ग़रीबी और त्रासदी को उजागर किया है।  माधव की पत्नी बुधिया प्रसव पीड़ा से तड़प रही है लेकिन माधव और उसके पिता घीसू को उसकी ज़रा भी चिंता नहीं है। न तो वे लोग उसको अस्पताल ले जा रहे हैं और न ही किसी दाई का इंतज़ाम कर रहे हैं।  वास्तव में उनके पास घर में खाने के लिए भी पैसे नहीं है और इसीलिए माधव जिसने अपनी पत्नी का एक साल तक सुख भोगा है अब इस बात को लेकर बिलकुल  भी दुखी नहीं है कि उसकी पत्नी पीड़ा में है , बल्कि वह उसके मरने की प्रतीक्षा कर रहा है। 

लेखक ने पुरुष समाज की मानसिकता और औरत की दुर्दशा का सजीव चित्रण किया है।  जिस देश में नारी को देवी समान पूजा जाता है उसी देश में नारी प्रताड़ित भी होती है।  सिर्फ ठाकुर लोग ही अपनी औरतों को पैरो की जूती नहीं समझते बल्कि घीसू और माधव जैसे भिखमंगे भी औरत को अपने पैरो की जूती ही समझते हैं। लेखक ने क़र्ज़ से लदे इन दोनों बाप - बेटे के आरामतलबी और काम से मन चुराने की प्रकृति को अत्यंत व्यंग्यपूर्ण भाषा में उजागर किया है। गाँव में काम की कमी नहीं है लेकिन ये काम पर नहीं जाते , दुगनी मज़दूरी मांगते ,अगर एक दिन कमाते तो  हफ़्ते भर आराम करते।  लोगो की गालियाँ  भी खाते लेकिन इन्हें किसी बात का ग़म नहीं होता।  


आख़िरकार माधव की पत्नी बुधिया प्रसव वेदना से तड़प तड़प कर मर जाती है और ये दोनों बाप - बेटे उबले हुए आलू खाते रहते हैं।  घर की गृहणी बुधिया की मौत का इन्हें ज़रा भी दुःख नहीं होता।  इन्हें इस बात की भी चिंता नहीं कि अब उसका दाह संस्कार कैसे करेंगे।  जब इसके बारे में माधव पूछता है तो अनुभवी घीसू  उसे निश्चिन्त रहने को कहता है।  उसे मालूम है कि इस कार्य के लिए  गाँव वाले उन्हें पैसे देंगे और गाँव वाले उन्हें पैसे देते  भी हैं। जब उनके पास पैसे आ गए तो वे बाज़ार से कफ़न ख़रीदने गए। उन्हें लगा कि महंगा कफ़न खरीद कर क्या करना है , कफ़न तो लाश के साथ जल ही जायेगा , फिर कफ़न पर इतने पैसे क्यों खर्च करने है।  ऐसे ही तर्क - वितर्क करते वे दारु के ठेके पर पहुँच गए। कफ़न के पैसे दारु और पूरी खाने में उड़ा दिए । दारू की इस दावत के लिए दोनों बुधिया को आशीर्वाद दे रहे थे लेकिन बुधिया की लाश अभी भी घर पर कफ़न का इन्तिज़ार कर रही थी। चिंतातुर माधव अपने पिता घीसू से पूछता है कि अब कफ़न के पैसे कहाँ से आएंगे।  अनुभवी घीसू कहता है कि बुधिया के दाह संस्कार की चिंता करने की ज़रूरत नहीं।  इस बार भी कफ़न का इंतिज़ाम गाँव वाले ही करेंगे , लेकिन इस बार पैसे उनके हाथ में नहीं आएंगे।  दोनों बाप बेटे बुधिया के कफ़न को लेकर निश्चिन्त थे।  उन्हें किसी बात की फ़िक्र नहीं थी।  नशे में कूद रहे थे , नाच रहे थे और नाचते नाचते नशे में बदमस्त हो कर वे वही गिर पड़े थे। 


बुधिया के कफ़न का इंतिज़ाम गाँव वालो ने कर दिया था लेकिन अफ़सोस कि आज भी ऐसी बहुत - सी बुधिया कफ़न का इन्तिज़ार करती हैं। प्रेमचंद की ' कफ़न ' कहानी इसलिए भी कालजयी है क्योंकि एक सदी के गुज़रने के बाद भी बहुत कुछ नहीं बदला है। अगर आपने यह कहानी अभी तक नहीं पढ़ी हो तो ज़रूर पढ़े क्योंकि  ' कफ़न ' कहानी  विश्व की बेहतरीन कहानियों में से एक है। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

गीत - शब्द कोई प्रेम भरा ..........

 शब्द कोई प्रेम भरा , अब मुझ को न लिखना तुम 

मेरे जलते ज़ख़्मों पे , अब  मरहम   न रखना तुम  


 टूटा दिल उजड़ी बस्ती , बिखरा हुआ फ़साना हूँ 

 मुरझाए फूलों पे पसरा , एक   अदद दर्दाना हूँ 


इस टूटी सरगम से अब गीत कोई न रचना तुम 


अपने ज़िंदा ज़ख़्म को आज कफ़न पहनाया  है 

आज ही टूटा दिल मेरा   बरसों में   मुस्काया  है


इन भीगी पलकों पे अब दीप कोई न रखना तुम 


मेरा दिल  सूना  मरघट इसमें कौन रहेगा अब 

छोड़ गए मुझ को तन्हा जलते चन्दन वन में सब 


इस जलते चन्दन से अब तिलक न कोई करना तुम  

 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस   

गीत - जल रहा हूँ दीप - सा......

 जल रहा हूँ दीप - सा हर लहर के हर अधर पर 

रच रहा हूँ गीत - सा   प्राण की सूनी  डगर पर 


रिस गया फिर ज़ख़्म कोई , फूल भी घायल हुए 

सपने सा टूटे सदा हम , कब आँख के काजल हुए 

दिल को दिल कहने लगे हम , इश्क़ में पागल हुए 


गल रहा हूँ पीर - सा आँसुओं की रहगुज़र पर 


ज़ौक़ मुझसे मिलने का , दिल से तेरे  जाता  रहा 

एक नग़मा पीर का   मैं रात - दिन गाता रहा 

इश्क़ जलती आग इक , दिल को समझाता रहा 


हँस रहा हूँ मीर- सा अपने ही ज़ख़्मी जिगर पर 


ज़िंदगी इक बुलबुला है मौत की ठहरी नदी का 

इस नदी की आग में जलता बदन है चांदनी का 

बुझ गया फिर दीप कोई ज़िंदगी की आरती का 


बन रहा हूँ ख़्वाब - सा राख़ की बुझती नज़र पर 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस   


Wednesday, June 28, 2023

लघुकथा - बटुआ

 लघुकथा - बटुआ 


उस ज़माने में बटुआ रखने का इतना चलन नहीं था और न ही इतने पैसे होते थे।  क्रेडिट कार्ड्स , डेबिट कार्ड्स , आधार कार्ड ,PAN कार्ड आदि कुछ भी नहीं होता था। ज़्यादा पैसे होते थे तो पैंट  की आगे वाली शार्ट पॉकेट में सहेजे जाते या फिर रुमाल में बाँध कर पैंट की साइड पॉकेट में रखे जाते। अपनी पत्नी और डेढ़  वर्षीय बेटे के साथ  वैष्णो देवी की यात्रा कर रहा था।  खर्चे के सभी पैसे एक रुमाल में बाँध पैंट की साइड पॉकेट में रख निश्चिन्त था। हम लोग ऊपर वैष्णो देवी के दरबार में पहुँच गए थे।  सड़क पर ही होटल के बारे में एक आदमी से पूछ ताछ कर रहा था।  पसीना पौंछने के लिए जेब से रुमाल निकाला तो पैसो वाला रुमाल जेब से निकल सड़क पर गिर पड़ा  और मुझे पता भी नहीं चला। होटल के लिए आगे बढ़ने ही वाला था कि  तभी पैरो के पास खड़े हुए बेटे ने मेरा हाथ हिला कर मुझसे तुतलाकर बोला - " पापा " और  पैसो वाले रुमाल की तरफ़ इशारा किया।मैंने तत्काल पैसो वाला रुमाल सड़क से उठाया।   मेरे पैरो तले ज़मीन  खिसकती खिसकती रह गयी  , अगर ये पैसे खो जाते तो मेरे पास खाने के लिए भी पैसे नहीं थे। भीख मांगने की कल्पना से ही सिहर उठा और मैंने अपने बेटे को गोदी में उठा कर ख़ूब प्यार किया। यक़ीनन माँ वैष्णो देवी की कृपा रही होगी लेकिन फिर भी मेरे ज़ेहन  में William Wordsworth   की यह पंक्ति ताज़ा हो गयी - Child is the Father of Man .



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस  



उस ज़माने में बटुआ रखने का इतना चलन नहीं था और न ही इतने पैसे होते थे।   ज़्यादा पैसे होते थे तो पैंट  की आगे वाली शार्ट पॉकेट में सहेजे जाते या फिर रुमाल में बाँध कर पैंट की साइड पॉकेट में रखे जाते। अपनी पत्नी और डेढ़  वर्षीय बेटे के साथ  वैष्णो देवी की यात्रा कर रहा था।  खर्चे के सभी पैसे एक रुमाल में बाँध पैंट की साइड पॉकेट में रख निश्चिन्त था।  सड़क पर ही होटल के बारे में एक आदमी से पूछ ताछ कर रहा था।  पसीना पौंछने के लिए जेब से रुमाल निकाला तो पैसो वाला रुमाल जेब से निकल सड़क पर गिर पड़ा  और मुझे पता भी नहीं चला। पैरो के पास खड़े हुए बेटे ने मेरा हाथ हिला कर मुझसे तुतलाकर कहा     - " पापा " और  पैसो वाले रुमाल की तरफ़ इशारा किया।मैंने तत्काल पैसो वाला रुमाल सड़क से उठाया।    अगर ये पैसे खो जाते तो मेरे पास खाने के लिए भी पैसे नहीं थे।  मैंने अपने बेटे को गोदी में उठा कर ख़ूब प्यार किया। यक़ीनन माँ वैष्णो देवी की कृपा रही होगी लेकिन फिर भी मेरे ज़ेहन  में William Wordsworth   की यह पंक्ति ताज़ा हो गयी - Child is the Father of Man .


गीत - ऐसो फूटो भाग हमारो....

 ऐसो   फूटो भाग   हमारो , रूठ गयो घनश्याम 

टूटे बिछवे , बिखरी बिंदिया , छूट गयो घर धाम 


अब काहूँ  से रार  मचाऊँ

अब काहूँ की बाट निहारूँ

बोले पपीहा पिया   पिया 

पिया  कहो मैं किसे पुकारूँ     


ऐसो भूलो श्याम हमारो , भूल गयो निज नाम 


कौन दवरिया अब आएगा 

कौन किवारिया खटकायेगा 

गीत न  अब गोरी गाएगी

फाग न अब होरी लाएगी 


ऐसो रूठो भाग हमारो , रूठ गयो गुलफ़ाम



कवि - इन्दुकांत आंगिरस  

   

Tuesday, June 27, 2023

लघुकथा - बाग़े - इरम

 

बाग़े - इरम


जन्नत के बाग़ में आज मैं अकेला नहीं था।  पहलू में मेरे  लम्बे क़द वाले  मेहबूब  की ज़ुल्फ़ों के साये में शाम गहरा रही थी।  उसके नाज़ुक लबों पर प्रीत का एक नग़मा तड़प रहा था। उसकी पतली उँगलियों ने कैन्वस पर उकेर दिया था ज़िंदगी का चित्र ।    उसकी सुराही - सी गर्दन पर टिका मुहब्बत का साज़ गुनगुना रहा था प्रीत   का तराना ।  दूधिया चाँदनी मेरे मेहबूब  के बदन से लिपटी हुई थी और चाँद झील में नहा  रहा था। पहाड़ों से गिरते झरने मेरे मेहबूब के क़हक़हों से जल रहे थे  और उसकी नीम - बाज़ आँखों की मस्ती  में सारा आलम डूबा हुआ था।   

मेरे ख़्याल में रात का एक बजा होगा।  सारी दुनिया सो रही थी कि तभी मेरी आँख खुल गयी।  टूट गया था बाग़े - इरम का सपना।  सपने तो टूटने के लिए ही होते हैं , टूट गया तो क्या हुआ , मेरा दिल तो बाग़ बाग़ हुआ । 

 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस     

गीत - ठहरी पीर नदी सी यह प्रेम कहानी है

 ठहरी पीर नदी सी यह प्रेम कहानी है

मुझ से इस पीड़ा की पहचान पुरानी है 


आग लगाए शीतलता ज़ख़्मी दिल तड़पाए 

टूटे तारों की वीणा अब घमका नग़मा गाए 

बिरहा की अग्नि में दिल मेरा जलता जाए 


जलते इस दामन से ये आग बुझानी है 

 ठहरी पीर नदी सी........


जन्मों का बंधन भी टूटा अब बनते बनते 

राख़ हुआ साया भी बिरहा में जलते जलते 

डूब गया सूरज भी आँखों में भरते भरते 


डूबे इस सूरज से ये शमा जलानी है 

 ठहरी पीर नदी सी........



आँसू रीत गए अब तो शबनम के कतरों से 

साहिल रूठ गए अब तो दरिया की लहरों से 

तोडा दम बहारों ने पतझड़ के पहरों से 


मुरझाए  फूलों से ये चिता सजानी है 

ठहरी पीर नदी सी........



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 




लघुकथा - पोस्टमॉर्टेम

 लघुकथा - पोस्टमॉर्टेम 


- " आख़िर ये सब हुआ कैसे ? " मैंने अपने दोस्त अतुल से पूछा  । 


- " वो एक ट्रक मार गया भाई को , ऑपरेशन चल रहा है।  " - अतुल ने मायूसी से जवाब दिया। 


तभी ऑपरेशन थिएटर का दरवाज़ा खुलता है - " नवीन  केसाथ कौन है ? " 


- " जी डॉ साहिब , मेरा भाई ठीक तो है ना ? " अतुल ने घबरा कर पूछा। 


- " सॉरी , हम मरीज़ को बचा नहीं पाए। लाश पोस्टमॉर्टेम के बाद आपको दे दी जाएगी। और हाँ , अगर आपको जल्दी हो तो  पोस्टमॉर्टेम विभाग में दुलीचंद से मिल लेना वरना लाश मिलने में २-३ दिन भी लग सकते हैं  " - यह कह कर डॉक्टर  आगे बढ़ गया। 


. दुलीचंद ..दुलीचंद....बड़बड़ाते हुए अतुल पोस्टमॉर्टेम विभाग की ओर मुड़ गया  था।  वह बीच बीच में अपनी ज़ेब में पैसे टटोलते हुए कुछ हिसाब - किताब लगाता जाता था । हाँ , उसे अपनी भैया की लाश आज ही चाहिए ...आज ही चाहिए.....



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

Monday, June 26, 2023

लघुकथा - विशवास

लघुकथा - विशवास 


 उस रात मैं फिर देर से घर लौटा।  उंघती पत्नी मेरी आहट से उठ खड़ी हुई और मेरा कोट उतारते हुए बोली - " बहुत देर लगा दी आज आपने , सब ठीक है ना ? " 

- " हाँ , सब ठीक है , वो दफ़्तर में ज़रूरी काम था , इसलिए रुकना पड़ा। डिनर भी दफ़्तर में ही हो गया है।   " मैंने उतावलेपन से जवाब दिया। 


- "आप मुँह - हाथ धो लीजिए , मैं चाय बना कर लाती हूँ " कह कर  पत्नी रसोई में घुस गई और मैं थका थका वही सोफे में धँस सोचने लगा ' कितनी भोली है ये , मैंने कहा और इसने यक़ीन कर लिया। लेकिन आज मैं इसे ज़रूर बता दूँगा। पत्नी चाय लेकर आई तो  मैंने  उस से कहा - 

" जानती हो कहाँ से आ रहा हूँ मैं ? " 

- " दफ़्तर से और कहाँ से " - पत्नी का जवाब सपाट था। 

- " नहीं मनु , दफ़्तर से नहीं बल्कि मैं एक दूसरी औरत के बिस्तर से उठ कर आ रहा हूँ " मैंने नपे - तुले शब्दों में कहा। 

- " आपके मज़ाक की आदत जाएगी नहीं , अच्छा सुनो , अगर हमारे बेटा हुआ तो हम उसका नाम ' विशवास ' रखेंगे  और अगर बेटी हुई तो उसका नाम ' निष्ठा ' रखेंगे , क्यों ठीक है ना।  " पत्नी चपलता से बोली थी। 


मैंने धीरे से " हाँ " कहा  और पत्नी को अपनी बाँहों में भर लिया। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस   


Sunday, June 25, 2023

फ़्लैश बैक - क़लम

 बचपन में 

पकड़ा  था जो क़लम 

शायद करने थे  

मुझे रक़म

कुछ तारे , कुछ नज़ारे 

चंद फूल और तितलियाँ 

कुछ पहाड़ , कुछ झरने 

कुछ जंगल , कुछ नदियाँ

एक दर्द भरा गीत 

लम्हा भर प्रीत 

एक अनजानी छुअन  

एक संदल बदन 

इक भूली बिसरी आवाज़ 

इक टूटा हुआ साज़ 

कुछ ख़ुशी , कुछ ग़म 

दास्तां लिख ज़िंदगी की  

आज फिर आँख है नम 

बचपन में 

पकड़ा  था जो क़लम.....


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

Saturday, June 24, 2023

लघुकथा - हजामत

 लघुकथा - हजामत 


- " इतनी बारिश में भी आप हजामत बनवाने आ गए , आइए , बैठिए  " - नाई ने ग्राहक   से कहा। 

- " तुम भी तो बैठे हो बारिश में " -  ग्राहक ने जवाब दिया। 

- " मजबूरी है बाउजी , यहाँ तो रोज़ कुआ खोदना है , रोज़ पानी पीना है " - नाई ने जुमला उछाला। 

- " हाँ , तुम्हारी तो मजबूरी है , लेकिन इस इंद्र देवता की तो कोई मजबूरी नहीं।  लोग जब बूँद - बूँद को तरस जाते हैं तो बरसते नहीं और बरसेंगे तो रुकेंगे नहीं , देखो दूर दूर तक पानी ही पानी है।  सबकी हजामत कर दी इन्होंने। 

 -" बिलकुल  सही कहा आपने" , नाई ने ठहाका  लगाते हुए कहा -" सबसे बड़ा नाई तो ऊपर वाला ही है "। 


आपका क्या ख़्याल है ,  नाई का जुमला सुन कर ऊपर वाला ख़ुश तो ज़रूर हुआ होगा।  



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


Friday, June 23, 2023

कहानी - आज का कृष्ण

 कहानी - आज का कृष्ण 


" भैया , आपके बहुत पुराने दोस्त आये हैं " - मेरे घर में घुसते ही छोटी बहिन ने मुझे बताया। 

" कौन है ? " - पूछते हुए मैंने बैठक में झाँका , लेकिन वहाँ कोई भी नहीं था। 

" ज़रा सोचो " - बहिन ने मेरा इम्तहान लेते हुए कहा - ' म ' अक्षर से शुरू होता है उनका नाम। "

मैं  , ' म ' अक्षर से शुरू होने वाले पने सभी यार दोस्तों का नाम याद करने लगा , पर जहाँ दुनियादारी की इस भाग - दौड़ में इंसान कभी - कभी अपना ही नाम भूल जाता हो , वहाँ मुझे इतना पुराना नाम कैसे याद आता। 

" नहीं याद आया , वही आपका पुराना दोस्त  ' मनुआ ' , बहिन ने मेरी याद ताज़ा करते हुए कहा। 

मनुआ ...मनुआ .... मेरी आँखों के सामने १५ बरस पुराने मित्र मनुआ की तस्वीर उभर आई।  हम लोग एक सरकारी कॉलोनी में  किराये के मकान में रहा करते थे। हमारे पड़ोस में रहता था एक गढ़वाली परिवार। उसी परिवार का बड़ा लड़का था मनुआ , मेरे बचपन का दोस्त। 

मनुआ के पिता होमगार्ड के दफ़्तर में क्लर्क के पद पर कार्यरत थे। मनुआ पढ़ाई - लिखाई में औसत भी न था पर किस तरह से रो - पीट कर उसने बी. ए. की डिग्री हासिल कर ली थी। उसके पिता इस बात से बहुत ख़ुश थे कि उनका लड़का भी अब  बी. ए.  पास है और वे अब किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण होकर अफ़सर न सही , कम से उनकी तरह सरकारी क्लर्की ज़रूर पा लेगा। उसके बाद मनुआ एक के बाद एक प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठता रहा लेकिन सरकारी नौकरी  तो दूर की बात है उसकी प्राइवेट नौकरी भी न लग पाई। इसका एक कारण उसका दब्बूपन भी रहा।  बचपन से ही पिता का डंडा खा - खा कर वह इतना दब्बू बन गया था कि वह अपनी बात भी दूसरों को ठीक से समझा नहीं पाता था। कार्य क्षमता , विवेक , आत्म विशवास , कुछ कर गुज़र जाने की महत्वकांक्षा , ऐसे गुण उसमे रत्ती भर भी न थे। 

" भैया , अपने दोस्त से मिलोगे नहीं ? " बहिन मेरी तन्द्रा भंग करते हुए मुझसे कहा। 

" मिलूँगा क्यों  नहीं ? , पर वो है कहाँ ?"

" आपके कमरे में सो रहे है " 

" सो रहा है .... मेरे कमरे में ...." मैं लम्बे - लम्बे डग भरते हुए अपने कमरे की ओर बढ़ा। 

अपने डबल बैड पर रजाई ओढ़े सो रहे उस प्राणी को देख कर क्षण भर को तो मैं  किंकर्त्तव्यविमूढ़ - सा खड़ा रहा। वक़्त कैसे सूरते बदल देता है इंसान की , इसका एहसास मुझे आज ही हुआ।  पिचके हुए गाल, तीन - चौथाई पके हुए बाल , ३२ की आयु में वह ५० से ऊपर का दीखता था , उसका यूँ मेरे डबल बैड पर पैर  पसरे सोना मुझे एक पल को भी न भाया। 

" ओ ..मनुआ ....मनुआ " ज़ोर   से बोलते  हुए मैंने उसे  लगभग  पलंग से उठाते हुए कहा - " आ यार ... बाहर घूमने चलते है , ये कोई सोने का टाइम है ? और कब आया ? घर में सब ठीक है न ? " यह सब मैं एक ही साँस में कह गया। 

" बस अभी आधे घंटे पहले आया था , तू घर पे था नहीं , मैंने सोचा थोड़ा आराम ही कर लूँ " - मनुआ ने दबे स्वर में जवाब दिया। 

मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि मेरी बीवी और बच्चें घर पर नहीं थे , अगर वे इस प्राणी को देखते तो न जाने कैसे कैसे सवाल करते। 

किसी ने सच ही कहा है कि उड़ते हुए परिंदे , कटे पंखों वाले परिंदों के दर्द को महसूस नहीं कर सकते। 

" चाय पियेगा ? " , मैंने औपचारिकता निभाते हुए पूछा।   

" पी लेंगे " - उसने बुझे स्वर में जवाब दिया। 

" चल फिर बाहर ही चलते है , मार्किट में आराम से बैठ कर पिएँगे  , कुछ गपशप भी हो जाएगी " - कहते हुए मैं उसे सड़क पर ले आया। 

बाते चलीं तो बचपन कि यादें भी ताज़ा हो गयीं।  बचपन के दिन भी क्या दिन थे। न कोई  फ़िक्र न कोई झमेला।  शाम देर तक खेलना फिर अपने - अपने घरों में घुस जाना।  अपनी माँ के प्यारे हाथो की रोटियॉँ खा कर फिर रात देर तक सड़कें नापना।  कभी - कभी ऐसा भी होता कि मैं मनुआ के घर या मनुआ मेरे घर एक साथ ही खाना खाते।  मनुआ की माँ कई दालों को मिला कर एक दाल बनाती थी जो मुझे बहुत स्वादिष्ट लगती थी और जब कभी भी उसके घर वो दाल बनती तो मैं मनुआ के साथ उसी के घर खाना खाता।  मनुआ की माँ खाना खिलाते  खिलाते  मुझसे कहती - " इसे कुछ समझा बेटे , ठीक से पढ़ेगा - लिखेगा नहीं तो कही चपरासीगिरी  भी नहीं मिलेगी "।  

मैं , हाँ ..हूँ ...करता रहता।  मेरा मन दाल में लगा रहता था। खा - पी कर हम झटपट सड़क पर आ जाते और देर तक बतियाते रहते। हमारी बातों का पढ़ाई - लिखे से कोई विशेष सम्बन्ध न होता था। मोहल्ले की कौन - सी चिड़िया को कैसे फँसाया  जाये , कौन - सी चिड़िया के लिए कौन - सा दाना उपयुक्त रहेगा।  चिड़िया दाना चुगेगी कि नहीं और अगर दाना चुग के भी उड़ गई तो ...बस यही सब हमारी बातों का सिलसिला होता। 


समय तेज़ गति से बीतता गया।  मनुआ के पिता रिटायर हो गए।  मनुआ को अभी तक कोई नौकरी न मिल  पाई थी। सरकारी मकान भी छूट गया था। नया किराये का मकान लेना मनुआ के पिता के सामर्थ्य से बाहर था।  कुछ ही दिनों में मनुआ और मनुआ का परिवार अपने पैतृक गाँव को रवाना हो गया। गाँव जाने से पहले उसने मुझे बताया था अपने छोटे - से गाँव के बारे में। बहुत दूर पहाड़ों के बीच , एक छोटी - सी नदी के किनारे , एक छोटा - सा गाँव , दूर , हाँ , बहुत दूर .. महानगर कि विषमताओं से दूर। 


मनुआ के गाँव का पता बहुत पहले ही मुझसे खो गया था पर मनुआ ने अपने दोस्त  को ढूंढ़ ही निकाला।  बाते करते करते हम मार्किट में एक छोटे से रेस्टॉरेंट तक पहुँच गए थे।  

" और सुना , सब ठीक है ना ? " , रेस्टोरेंट में बैठते हुए मैंने उससे पूछा। 

- " हाँ , सब ठीक है।  " उसका जवाब सपाट था। 

-" शादी - वादी हो गई ? "

-  " हाँ , शादी तो हो गई। " उसने शरमाते हुए कहा। 

- " तो बीवी कहा है ? "

-  " गाँव में ही है।  "

- " और तू यहाँ क्या कर रहा है ? "

- " मैं...नौकरी की  तलाश में आया हूँ , अपने चाचा के यहाँ ठहरा  हुआ हूँ।  यार , कही कोशिश कर के मेरी नौकरी लगवा दे।  " उसने मुझसे चिरौरी करते हुए कहा। 

- " ठीक है , कोशिश करूँगा " मैंने  उसे टालते हुए कहा।  

- " ठीक है फिर , चलता हूँ मैं " - उसने चाय ख़त्म करते हुए कहा। 

- "चल , ठीक है " , मनुआ के बढे हुए हाथ की दो उँगलियों को छूटे हुए मैंने उससे विदा ली।  जब घर पहुँचा तो आठ बज चुके थे। 

" अरे , आ गए तुम...खाना खा लो " , मेरी माँ ने मेरी आहट  लेते हुए मुझसे कहा।  मेरे साथ मनुआ को न देख कर माँ ने पूछा - "मनुआ कहा रह गया ?"

- " मनुआ तो चला गया। " 

मेरा सपाट  जवाब  सुन कर माँ नाराज़ होते हुए बोली - " चला  गया , बिना खाना खाये चला गया , तूने क्यों जाने दिया उसे ? "

- " मैं क्या करता , चला गया वो " , मैंने लगभग चिढ़ते हुए कहा। 

- " कम से कम खाना खिला के भेजता उसे , इतने सालों बाद आया था .." माँ बड़बड़ाती हुई रसोई में घुस गई और मैं वही थका - सा डाइनिंग टेबल पर ही बैठ गया।  टेबल पर पड़े हुए एक पैकेट को देख कर मैंने माँ से पूछा - " माँ , ये किसका पैकेट है , क्या है इसमें ? "

- " मुझे नहीं पता , मनुआ लाया था , खोल कर देख ले क्या है " माँ ने रसोई से जवाब दिया। 

" मनुआ लाया था ..." कहता हुए मैंने पैकेट खोल डाला।  पैकेट में छुपी दो बड़ी चॉकलेट पर नज़र पड़ते ही मैं जड़ हो गया। 

मुझे लगा सुदामा आज भी वैसा ही है बस कृष्ण ही  अपनी पहचान खो बैठा है। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस  





लघुकथा - मानदेय



लघुकथा - मानदेय

 पत्रिका के सम्पादक ने मेरी रचना यह कह कर लौटा दी कि रचना इसलिए नहीं प्रकाशित की जा सकती क्योंकि मैंने उनकी  पत्रिका की सदस्यता अभी तक नहीं ख़रीदी है।  पत्रिका की सदस्यता १०००/  सलाना थी।  यह जानकारी मेरे लिए नई थी।  मैंने सहयोग के माध्यम से १०००/ प्रेषित कर दिए और अगले अंक में ही मेरी रचना उस पत्रिका में प्रकाशित हो गयी। रचना  छपने की स्वीकृति  सुखद थी ।  मेरी समझ में अब बाज़ार की चाल आ गयी थी।  वो ज़माना अब जा चुका था जब लेखक की रचना किसी पत्रिका में उसकी गुणवत्ता के आधार पर छपती थी और लेखक को  उसके लिए कुछ मानदेय मिलता था। 

उस ज़माने के प्रकाशक शायद अमीर थे जो लेखकों को मानदेय देते थे। अब ज़माना बदल चुका है। आज प्रकाशक ग़रीब है और लेखक अमीर। अब लेखक, प्रकाशकों को मानदेय देते हैं और जहाँ चाहे वहाँ छपते  हैं।    

यक़ीन नहीं आ रहा आपको , आज़मा कर देख लीजिए।  हाथ कंगन को आरसी क्या , पढ़े - लिखे को फ़ारसी क्या। लेकिन अफ़सोस फ़ारसी तो दूर की बात है , अभी तो लोग हिन्दी और उर्दू ही सीख रहे हैं। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

Thursday, June 22, 2023

गीत - एक टूटी बांसुरी सी जब रो रही थी ज़िंदगी

 एक टूटी बाँसुरी सी जब रो रही थी ज़िंदगी 

साज़ सब टूटे हुए थे , गीत सब रूठे हुए थे 


तुम से मिल कर यूँ लगा , हाँ तुम से मिल कर यूँ लगा 

जैसे दिल को इक तराना ज़िंदगी का मिल गया 


लाज के पहरे कड़े थे , नैन पर घूँघट पड़े थे 

भूल से नज़रे मिला दी , हँस पड़ी वो खिलखिला दी 


तुम से मिल कर यूँ लगा , हाँ तुम से मिल कर यूँ लगा 

जैसे दिल को इक बहाना दिल लगी का मिल गया 


कोई जादू था नज़र का , रास्ता भूला मैं घर का 

एक ख़ुश्बू सी उठी फिर , छाई मस्ती हर तरफ़ फिर 


तुम से मिल कर यूँ लगा , हाँ तुम से मिल कर यूँ लगा 

जैसे दिल को इक ज़माना आशिक़ी का मिल गया 


बुझ चूका था हर चिराग़ , राख़ में भी थी न आग 

हर क़दम पर फ़ासले थे, आँसुओं के क़ाफ़िले थे  


तुम से मिल कर यूँ लगा , हाँ तुम से मिल कर यूँ लगा 

जैसे दिल को इक फ़साना रौशनी का मिल गया 


हर तरफ़ तन्हाइयाँ थी , ग़म की ही परछाइयाँ  थी 

मेरे दिल में यूँ तू आया , ज़र्रा ज़र्रा मुस्कुराया 


तुम से मिल कर यूँ लगा , हाँ तुम से मिल कर यूँ लगा 

जैसे दिल को इक ख़ज़ाना ज़िंदगी का मिल गया  





कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

गीत - देखते ही देखते वो शाम सूनी ढल गयी

 देखते ही देखते वो  शाम सूनी ढल गयी 

मेरे दिल की आग से चांदनी भी जल गयी 


रो उठा आकाश भी , तारो का बिछड़ा क़ाफ़िला 

दिल से ज़ख़्मों का जुड़ा इक मुसलसल सिलसिला 

पीर का पर्वत मगर इन आँसुओं से कब गला 


इक नदी पर  पीर की लम्हा लम्हा गल गयी 


ज़िंदगी है इक सफ़र और मौत है उसका कफ़न 

सामने मंज़िल है पर दिल में है भारी थकन   

हर सफ़र में हम को लूटा रौशनी ने हर क़दम 


रौशनी के नाम पर तीरगी भी छल गयी 


लौट कर न आएंगे अब जो बिछड़े हमसफ़र 

दश्त ही बस दश्त अब सूनी है हर रहगुज़र 

बुझ गए ये चिराग़ भी , हर दुआ अब बेअसर 


ज़िंदगी इक राख़ - सी मेरे दिल पर मल गयी  



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

लघुकथा - तौलिया

 तौलिया 


प्राइमरी स्कूल की अध्यापिका बच्चों को साफ़ - सफ़ाई  और स्वच्छता के बारे में बता रही थी , विशेष रूप से भोजन से पहले हाथ धोना , भोजन के बाद कुल्ला करना , तौलिये से मुँह साफ़ करना  और अपना तौलिया अलग रखना।  यह सुन कर एक बालिका बोली - " मैम , मेरी माँ तो मुझे अक्सर अपने हाथो से खाना खिलाती है और खाने के बाद अपने आँचल से ही मेरा मुँह पौंछ देती है। "

उस बालिका की बात सुन कर उसके साथ बैठी   बालिका ज़ोर से बोल पड़ी - " अरे , मैं क्या करूँ , मेरी माँ तो साड़ी पहनती ही नहीं।  वो तो जींस पहनती है।  मुझे तो खाने के बाद उठ कर ख़ुद ही तौलिये से हाथ पौछने पड़ते हैं। "

दूसरी  बालिका की बात सुन कर अध्यापिका हैरान थी लेकिन बच्चें ज़ोर ज़ोर से हँस रहे थे। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

Wednesday, June 21, 2023

लघुकथा - दीवार

 लघुकथा - दीवार 


पडोसी  ने अपना पुराना मकान तुड़वा कर नया मकान बनवाया तो आँगन की ३ फ़ीट की दीवार को ६ फ़ीट ऊँचा कर दिया। यह देख कर मेरी पत्नी उदास हो कर मुझसे बोली - "देखिये वर्मा  जी ने  दीवार कितनी ऊँची कर दी है , पहले तो कभी कभी आमने -सामने खड़े हो कर बात हो जाती थी अब तो हम एक दूसरे की शक्ल भी नहीं देख पाएँगे , बात करना तो दूर की बात है। "

- " अरे धीरे बोलो , दीवारों के  भी कान होते हैं , अगर वर्मा जी ने सुन लिया तो बुरा मान जायेंगे " - मैंने पत्नी को शांत करते हुए कहा। 

- " मैं तो चाहती हूँ वो सुन ले , दीवारों के कान ही नहीं दिल भी होता है , ज़रा ग़ौर से देखिये , ये दीवार कैसे सुबक - सुबक के रो रही है। "पत्नी  मायूसी से बोली। 

आँगन की ऊँची दीवार से टपकती बारिश की बूँदों  में पत्नी के आँसू  घुल - मिल गए थे  और उन बूँदों से मेरा दिल भी भीग गया था।    । 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


Tuesday, June 20, 2023

लघुकथा - करवा चौथ


 करवा चौथ 


 रात के नौ बज गए और चाँद अभी तक नहीं निकला। पति देव का तो मालूम है , बारह बजे से पहले नहीं आएँगे , पर इस निगोड़े चाँद को क्या हो गया , रोज़ तो सात बजे ही निकल जाता है लेकिन आज के दिन इसे भी .....तभी घंटी की आवाज़ से  बड़बड़ाती संध्या की तन्द्रा टूटती है और वो थके क़दमों से दरवाज़ा खोलती है। 

- " अरे , तू अभी से आ गयी ? "

- "बीबी जी , नौ बज रहे है " - कामवाली ने तपाक से जवाब दिया। 

- " अरे हाँ , लेकिन हमने तो अभी तक भोजन ही नहीं किया है , माँजेगी क्या ? कल सुबह ही आना अब और सुन तूने व्रत खोल लिया क्या ?" 

 संध्या एक साँस में सब कुछ कह गयी। 

- " हाँ , बीजी , मैंने तो छह बजे ही खा पी लिया था। "

- " छह बजे , बिना चाँद को अर्क चढ़ाये ?"

- " बीजी , मेरा चाँद तो मेरा शेरू है , वो छह बजे घर आ गया था और हमे मिल जुल कर खा पी लिया था।  आप भी खा लो बीजी कब तक भूकी रहोगी।  "

- " हाँ , ठीक है , तू जा अब , कल आना  ....." संध्या हैरानी में बुदबुदाती  जा रही थी ...तू जा...कल आना ...। 

कामवाली संध्या की बड़बड़ाहट सुन कर कुछ हैरान हुई और जल्दी से पतली गली से  खिसक गयी। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

Monday, June 19, 2023

गीत - मानव का रक्त पियेगा..........

 मानव का रक्त पियेगा , मानव आख़िर  कब तक 

मानव का ज़ुल्म सहेगा , मानव आख़िर  कब तक 


भ्रष्टाचार  का  सर्प डसेगा , आख़िर कब तक 

मज़दूरों का ख़ून  बहेगा  , आख़िर  कब तक 

कब तक होगा      क़त्ल यहाँ इंसानियत का 

दशानन का दर्प हँसेगा , आख़िर  कब तक 


मानव का रक्त पियेगा..........


दहशत का सामान बनेगा आख़िर कब तक 

सिक्कों में ईमान  बिकेगा आख़िर  कब तक 

कब तक   होगा नाच यहाँ   हैवानियत  का   

मानव , मानव बम बनेगा आख़िर  कब तक 


मानव का रक्त पियेगा..........


सच का झूठा ढोल बजेगा आख़िर  कब तक 

चौपट जी का राज चलेगा  आख़िर  कब तक 

कब तक होगा   पतन    यहाँ  सियासत का 

दिल्ली तेरा ताज बिकेगा आख़िर  कब तक। 



मानव का रक्त पियेगा..........



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


Published in " आख़िर  कब तक " November ' 2002 


 


 

गीत - ज़िक्र ही करे ने जो , गीत ही वो क्या

 

दिल की पुकार का, मुफ़लिस के प्यार का 

टूटे हुए    साज़ का ,   डूबती आवाज़ का 


ज़िक्र ही करे ने जो , गीत ही वो क्या 


पंछी की प्यास का , बादल की आस का 

बीते हुए काल का , आने वाले साल का 


ज़िक्र ही करे ने जो , गीत ही वो क्या 


लाजो की लाज का , जलते हुए आज का 

टूटे   हुए काँच का , बढ़ती हुई आँच  का 


ज़िक्र ही करे ने जो , गीत ही वो क्या 


ग़ैरों के  घाव का ,   डूबती  इस  नाव का 

टूटे हुए भाग का , तन -बदन की आग का 


ज़िक्र ही करे ने जो , गीत ही वो क्या 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


Sunday, June 18, 2023

लघुकथा - उतरन


उतरन 


 रमन ने अपने  पुराने कपडे और फटे हुए जूते अपनी नौकरानी कमला को देते हुए कहा - " ये पुराने कपडे और जूते लेती जा , तेरा पति पहन लेगा इन्हें।"   

कमला ने वे सभी चीज़े उठा ली और अपने पति को दे कर बोली - देखिये हमारे साहब कितने दयालु और परोपकारी है , उन्होंने अपने पुराने कपडे और जूते आपके लिए दिए हैं।  कमला के पति ने उन पुराने कपड़ों को उलट-पुलट कर देखा तो पाया कि लगभग सभी कपडे घिसे और फटे हुए थे और जूतों का तो सोल ही निकला हुआ  था।  यह देख  कर उस ने ग़ुस्से में वो दान की वस्तुएँ वही फेंकते हुए अपनी पत्नी से कहा -

" तुम्हारे साहब  बड़े परोपकारी और दानी बने फिरते है। उन्होंने अपनी उतरन दान में दे कर ये प्रमाणित कर दिया है कि परोपकार का उन से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं।  वास्तव में तुम्हारा मालिक एक स्वार्थी और अहंकारी व्यक्ति है जो अपनी उतरन का दान दे कर अपने आप को परोपकारी और दानी साबित करना चाहता है। 

अपने पति की बाते सुन कर कमला का मुँह  खुला का खुला रह गया और उसने कपड़ो की वो पोटली अपने घर से बाहर फेंक दी। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 






Friday, June 16, 2023

गीत - राह आसान नहीं है

 दर्द के समुन्दर में    पीड़ा की धार है 

आँसू की कश्ती में जाना उस पार है 


कोई तूफ़ान नहीं है , राह आसान नहीं है 


काँटों की पलकों में , छुप छुप कर रोती है 

सीने में    अपने वो    फूल ही    संजोती है 


शाख़ अनजान नहीं है , राह आसान नहीं है 


क्षण भर का हँसना है , युग भर का रोना है 

जाने किन हाथो का ,   मानव खिलौना है   


एक पहचान नहीं है , राह आसान नहीं है 


छत पर हवेली की जी भर कर बरसे है 

निर्धन के खेत पर ,   बूँद बूँद तरसे हैं 


मेघ नादान नहीं हैं , राह आसान नहीं हैं। 

  




कवि - इन्दुकांत आंगिरस    

गीत - मैं सपनो का सौदागर हूँ

 मैं सपनो का सौदागर हूँ 

सपनो के बुनता मैं घर हूँ 


रात   रात    सपने   बुनता   हूँ 

फिर उठ कर उन को गिनता हूँ 

जो आँखें हो   आस से ख़ाली 

उन नयनों में जा बसता हूँ 


मैं सपनो का सौदागर हूँ 

सपनो के बुनता मैं घर हूँ 


बिन सपनो के रात अधूरी 

बिन अपनों के बात अधूरी 

जीवन ऐसा खेल है जिस में 

बिन ख़ुद हारे मात अधूरी 


मैं सपनो का सौदागर हूँ 

मिटटी का नन्हा इक घर हूँ 


गीत उसी के मन गाएगा 

दर्द जो दिल को दे जाएगा

गहरी नींद सुला दे जो 

वो सपना कब आएगा 


मैं सपनो का सौदागर हूँ 

मिट्टीमें मिलता अक्सर हूँ 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस


Thursday, June 15, 2023

लघुकथा - नुक़्ता - ए - ज़िंदगी

 लघुकथा - नुक़्ता - ए - ज़िंदगी


कवि मित्र का नवीनतम काव्य संग्रह " जिंदगी " के मुख पृष्ठ पर ही ज़िंदगी लफ़्ज़  बिना नुक़्ते  के छपा  देख मैंने उन से पूछा -" यह एक प्रूफ़ की ग़लती छूट गयी हैं या  आपने जानबूझ या अनजाने में " ज़िंदगी " से नुक़्ते  को निकाल दिया है। 


कवि मित्र हाज़िर जवाब थे , तत्काल बोले - " ज़िंदगी  की भाग दौड़ में कभी ज़िंदगी नुक़्ते के साथ मिली तो कभी बिना नुक़्ते के , लेकिन जैसे भी मिली मैंने भरपूर जिया है इसको " । , 


उनका जवाब सुन कर दिल ख़ुश हुआ और मुझे भी लगा वाकई ज़िंदगी नुक़्ते के साथ हो या बिना नुक़्ते के रहेगी तो ज़िंदगी ही।  ज़िंदगी कोई ' ख़ुदा ' थोड़े ही न है जो नुक़्ता न लगाने से   ' जुदा ' हो जायेगा। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस  

गीत - उस की पलके भी तर हैं , मेरी पलके भी तर हैं

 उस की पलके भी तर हैं , मेरी पलके भी तर हैं 

आँसू हैं एक बहार मेरे और  आँसू एक भीतर  है


जीवन भर समझा न उस को 

जिस ने मुझ को प्यार दिया 

पढ़ न पाया ढाई आखर 

जीवन सारा गुज़ार दिया 


किस के साथ रोऊँ यारो , किस के साथ गाऊँ यारों 

एक   परिंदा बाहर   मेरे और  एक परिंदा भीतर हैं  


पलकों की चिलमन के पीछे 

ग़म का इक दरिया बहता हैं 

क़तरा क़तरा जिस का हॅंस के 

जब फूलों की ग़ज़लें कहता है 


किस की साथ डूबूँ यारो , किस के साथ उभरूँ यारो 

एक समुन्दर बाहर मेरे  और एक   समुन्दर भीतर हैं 


जिस को भी छू कर देखा है

अपने जैसा ही लगता है

अंधे मन की बात निराली 

सब कुछ उजला सा दिखता है


किस के साथ सोऊँ यारो किस के साथ जागूँ यारो 

एक अँधेरा बाहर मेरे और एक अँधेरा भीतर है 


कवि - इन्दुकांत  आंगिरस   


गीत - मौन आँखों का निमंत्रण हो गया

 मौन आँखों का निमंत्रण हो गया 

पीर से हृदय का अनुबंध हो गया 


रौशनी   से   रौशनी  भी जल गयी 

इक किरण आँसू में जैसे ढल गयी  

आग में जलता रहा ये  दिल मिरा 

इक नदी थी प्रीत की जो छल गयी 


ज़िंदगी का एक मौसिम तंग हो गया 


चाँद जब इक चाँदनी में ढल गया 

इक दर्द सा   सीने मेरे पल  गया

जो सपन ठहरा हुआ था आँख में 

पीर के परबत सा वो गल  गया 


रौशनी का एक आँगन बंद हो गया 


मौन हो तुम मौन हैं हर इक दिशा 

मौन हैं अब प्रेम की बिसरी कथा 

बांवरा मन गीत से  कहने  लगा 

एक नग़मा दर्द का मीठा  सुना 


आरती का एक नग़मा सँग हो गया। 


कवि - इन्दुकांत  आंगिरस 

गीत - आज लगा तुम बिन ऐसा , जैसे रीत गया जीवन हो

 आज लगा तुम बिन ऐसा , जैसे रीत गया जीवन हो 

जैसे बुझती दीपशिखा  का अंतिम कोई स्पंदन हो 


मुक्त नहीं  थी साँसें मेरी 

कैसे उड़ता दूर गगन मैं

टूट   गए थे   सपने मेरे 

कैसे भरता नूर नयन मैं 


जैसे किरनों की चादर पर सोया कोई खंजन हो 



रिक्त नहीं था पृष्ठ समय  का

कैसे  भरता रंग  विरह    का  

रूठ गयी थी सरगम मेरी 

कैसे रचता गीत हृदय का 


जैसे साँसों की सरगम पर जलता बुझता चन्दन हो 


सूख गई थी उर की लहरें 

कैसे भरता घाव जलन के 

रूठ गई थी राधा मन की 

कैसे रचता गीत किशन  के 


जैसे कान्हा की मुरली से राधा की कुछ अनबन  हो 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

Tuesday, June 13, 2023

गीत - हर अधर का गीत बन कर गुनगुनाना चाहता हूँ

 हर अधर का गीत  बन  कर   गुनगुनाना चाहता हूँ 

हर हृदय का मीत बन कर खिलखिलाना चाहता हूँ


साज़ मैं मृत्यु का  हूँ पर   ज़िंदगी के   गीत गाता

फूल मैं सावन का हूँ पर हर चुभन के गीत गाता    

अश्क मैं पीड़ा का हूँ पर हर ख़ुशी में मुस्कुराता 


इस अधर से उस अधर तक मुस्कुराना चाहता हूँ 



ख़ून मैं दुश्मन का हूँ पर   दोस्ती के काम आता 

अर्क मैं यामा का हूँ पर हर नयन के काम आता 

दीप मैं मातम  का   हूँ पर तीरगी में जगमगाता 


इस नज़र से उस नज़र तक जगमगाना चाहता हूँ 


काम मैं नेकी का हूँ पर हर बदी के साथ जाता 

राज़ मैं जीवन का हूँ पर आदमी के साथ जाता 

राग मैं यौवन का हूँ पर हर क़दम पे लड़खड़ाता 


इस क़दम से उस क़दम तक लड़खड़ाना चाहता हूँ 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

   

गीत - उन अधरों का चुम्बन हूँ मैं

 उन अधरों   का चुम्बन   हूँ मैं

जिन अधरों का स्पंदन तुम हो 

उन बाँहों   का   घेरा   हूँ   मैं

जिन बाँहों का बंधन  तुम हो   


तुम स्वाति की बूँद बनो तो 

मैं प्यासा चातक बन जाऊँ 

तुम माया का राग बनो तो 

मैं भटका याचक बन जाऊँ 


उन साँसों   का   पहरा हूँ मैं 

जिन साँसों का जीवन तुम हो  


तुम धरती की पीर बनो तो 

मैं उड़ता जलधर बन जाऊँ 

तुम जीवन का गीत बनो तो 

मैं छम छम नूपुर बन जाऊँ 


उन सपनों   की   सूरत  हूँ मैं 

जिन सपनों का दरपन तुम हो 


तुम मुक्ति की राख़ बनो तो 

मैं जलता चन्दन बन जाऊँ 

तुम पत्थर का ताज बनो तो 

मैं दरपन  दरपन बन जाऊँ 


उस देहरी   का पत्थर हूँ मैं 

जिस देहरी का चन्दन तुम हो 



तुम यौवन का साज़ बनो तो 

मैं मीठी ढपली बन जाऊँ 

तुम मीरा का गीत बनो तो 

मैं किशनी मुरली बन जाऊँ 


उन राहों का कंकर हूँ मैं 

जिन राहों के नंदन तुम हो 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

Monday, June 12, 2023

गीत - आज हृदय की बात न सुन

 आज हृदय की बात न सुन 

टूट गए सब प्रेम के बंधन 


एक   भरम   ही है शायद 

इन फूलों का खिलना भी 

एक चलन - सा लगता है 

अब तो तन का मिलना भी 


आज स्नेह के शब्द न चुन 

सूख गया है मन का उपवन 


सिर्फ समय की नियति है 

इन साँसों का चलना भी 

एक भरम है सूरज का 

इन दीपों का जलना भी 


आज समय की बात न सुन 

मूक हुई साँसों की धड़कन 


एक प्रसव की पीड़ा है 

इन गीतों का रचना भी 

और इन्हीं के साथ जुड़ा 

मेरा जीना मरना भी 


आज ख़ुशी के गीत न बुन

आज बहुत बोझिल है मन 



 कवि - इन्दुकांत आंगिरस

गीत - जग कहता दीवाना मुझको

 जग कहता दीवाना मुझको 

गीत अगर तुम पर में लिखता 


फूलों की   घाटी   में जा कर 

कलियों की नज़रों से बच कर 

फूल अगर चुन भी मैं लाता

रात नहीं खिलती फिर भी 

बात नहीं बनती फिर भी 


तन मिलने की बात नहीं है 

मन कैसे गरिमा से गिरता 


सूरज को पलकों में भर कर 

अपनी ही साँसों में जल कर 

दीप अगर चुन भी मैं लाता 

रात नहीं जगती फिर भी 

बात नहीं बनती फिर भी 


जल जाने की बात नहीं है 

मन कैसे शमा से लड़ता 


ग़ैरों की बस्ती   से बच कर 

अपनी ही बस्ती में लुट कर

गीत अगर चुन भी मैं लाता 

रात नहीं सुनती फिर भी 

बात नहीं बनती फिर भी 


लुट जाने  की   बात नहीं है 

मन कैसे अपनों  को छलता  

 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस

गीत - एक जलते ज़ख़्म - सा गल रहा हूँ लम्हा लम्हा

 एक जलते ज़ख़्म  - सा गल रहा हूँ लम्हा लम्हा 

चाँदनी की आग में जल रहा हूँ  लम्हा लम्हा 


धूप - सी किरचों - सा मन पतझड़ी जंगल में पसरा 

शबनमी  आँसू  से  जब    प्रीत का रीता वो क़तरा 

दर्द की अनगिन कथाएँ लिख गया  सूखा वो गजरा 


दर्द के इस गीत में , ढल रहा हूँ लम्हा लम्हा 


एक आँसू घर गया जो ज़िंदगी की हर ख़ुशी में 

राख  ही बस राख अब रह गयी इस ज़िंदगी में  

तीरगी ही तीरगी बस  इश्क़ की इस रौशनी  में 


इश्क़ की इस आग में , जल रहा हूँ लम्हा लम्हा 


पीर की ठहरी नदी , ग़म में डूबा इक समुन्दर 

उम्र भर लिखता रहा नाम तेरा हर लहर पर 

डूबते सूरज के सँग मुंतज़िर हूँ हर सफ़र पर 


पीर की इस राह पर चल रहा हूँ लम्हा लम्हा  




कवि - इन्दुकांत आंगिरस




गीत - उन क़दमों का बढ़ना कैसा

 उन क़दमों    का बढ़ना कैसा 

नियति जिनकी बढ़ कर थमना 

बढ़ कर थमते , थम कर बढ़ते 

क़दमों का कटा ठौर ठिकाना 


काबा जिस में , मंदिर जिस में 

जिस आँगन में तुलसी बौराये 

थी ख़ुशियाँ जिस में डेरा डाले 

औ अधरों पर जीवन मुस्काये 


छोटा -सा इक घर था अपना 

टूट गया वो मीठा सपना 

घर का सपना , सपना घर का 

टूटे न अब और किसी का 


उन सपनों का बनना कैसा 

नियति जिनकी बन कर मिटना 

बन कर मिटते मिट कर बनते 

सपनो का क्या ठौर ठिकाना 


सूरज जिस को ,चंदा जिस को 

औ तारे भी जिसको चमकाए 

वो किरने जिसमें डेरा डाले 

नूर ख़ुदा का वो बन जाए  


रौशन जिस से घर अपना था 

घर उस दीपक से जलना था 

घर का दीपक , दीपक घर का 

फूंके न घर और किसी का 


उन दीपों का जलना कैसा 

नियति जिनकी जल कर बुझना 

जल कर बुझते , बुझ कर जलते 

दीपों का क्या ठौर ठिकाना 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


Sunday, June 11, 2023

लघुकथा - बढ़ते रहने का नाम ज़िंदगी है

 बढ़ते रहने का नाम ज़िंदगी है 

-"  बढ़ते रहने का नाम ज़िंदगी है.... बढ़ते रहने का नाम ज़िंदगी है.....वाह , क्या कहने ... बढ़ते रहने का नाम ज़िंदगी है। "

- " क्या हो गया भाई , ये क्या बड़बड़ा रहा है ? " मेरे यार ने मुझ से पूछा। 

- " ये देख यार , मोहतरमा   के वत्सप्प प्रोफाइल का वाक्य - बढ़ते रहने का नाम ज़िंदगी है "

- " हाँ , तो ठीक ही है ना , इस में बुरा क्या है ।  "

-" ये होना चाहिए - " अकेले बढ़ते रहने का नाम ज़िंदगी है।  "

- " मतलब , मैं समझा नहीं। "

-" इन मोहतरम  की रचनाएँ 10 भाषाओँ में अनुदित हो चुकी हैं , और जब मैंने इन से अनुवादकों का संपर्क सूत्र माँगा तो मैडम  को साँप सूंघ गया। दो बार पूछ चुका हूँ , कोई जवाब नहीं। ये नहीं चाहते कि साहित्य की रेस में कोई इन से आगे निकल जाए। "

- "छोड़ यार , जाने दे , मुर्गा बाँग नहीं देगा तो सवेरा नहीं होगा क्या , वैसे भी अनुवादकों का रेट ही क्या है आजकल , पैसा फैक -तमाशा देख । पैसे तो है न तेरे पास ? "

- हाँ , पैसे तो है , चल बियर की बोतल खोल...........

लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

गीत - ज़िंदगी है एक गीत तो , आओ इसे गुनगुनाएँ हम

 ज़िंदगी है एक गीत तो , आओ इसे गुनगुनाएँ हम 

ज़िंदगी है एक भूल तो , आओ इसे   दोहराए हम 


ज़िंदगी है मौसिमों का सिलसिला 

ज़िंदगी है आँसुओं का क़ाफ़िला  

आदमी से तय   नहीं हो पाएगा 

ज़िंदगी से ज़िंदगी का फ़ासला


ज़िंदगी है एक दर्द तो , आओ इसे गुदगुदाए हम 


ज़िंदगी है  ख़ुश्बुओं की इक डगर 

ज़िंदगी है हादिसों   का इक नगर

आदमी से तय नहीं हो पाएगा 

 ख़ुश्बुओं  से हादिसों का ये सफ़र


ज़िंदगी है एक फूल तो , आओ इसे फिर खिलाए हम 


ज़िंदगी है आरती का इक दिया 

ज़िंदगी है तीरगी का मर्सिया 

आदमी से कुछ नहीं हो पाएगा 

तीरगी ने रौशनी को छल लिया  


ज़िंदगी है एक रात तो , आओ इसे जगमगाएँ हम।  

 



कवि  - इन्दुकांत आंगिरस  


गीत - फूल जब झड़ जाएँ यूँ शाख़ों से

 फूल  जब   झड़ जाएँ   यूँ शाख़ों से 

 बिखरे फिर पाँखों से 

 आँगन यूँ मेरा तुम ने  ही बुहारा होगा 


याद आई फिर भूली -सी सुधियाँ 

बीत गयी थी सदियाँ

धड़का मन मेरा तुम ने ही पुकारा होगा 


धूप - सी  बरसात कही पर थम गयी 

आँख वही पर जम गयी  

बादल घर मेरे तुम ने ही फुहारा होगा 


दर्द जब    आँखों में मेरी   घर जाए

बस धीरे धीरे भर जाए 

गीत फिर मेरा तुम ने ही सँवारा होगा   


आँगन   में मेरे   ठहरा   कब वसंत 

होने को ही है अंत 

मौसिम बदला है तेरा ही इशारा होगा  


कवि  - इन्दुकांत आंगिरस

लघुकथा - बंजर ज़मीन , बारिश और बादल


बंजर ज़मीन , बारिश और बादल


 बारिश को तरसती बंजर ज़मीन और बाबा की नज़र उठती आसमान में।  दूर दूर तक आग उगलती गरमी और पानी को तरसते प्यासे होंठ।  उमड़ती - घुमड़ती जब कोई काली बदरी आती तो खिल उठते उम्मीद के फूल लेकिन जब ये बदरी बिन पानी बरसाए लौट जाती तब धरती फिर उदास हो जाती।   । बाबा को यूँ उदास और टकटकी लगाए देख कर उधर से गुज़रते किसी फ़रिश्ते ने उस से कहा -

- " यूँ देखते भर रहने से बारिश नहीं होगी " 

-" तो फिर क्या करूँ , अगर इस साल भी बारिश नहीं हुई तो सब बर्बाद हो जायेगा " - बाबा ने मायूसी से पूछा। 

- " यूँ चुप बैठने से कुछ न होगा , दो - चार खरी - खोटी सुनाओ ऊपर वाले को , फिर देखना कैसे बारिश होती है "  फ़रिश्ते ने जवाब दिया। 

फ़रिश्ते की बात सुन कर बाबा ने ख़ूब खरी खोटी सुनाई ऊपर वाले को और देखते देखते बारिश की बूँदें बंजर ज़मीन की प्यास बुझाने लगी। 

बाबा समझ गया था कि वो युग  चला गया जब प्रार्थनाएँ सुनी जाती थी , इस  कलियुग में  तो जब तक किसी को हड़काओ नहीं कोई सुनता ही नहीं। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस

Saturday, June 10, 2023

गीत - तुम तुलसी हो आँगन की

 तुम तुलसी हो आँगन की 

मैं    जूठा    गंगाजल  हूँ  


तुम  विशवास हो मन का

मैं चटका हुआ दरपन हूँ 

तुम मधुमास उपवन का 

मैं जलता हुआ चन्दन हूँ 


लाख समझाया मन को 

ख़ुश्बू हाथ नहीं लगती 

तुम दस्तक हो जीवन की 

मैं    बीता हुआ कल हूँ


तुम मौसिम हो फूलों का 

मैं रीता हुआ पतझर हूँ 

तुम पत्थर हो देहरी  का 

मैं टूटा हुआ इक घर हूँ 


लाख समझाया मन को

बिगड़ी बात नहीं बनती 

तुम धड़कन हो जीवन की 

मैं साँसों की  दलदल हूँ  


तुम नग़मा हो अधरों का 

मैं भटका हुआ इक सुर हूँ 

तुम सागर हो मदिरा का 

मैं बिखरा हुआ परिमल हूँ 


लाख समझाया मन को

मदिरा मुफ़्त नहीं मिलती 

तुम धारा हो नदिया की 

मैं ठहरा हुआ जल हूँ।   



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


गीत - मन एक मीत अनजाना है

 मन एक मीत अनजाना है 

इसको किसने पहचाना है 


कभी फूलों में छिप कर रोता

कभी शूलों पे  हँस कर सोता 

कभी ग़ैर लगे इसको अपने 

कभी अपनों के छीने सपने  


काम किसी के आये न जो 

वो जीना तो मर जाना है 


कभी बोझ पहाड़ों का ढोता

कभी एक चुभन से ही रोता 

कभी सात समुन्दर पार गया 

कभी घर में अपने हार गया 


दुःख जो मिलते हैं जीवन में 

उन में ही हमें सुख पाना है 


कभी तितली के सँग उड़ जाता 

कभी दरिया के सँग मुड़ जाता 

कभी उछले है ये  पारा - सा 

कभी ढूंडे  हैं  किनारा - सा 


पर कौन डगर है अब जाना 

तय आज हमें कर जाना है। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


लघुकथा - मंत्री का वा'दा


 मंत्री का वा'दा

 

चुनाव परिणाम के बाद नए स्वास्थ्य मंत्री से पूछा गया प्रश्न -

"मंत्री जी , सरकारी अस्पतालों की हालत नाज़ुक है , मरीज़ ज़मीन पर पड़े रहते हैं , महंगी दवाइयां उपलब्ध नहीं होती , मरीज़ों को  दाखिले और सर्जरी  के लिए महीनों इन्तिज़ार करना पड़ता है।  इन समस्याओं  को दूर  करने के लिए आप कौन से ठोस क़दम उठाएंगे ?"

- "देखिये , हमारी पूरी कोशिश रहेगी कि जल्दी से जल्दी स्थिति को सुधारा जाये। अगले कुछ सालो में नए अस्पतालों के निर्माण की भी योजना है। लेकिन इस सब में समय लगेगा।  मेरी ख़ुद अपनी तबियत ठीक नहीं है , अगले हफ़्ते अमेरिका में मेरी सर्जरी है।  मैं वा'दा करता हूँ , वहां से लौट कर इन समस्याओं का निदान शीघ्र अति शीघ्र होगा। "


मंत्री जी का जवाब सुन कर रिपोर्टर इसके अलावा और क्या कह सकता था - Get well soon , आदरणीय मंत्री जी !


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

Thursday, June 8, 2023

वसंत का ठहाका - औरत - 5

 औरत और वसंत

 
औरत और वसंत
या यूँ कह लें
वसंत और औरत
औरत के बिना
वसंत अधूरा है
और वसंत के बिना
औरत है अधूरी
इसीलिए जिस ज़मीन पर
औरत नहीं होती
उस ज़मीन पर
 वसंत दस्तक नहीं देता,
वहाँ रहता है हमेशा
मौत के सन्नाटे सा
पतझड़। 


कवि -   इन्दुकांत आंगिरस 

वसंत का ठहाका - औरत -4

 औरत और राग


औरत और राग का
नाता है बहुत गहरा
बजाते ख़ुद
एक ताल है औरत
सुर और लय का
 कमाल है औरत
उसकी रग रग में
बसता  है एक राग
और
इस राग को
सीखने के लिए
एक उम्र चाहिए। 


कवि -   इन्दुकांत आंगिरस 

वसंत का ठहाका - औरत - 3

 औरत और रंग


औरत और रंग का
साथ जन्म जन्म का
औरत के बिना
ये दुनिया
बन जाती है रंगहीन
औरत में घुल जाते हैं
सारे रंग
औरत ओढ़ लेती है
हर रंग की चुनरी
और इस दुनिया को
बना देती है रंगीन
लेकिन जब 
जलती है चिता पर
उसकी रंगीन चुनरी
 रह जाता है शेष
सिर्फ सफ़ेद रंग
तब दुनिया का कोई भी रंग
उस पर चढ़ नहीं पाता
उस सफ़ेद रंग का दुःख
तब कोई नहीं गाता।



कवि -   इन्दुकांत आंगिरस

वसंत का ठहाका - औरत - 2

 औरत और आग


औरत और आग का
रिश्ता है गहरा
कुछ ठिठुरते जिस्मो को
गर्माहट  देने के लिए
बर्फ़ को पिघलाने के लिए
कुछ बेजान मुर्दों को
जिन्दा करने के लिए
 औरत को आग में
जलना पड़ता है
कुछ परवानो की
 मुक्ति के लिए
औरत को
शमा बनना पड़ता है
औरत को
आग बनना पड़ता है।


कवि -   इन्दुकांत आंगिरस 

वसंत का ठहाका - औरत- 1

 औरत और पानी

औरत और पानी का
बहुत गहरा नाता है
औरत को अक्सर
बुझानी होती है
जलते रेगिस्तानों की प्यास
जलते जिस्मों की प्यास
इसीलिए औरत
बन जाती है नदी
तो कभी बदरी , कभी बारिश
कभी बूँद
और कभी आँसू।


कवि -   इन्दुकांत आंगिरस

Sunday, June 4, 2023

वसंत का ठहाका - आज़ादी का अमृतोत्सव

 आज़ादी का अमृतोत्सव 


आज़ादी  का   अमृतोत्सव मना रहे हैं हम 

अपनी ढपली इस विश्व को सुना रहे हैं हम 


डिजिटल बन गया इंडिया डिजिटल हुए हम 

रिश्तों की डोर टूटी बस फिज़िकल हुए हम 

कुछ घरों में चूल्हा नहीं जला तो क्या हुआ 

चाँद की बनाई रोटी और मैजिकल हुए हम। 


गाँधी के चश्मे का स्वच्छ भारत हुआ धुंधला 

अंदर वाले ही जाने अब तो अंदर का घपला 

उघडे नाले दिल्ली के औ' हवा भी ज़हरीली  

' स्वच्छ भारत ' बन कर रह गया एक जुमला । 


धर्मों को ईमान अब तो जुबां तक आ गया 

ख़ुदा लिखते लिखते अब ख़ुदा तक आ गया 

गंगा - जमुनी तहज़ीब जब मिली मिटटी में

आँख का बाल सुन , इस बला तक आ गया।   


ख़त कहो तो लिख दूँ मैं सरकार के नाम 

तुम ने जिसे चुना उसी सरदार  के नाम 

कि आज भी अनपढ़ हैं करोड़ों लोग यहाँ 

कुछ पढ़े - लिखे गंवारों किरदार  के नाम। 



कवि - इन्दु कांत आंगिरस

Saturday, June 3, 2023

कहानी - पिस्तौल

  पिस्तौल 

पश्‍चिम की ओर खुलता दालान, घर का ओपन बावर्चीखाना था। दालान के पिछवाडे में इकलौता बड़ा हॉल जिसके तीन दरवाज़े  दालान में खुलते थे लेकिन इनमें से दाये-बाए के दो दरवाज़े हमेशा बंद रहते, बस बीच का दरवाज़ा ही खुलता और बंद होता था, दालान की छत पत्थर की टुकड़ियों की बनी थी और दीवारों का उखड़ा प्लास्टर इस बात की गवाही दे रहा था कि इस मकान की मरम्मत एक मुद्दत से नहीं हुई है। 

यह दालान लज्जो मौसी की ओपन रसोई थी जहाँ एक ज़माने में मेरी कई शामें गुज़री थी। दालाननुमा रसोई का ओपन होना कोई फ़ैशन नहीं अपितु दालान की मजबूरी थी क्योंकि पश्‍चिम की ओर खुलते इस दालान में न कोई दरवाज़ा था और न हीं कोई खिड़की। गर्मियों में धूप और सर्दियों में ठंडी हवा से बचने के लिए रसोई की तरफ दालान में एक चिक पड़ी रहती जो ज़रूरत के हिसाब से ऊपर नीचे कर दी जाती। चिक की झिरियों से छनती  धूप की किरणों से तस्वीर और चिक का संगीत आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा है। 

दालान के बाए कोने में थी लज्जो मौसी की लाजवाब रसोई । अंगीठी , घासलैट का स्टोव और बिजली का हीटर सभी कुछ था उनके पास । उस ज़माने में गैस के चूल्हे नहीं आए थे। लकड़ी के पतले पटरे  पर बैठ लज्जो मौसी खाना पकाती थी । अंगीठी की आँच  और चिक की झिरियों से छनती धूप की किरणें लज्जो के तांबाई चेहरे को सतरंगा बना देती । उसके माथे से टपकती पसीनों की बूँदों में धुले कुछ सिंदूरी कण डूबते सूरज की लालिमा में इस कदर घुल जाते कि उन्हें जुदा करना नामुमकिन हो जाता। मैं समझ नहीं पाती कि लज्जो की कमर पर छलछलाती पसीने की बूँदों को किस नाम से पुकारूँ शबनमी ओस या जलते छालें। 

मेरी शादी नई-नई हुई थी और हमारे लिए यह एक अजनबी शहर था। पति नौकरी के सिलसिले में अक्सर हफ़्तों बाहर रहते, इसीलिए हम लज्जो मौसी के किराएदार बन गए थे। रवि भी इस बात से निश्‍चिंत था की अनजान शहर में अब मैं अकेली नहीं रहूँगी। अक्सर अपनी ऊब मिटाने के लिए मैं लज्जो मौसी के पास जा बैठती। लज्जो मौसी दुनियादारी की बहुत बातें मुझे समझाती और उनके लज़ीज़ खाने की तो मैं दीवानी थी। बहुत-सी रेसिपी तो उन्होंने मुझे खेल-खेल में ही सिखा दी थी। 

लज्जो मौसी का खिला खिला रूप मुझे बहुत सुहाता था। फूल-सा चेहरा, तांबाई रंग, सुराही  - सी गर्दन, कजरारी आँखें, कमान - सी भौंहें, गुलाब की पंखुडी से होंठ,  उठी चट्टान से उरोज  और खिलखिलाती नदी - सी हँसी। 

रोटियाँ बेलते हुए उनके आसमान में कई सूरज उगने लगते। मैं आँखें फाड़ कर उन सूरजों को देखती रहती। ऐसे ही एक शाम लज्जो मौसी  मेरी चोटी पकड़ कर बोली थी-

 "क्यों री बन्नों, इतनी हैरान क्यों हो रही है? तेरे अनार भी एक दिन ऐसे ही सख्त और बड़े हो जाएँगे।"

- "नहीं मौसी, ऐसा कुछ नहीं " मैंने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा था। 

लेकिन मेरे ना ना करते हुए भी लज्जो मौसी ने मेरे अनारों की चुटकी काट ली थी। उस रात मैं मुश्किल से सो पायी थी। वह केवल नाम की लज्जो थी, लज्जा उसमें नाम भर को भी न थी। अपनी जवानी के क़िस्से  चटकारे ले ले कर मुझे सुनाती। उसे उसकी माँ ने बताया था कि मर्द की दो ही भूक होती है, एक पेट की और दूसरी पेंट की। और लज्जो मर्द की यह दोनों भूख मिटाने में न सिर्फ सक्षम थी अपितु एक अनुभवी उस्ताद थी। क्या मजाल उसकी रसोई से कोई मर्द भूखा उठ जाए। 

लज्जो मौसी का पति पेशे से एक घड़ीसाज़ था । बाज़ार में पटरी पर उसका घड़ी का काउंटर सिर्फ वक़्त  काटने का एक ज़रिया था। कमाई के नाम पर जो कुछ भी मिलता, शाम होते होते दारू में बह जाता। वह घड़ीसाज़ ज़रूर था लेकिन उसका अपना वक़्त हमेशा खराब चलता रहता । सुई के ऊपर सुई आते ही उसकी सुई अक्सर फिसल जाती और वह दो मिनट में पैंडूलम की तरह झूलने लगता। लज्जो मौसी के बदन पर फिर पसीने की बूँद उभर आती और वह दौड़कर बाथरूम में घुस जाती । इसलिए वह अपने घड़िसाज़ पति को ’झण्डू पैंडूलम’ कहकर बुलाती थी । शतर्मुर्ग  -  सी लंबी पतली टाँगे , खिचड़ी - से बाल, सुअर - सी गर्दन, चमगादड़ - सी आँखें, मुँह पर चेचक के गहरे दाग़, कोई अंधेरे में देख ले तो डर के मारे चीख़ पड़े। ऐसे कुरूप और बेमेल पति के साथ लज्जो अभी तक रह रही थी यही ग़नीमत थी । इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि उस ज़माने में तलाक का इतना चलन नहीं था और दूसरा कारण यह कि वह अपने अपने झण्डू पैंडूलम को पति से भड़वा  बनाने में सफल हो गयी थी। 

लज्जो सुइयों के इस बेमेल खेल से पूरी तरह से उकता चुकी थी और उसके झण्डू पैंडूलम को भी रोज़ दारू पीने की लत लग चुकी थी। इसीलिए ’झण्डू पैंडूलम’ अक्सर हर हफ़्ते अपने किसी नए दोस्त को घर ले आता। 

उस दिन दारु की पार्टी होती, घर में मुर्ग-मछली पकते और देर रात तक दावत उड़ती। मौसम कोई भी हो उस रात झंड़ पेंडुलम को दालान में सोना पड़ता और मेहमान भीतर हॉल में लज्जो मौसी की बाँहों में जन्नत का लुत्फ़  उठाता। 

एक शाम मैं कुछ सौदा लेने बाज़ार के लिए निकल ही रही थी कि लज्जो मौसी ने रोका - " बाज़ार  जा रही हो क्या? "

- " जी मौसी, कुछ चाहिए क्या?" मैंने सहजता से पूछा था।  

- " हाँ, इधर मेरे करीब तो आ बन्नो, " उन्होंने रहस्यमयी  आवाज़ में मुझे बुलाया।

मैं उनके करीब पहुँची तो मेरे कान में मुँह लगा कर बोली- "मेरे लिए एक पिस्तौल तो ले आ।" 

- " पिस्तौल " मैंने लगभग चौकते हुए पूछा। झण्ड पैंडुलम के क़त्ल  का इरादा है क्या? "

- "अरे नहीं बन्नो, असली नहीं , टॉय पिस्तौल चाहिए। वैसे भी उस भड़वे  को मार कर मुझे क्या मिलेगा? वो  परसों एक कोतवाल को लाया था। " 

- " तो फिर....? " मैंने जिज्ञासा से पूछा।  

- " उस कोतवाल ने मेरे नंगे बदन पर ऐसी पिस्तौल घुमाई कि अभी तक फुरफुरी उठ रही है।"  

- " तो क्या अब पिस्तौल से.....? "

- " नहीं समझेगी ठण्डे लोहे की गरमाहट को ... बस तू टॉय पिस्तौल ले आ और प्लास्टिक की नहीं लोहेवाली ही लाइयो । "

उस शाम बाज़ार से लौटकर जब मैंने टॉय पिस्तौल लज्जो मौसी को पकडाई तो उसने ख़ुशी  से मेरे गाल चूम लिए और झट से पिस्तौल अपने आसमान में छुपा ली। मैं आश्‍चर्य से उसकी बावली ख़ुशी  को देखती रही थी । 

इस वाक़ये  के कुछ दिनों बाद ही मेरे पति का तबादला दूसरे शहर में हो गया । बिछड़ते वक़्त लज्जो मौसी मुझसे पागलों की तरह लिपट कर रोई थी और मुझसे वा'दा लिया था कि मैं जब भी कभी उसके शहर में आऊँ तो उनसे मिले बग़ैर  न जाऊँ । उस शाम उनकी गुदाज़ बाँहों  से मैं बमुश्किल ख़ुद को जुदा कर पाई थी। 

नए शहर में हमारा अपना छोटा-सा मार्डन फ्लैट था। पति की तरक्की हो चुकी थी और उन्हें नौकरी के सिलसिले में अब भी अक्सर दौरों पे जाना पड़ता था। लेकिन यहाँ सुरक्षा की दृष्टि से कोई कमी नहीं थी। बिल्डिंग में सी सी टी वी कैमरे, 24 घण्टे सिक्यूरिटी गार्ड । इसीलिए रवि मेरी सुरक्षा को लेकर निश्‍चिंत रहते। हर महीने दो-तीन दिन के लिए घर आते और उसी वक़्त घर का ज़रूरी सामान भी ख़रीद  लिया जाता। 

गरमियों की ऐसी ही एक दोपहर थी । हम बाज़ार से काफी कुछ ख़रीद  कर लाए थे और अपने फ़्लैट के दरवाज़े के सामने खड़े थे। मैं अपने बड़े पर्स में फ्लैट की चाबी ढूँढ रही थी। पर चाबी नहीं मिल पा रही थी। कुछ वक़्त गुज़रने के बाद रवि ने मेरे हाथ से पर्स ले लिया और वही कॉरिडोर  में पर्स उलटा कर दिया । बिखरे सामान से फ़्लैट की चाबी उठा कर मुझे पकड़ाई । मुझे दरवाज़ा खोलने को कहा और पर्स से निकली चीज़ों को वापस पर्स में डालने लगा। बिखरी चीज़ों में एक टॉय पिस्तौल को देखकर रवि ने चौकते हुए पूछा- " यह क्या है ?  "

कुछ नहीं, अतिरिक्त सुरक्षा के लिए .. मैंने एक अटपटा - सा जवाब दिया और फ़्लैट के भीतर घुस गयी थी । 

 " टॉय पिस्तौल, आर यू ओके डार्लिंग ? "- रवि कुछ हैरानी से बोला था। 

- "आप छोड़िए यह सब और जल्दी से फ्रेश हो जाइए, तब तक मैं आपके लिए बढ़िया शर्बत बनाती हूँ।" - मैंने रवि को लगभग बाथरूम की तरफ ढकेलते हुए कहा और अपनी रसोई की ओर बढ़ गयी ।

 आज कई सालों बाद टॉय पिस्तौल ने लज्जो मौसी की याद ताज़ा कर दी थी। मैं अपनी रसोई में एक भूत - सी खड़ी थी । पश्‍चिम से शीशों को भेदती  धूप मेरी टाँगों के मध्यभाग पर ठहर गयी थी । मैंने उस टॉय पिस्तौल कोअपनी मुट्ठी में ज़ोर से भींच रखा था। मेरी कमर और आसमान में पसीने की बूँदें छलछला आई थी। मैंने एक लम्बी साँस छोड़कर अपनी पलकें बंद करी और अपने होंठों को ज़ोर से भींच लिया  लेकिन फिर भी मेरे मुँह से बेसाख़्ता  फूट पड़ा था एक प्रेम राग - " लज्जो मौसी, कहाँ हो तुम ? "



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 



ग़ज़ल - चाँदनी रात थी , चाँद भी था तरल

 ग़ज़ल 


चाँदनी रात थी , चाँद भी था तरल 

आपका साथ था , थे सितारे सजल 


याद है आज भी प्यार की वो छुअन 

बर्फ़ सा वो बदन जब गया था पिघल 


अब तो कहना पड़ेगा सनम आप से 

हम नहीं कर सके तुम ही कर लो पहल 


इस कदर हो गया जानवर आदमी 

जानवर भी गया आदमी से दहल


लौट कर अब नहीं गुज़रा वक़्त आएगा 

ऐ बशर तू भी अब इस गुमां से निकल 



कवि - बशर बिंदास 


ग़ज़ल - प्यार मुझ को सनम जब हुआ आप से

 ग़ज़ल 


प्यार मुझ को सनम जब हुआ आप से 

हर नफ़स ग़मज़दां दिल लगा आप से 


हो गयी तीरगी,  बुझ  गया चाँद भी 

हो गए हम कभी जब जुदा आप से


आदमी को सुनो ,  आदमी  ही कहो 

रूठ जाये भी गर , इक ख़ुदा आप से   


बस ज़रा प्यार से    चूम लेना उसे 

कोई करने लगे जब बुरा आप से 


दो सितारे बशर   कहकशां रात का 

इक जला आप से , इक बुझा आप से 



कवि - बशर बिंदास 


ग़ज़ल - हर किसी का सनम दिल लुभाता नहीं

 ग़ज़ल 


हर किसी का सनम दिल लुभाता नहीं 

प्यार करना  यहाँ सब को आता नहीं 


हर घडी प्यार की आग में हम जले 

इश्क़ की आग भी वो बुझाता नहीं 


भूल कर भी उसे हम भुला न सके 

याद भी अब सनम हम को आता नहीं 


रात भर जाग कर दिल तड़पता रहा 

गीत ग़म के भी अब वो सुनाता नहीं 


चाँदनी में कही सो गया जब 'बशर '

नींद से फिर उसे वो जगाता नहीं   


कवि - बशर बिंदास 

Friday, June 2, 2023

लघुकथा - धर्म

 लघुकथा -  धर्म


हंटर वाली लेडी ने ऊँची आवाज़ में नौकरी के लिए आये जवान लड़के से पूछा - " तुम्हारी ज़ात क्या है ? " 

- " जी , गोवर्धन गोत्र के  ब्राह्मण है , हमारे पूर्वज ....."

- " ठीक है , ठीक है....हो तो  हिन्दू ना, हमे मुसलमानों से सख़्त नफ़रत है।  "

- " जी , मेमसाहब , सौ बटा सौ हिन्दू है। " 

- " काम समझ गए ना ठीक से "

- " जी , मेमसाहब   कुत्तों की देखभाल  करनी है और  उन्हें खाना खिलाना है  , 

- " सबसे ज़रूरी हैं उन्हें हगाने के लिए पड़ोस के मैदान में घुमाना।  , और कोई सवाल ?"

- " जी मेमसाहब , हम जानना चाह रहे थे कि कुत्ते हिन्दू हैं कि मुसलमान ? "

ग़फ़लत में मेमसाहब का मुँह तो खुला लेकिन अलफ़ाज़ उसके गले में ही अटक गए। 



लघुकथा - पीर की मज़ार

पीर  की   मज़ार 


- " क्या हुआ भाई , मुँह लटकाये क्यों बैठा है ? " 

- आज जुम्मा है , फिर भी पीर साहब की  मज़ार  पर दर्शनार्थी बहुत कम है , और हिन्दू भाई - बहिन तो आज दिखाई ही नहीं पड़ रहे हैं। 

- ऐसा क्या , अरे हाँ , याद आया कल एक नेता जी जनता से अपील कर रहे थे कि पीरों की मज़ारो को पूजना बंद करों। 

- इसका मतलब अब हिन्दू भाई - बहिन मज़ारो पर चढ़ावा नहीं चढ़ाएंगे ? अगर ऐसा हुआ तो हमारा तो धंधा ही चौपट हो जायेगा।  ये तो सीधी सीधी रोज़ी रोटी पर लात है। 

- लगता तो ऐसा ही है भाई , अब अगर घर चलाना है  तो अपनी दुकान मंदिर के आगे लगा लो और हाँ ये ढाढ़ी भी कटवा  लेना, वरना  कोई अगरबत्ती भी नहीं खरीदेगा। 

- समझ गया भाई जी , समझ गया , अब मैं अपनी दुकान का नाम भी   ' श्याम ट्रेडर्स ' रखूँगा। 

उनकी बाते सुन कर मन ही मन सोच रहा था  कि रोज़ी रोटी  के लिए लोगो को ईमान तो  बेचते देखा , अब क्या मज़हब भी बिकेगा ?


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 








Thursday, June 1, 2023

फ़्लैश बैक - चौसर

 चौसर 


महाभारत काल  से चला आ रहा 

चौसर का खेल 

अब विलुप्ति की कगार पर है 

लेकिन मैंने देखा पुरनी दिल्ली  में 

अक्सर लोगो को खेलते चौसर 

फुर्सत में कुछ चौसर - बाज़ 

बिछाते चौसर की बिसात 

फेंकी जाती कौड़ियाँ 

और उन कौड़ियों के हिसाब से ही 

चलते खिलाड़ी अपनी अपनी चाल 

खेल खेला जाता था कौड़ियों से 

पर दांव पर लगती थी बड़ी रकम 

कभी कभी घोड़े वाली पुलिस 

आ जाती थी पकड़ने उन्हें 

हो जाते थे सब तीतर - बितर 

कुछ घंटो बाद फिर 

बिछ जाती थी चौसर की बिसात 

पर अब तो सालो हो गए 

न चौसर रही , न चौसर की बिसात 

और न चौसर - बाज़। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 













ग़ज़ल - ज़िंदगी जो मिली रौशनी की तरह

 ज़िंदगी जो मिली रौशनी की तरह 

दिल बुझाती रही तीरगी  की तरह 


बस यही इक खता  यार मुझसे हुई 

हर किसी से मिला आदमी की तरह 


प्यास में ख़ुद- ब- ख़ुद वो जला रात दिन 

जो मिला था मुझे  इक नदी की तरह 


भूलने में उसे इक ज़माना   लगा 

याद आता रहा इक सदी की तरह 


आग में सुन ' बशर ' इश्क़ जो था जला 

रात में ढल गया चाँदनी की तरह   



कवि - बशर बिंदास 

लघुकथा - सेविंग्स

 लघुकथा - सेविंग्स 


अपने नए पड़ोसी  को चाय की प्याली थमाते हुए मैंने पूछा - " सर्विस करते हैं आप  ? "


- " जी हाँ , बिजली विभाग में इंजीनियर के पद पर कार्यरत हूँ। " - पडोसी ने  मुस्कुरा कर जवाब दिया। 


- " फिर तो बिजली आपको फ्री मिलती होगी " - मैंने उत्सुकता से पूछा। 


- " जी , फ्री है भी और नहीं भी "।  पडोसी ने तपाक से कहा। 


- " जी मैं समझा नहीं '" - मैंने हिचकते हुए कहा। 


- " मतलब बिल तो आता  है पर बहुत कम " 


- वो कैसे ? - मैंने जिज्ञासा से पूछा। 


- इधर  आइये , बतलाता हूँ , वो मुझे बिजली के मीटर के पास ले जा कर बोले - ये पिन देख रहे हैं आप , बस इसे ज़रा सा नीचे गिरा दें ,फिर चाहे AC चलाये चाहे गीजर। "


अपने पडोसी  की इस बचत योजना के आगे मुझे अपनी सारी बचत योजनाएँ फीकी- सी मालुम पड़ी। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस