Sunday, June 30, 2024

तुम्हारे समुद्र की लहरें

 तुम्हारे समुद्र की लहरें 



तुम्हारे समुद्र की लहरें

मुझे बुलाती हैं बार बार 

मैं एक नन्हा आकाश 

तुम्हारे समुद्र की लहरों से मिल कर 

दीवाना बन गया हूँ अब 

बूँद बूँद पर लिखता हूँ  तुम्हारा नाम 

तुम्हारे समुद्र की लहरें 

रात - दिन तकती हैं मुझे 

ये बलखाती लहरें 

रात - दिन डसती  हैं मुझे 

इन लहरों से उठ कर 

मेरे तसव्वुर में

तुम्हारी भीगी आँखें उभर आती हैं 

सीने में एक लहर डूब डूब जाती है 

समेट लेती है अपनी पलकों में मेरे आँसू 

आज फिर रीत गया हूँ 

तुम्हारी बूँदों में भीग गया हूँ  

तुम अभी अपने दिल से पूछोगी 

मैं अभी तुम्हारा हो जाऊंगा 

जन्म जन्म के लिए 

तुम भी मेरी हो जाओगी 

हमारे तन इस जन्म में मिले न मिले 

मुरझाये हुए फूल खिले न खिले 

हम फिर मिलेंगे कभी न बिछड़ने के लिए 

हर लहर पर लफ़्ज़े मुहब्बत लिखने के लिए। 






तुम्हारी याद

 तुम्हारी याद 


आज फिर तुम्हारी    याद आयी है 

आज फिर जिंददगी  गुनगुनायी  है 


आज  फिर सहरा में  जला हूँ  मैं

आज फिर तू चाँदनी मैं नहायी है  


आज फिर तू  ज़मी पर उतरी है 

आज फिर यर ज़मी मुस्कुरायी है


आज फिर  तूने अंगड़ाई  ली है

आज फिर से क़यामत आयी  है   


आज फिर तू  जुदा हो गयी मुझ से 

आज फिर आँखों में नमी छायी है 


उम्र बितानी है

 उम्र बितानी है 


नीले गहरे आकाश में 

जगमग तारों को 

देर रात तक 

समुद्र किनारे 

साथ  तुम्हारे  

धीरे  धीरे  रखता  हूँ 

पलकों पर तुम्हारी 

और फिर 

एक उम्र बिताता हूँ 

उन तारों को 

एक एक कर के 

गिनने में। 

Saturday, June 29, 2024

देह के अर्थ

 देह के अर्थ 


तुम ज़िंदगी भर 

तलाशते रहे 

मेरी देह के अर्थ 

कभी फूल 

कभी रौशनी

कभी किरण 

कभी चाँदनी  

कभी लहरें 

कभी समुन्दर 

कभी तारे 

तो कभी किनारे 

बना कर ,

लेकिन प्रिय 

मेरी देह तो सिर्फ 

एक राख़ है 

ओर इस राख़ को 

तुम अपनी आत्मा पर 

मल नहीं सकते। 


कवि  -इन्दुकांत आंगिरस 

दिल्ली की बग़ीचे

 दिल्ली की बग़ीचे 


दिल्ली की बग़ीचे 

पर्यावरण बचाएँ न बचाएँ 

पर प्रेम का वातावरण ज़रूर बनाते हैं 


अनगिनत प्रेमी - युगलों की 

सच्ची - झूठी क़समों के 

गवाह होते  

इन बग़ीचों के पेड़ , 

पेड़ जिनके तनों से  

बेलों की तरह लिपटे रहते हैं 

प्रेमी - युगल 


इन प्रेमी - युगलों के 

कोमल स्पर्श से 

पेड़ों के तने 

बन जाते हैं मुलायम 

और मखमली 

जिन पर बड़ी आसानी से 

खोद देते हैं प्रेमी - युगल 

अपने अपने नाम 

और प्रेम भरी तूलिकाओं से 

रच देते हैं धीरे धीरे 

मासूम मुहब्बत भरे दिल , 

दिल , 

जिनमे बड़े बड़े 

सुखद अनछुए सपने छिपे होते हैं 


अक्सर प्रेमी - युगल 

इन पेड़ों  की जड़ों पर बैठ कर 

अपनी अपनी मुहब्बत की जड़ों को 

मीठे चुम्बनों की खाद से 

बनाते हैं अधिक मजबूत 

खिलाते हैं दाना 

चुम्बन वाली चिड़िया को ,

कुछ शर्मीले पेड़ 

शरमा कर दूसरी ओर देखने लगते हैं 

कुछ घूर कर देखते रहते हैं 

अधरों से अधरों का मिलन

सिहर उठते हैं कुछ पेड़ 

पा कर प्रेम की प्रथम छुअन 

कुछ पेड़ देर तक 

लड़खड़ाते रहते हैं 

यौवन की मदिरा पी कर 

कुछ पेड़ धीरे धीरे झुकते हैं 

धरती पर ,

धरती उन को 

अपनी फैली हुई बाँहों में 

क़ैद कर लेती है

धरती के टुकड़े समेट लेते हैं

अपने अपने हिस्से के पेड़ ,

पेड़ों की आत्माओं से उठता

संगीत 

धीरे धीरे फ़ैल जाता है  

जंगल में 

ओर छोड़ जाता है 

आने वाली नस्लों के नाम 

मुहब्बत का पैग़ाम 


बहुत ज़रूरी है 

इन पेड़ों को बचाए रखना 

मुहब्बत की 

एक पूरी दुनिया को 

बनाए रखना  


आओ , हम सब मिल कर 

इन पेड़ों को सींचे 

कभी न वीरान हो 

दिल्ली के बग़ीचे। 

 

 




तुम मेरी प्रेमिका नहीं हो

 तुम मेरी प्रेमिका नहीं हो 


सोचती हो रात - दिन मुझ को 

ढूँढती हो हर   नज़र मुझ को 

हर आहात पर चौंक  जाती हो 

कुछ दिल की है ख़बर तुझ को  


कभी जो तुम्हारी पायल की रुनझुन बन जाऊँ

कभी जो तुम्हारे काजल की नज़रें  बन जाऊँ 

कभी जो भर दो तुम दिल  मेरा  ख़ुशियों से 

कभी तुम्हारे दिल की मैं धड़कन बन जाऊँ 


कभी जो काँधे पर मेरे , तुम अपना सर रख दो 

और राहों में हमारी तुम अपना सफ़र रख दो 

कभी जो प्यास के सहरा में हम भटक जायें  

मेरे तपते हुए अधरों पर अपने अधर रख  दो 



कभी जो तुम्हारे कंगन की खनखन बन जाऊँ 

कभी जो तुम्हारी साँसों का चन्दन बन जाऊँ 

कभी जो तुम राधा बन कर पुकारो मुझ  को 

कभी जो तुम्हारी राहों का मैं नंदन बन जाऊँ 


ज़माने से  छुपाती हो मुझ को 

किताबों में पढ़ाती हो मुझ को 

जब थक हार कर लौटता हूँ 

पलकों में सुलाती हो मुझ को 


तुम मेरी प्रेमिका नहीं हो 

सच , तुम मेरी प्रेमिका नहीं हो। 


प्यार -2

 प्यार - 2


एक  मस्त चिड़िया हैं 

जो ज़मीन से दाना चुगकर 

आकाश में उड़ जाती हैं 

और अक्सर शाम ढले 

अपने घर लौट आती हैं 


प्यार इक बबूल हैं 

जो हर रात आँख में खुबता है

लकिन फिर भी 

सुबह की पहली किरण के साथ 

शबनम बन महकता है


प्यार इक फूल हैं 

जो मुरझा भी जाता हैं 

लकिन फिर भी 

गंध बनकर महकता हैं  


प्यार -1

 प्यार -1


प्यार शो - केस  में सजा ताजमहल नहीं 

प्यार इक मस्त दरिया है 

जहाँ से उगती है हर सुबह 

इसी की ख़ुश्बू  से महकते हैं फूल 

इसी से फूटते हैं 

सख्त चट्टानों में खिलखिलाते झरने 


यही हैं जीवन का सत्य 

यही हैं मृत्यु का संगीत 

सूनी हैं ये दुनिया बिन प्रीत 

प्यार अनजाना- सा समर्पण 

इसकी दहलीज़ पर 

मन प्राण सब अर्पण 

कुछ मीठें हृदय के हैं उद्गार 

कोई समझौता नहीं हैं प्यार 

प्यार की राह 

इतनी सहज नहीं होती 

प्यार में सुनो , बहस नहीं होती 

जी , प्यार में बहस नहीं होती ।





उर्वशी हो तुम

 उर्वशी हो तुम 


हाँ , मेरे मन की उर्वशी हो तुम 

पुरूरवा हूँ मैं , उर्वशी हो तुम 


बादलों के संगीत पर नृत्य करती 

मेरी उदास आँखों में गीत रचती


एक उद्दाम नदी हो तुम 


दिल है कि उठता ही जाता है 

प्रेम राग सीने में कसमसाता है 


एक आसमानी परी हो तुम 


फूल भी तुम्हे देख शरमा जाते हैं  

दिल के ग़म और गरमा जाते हैं 


प्रेम की अछूती कली हो तुम 


एक समंदर की आग हो तुम 

वसंत का अंतहीन राग हो तुम 


मेरी साँसों की एक कड़ी हो तुम 

हाँ , उर्वशी हो तुम 


सन्नाटा

 सन्नाटा 

मेरी आत्मा में पसरी  

बर्फ़ की एक नदी 

पिघलने लगती है और 

बर्फ़ से उठता धुआँ

फ़ैल जाता है मेरी रगों में, 

मैं तब्दील हो जाता हूँ 

एक ब्रह्मनाद में 

इस ब्रह्मनाद का संगीत

 कोई सुन नहीं पाता,

संगीत के सुर 

बदलते है बेतरतीब करवटे

मेरी आत्मा में ,

प्रेम की पीड़ा से 

जलती है मेरी आत्मा, 

रात दिन 

इस पीड़ा की रौशनी से 

जगमगा उठती है मेरी आत्मा 

मैं धीरे धीरे बुनता हूँ 

सन्नाटे के तार, 

मुझे प्रतीक्षा है 

एक ऐसे सन्नाटे की 

जो मेरी आत्मा में 

सदा सदा के लिए 

लीन हो जाये।


गुमशुदा प्रेम

 गुमशुदा प्रेम 


दूर बहुत दूर 

तुम भर रही हो वसंत 

अपनी साँसों में 

और 

उकेर रही हो कैन्वस पर 

आधी अधूरी तस्वीरें 

उन आधी अधूरी 

तस्वीरों के सामने 

मैं रखता हूँ 

अपनी आत्मा का दर्पण 

और ढूँडता   हूँ 

उन आधी अधूरी 

तस्वीरों का अधूरापन 

शायद यह दर्पण ही 

उन आधी अधूरी 

तस्वीरों का पुल है 

जिस से गुज़र कर ही 

हमे मिलेगा 

हमारा गुमशुदा प्रेम। 


नटनी

 नटनी  


मैं दूर बहुत दूर 

तुम्हारी सोचों से भी दूर 

एक सन्नाटे में रच रहा हूँ 

एक और सन्नाटा 

तुम एक नटनी की  तरह 

नृत्य कर रही हो

ज़िंदगी की  रस्सी पर 

ज़िंदगी का संगीत गूँजता है 

तुम्हारी आत्मा में, 

तुम्हारी साँसे 

एक उद्दाम 

नदी की लहरों की मानिंद 

उठती गिरती है मेरी आत्मा में, 

मेरी आत्मा से उठता शोर भी 

तुम्हे व्याकुल नहीं करता 

और मुझे अफ़सोस है कि

मेरी आत्मा का यह शोर 

उस उद्दाम नदी के 

शोर से भी नहीं दबता। 



लावारिस नाम

 लावारिस नाम

 

मुझे  आज  भी याद है वह शाम 

जब तुमने क़तरा क़तरा  

पिया था मेरी आँखों का नशा 

तुमने बार बार 

पुकारा था मेरा नाम ,

आज वही नाम 

मुझे याद नहीं आता

ज़िंदगी का कोई भी सुर 

अब प्रीत की धुन पर 

नहीं गाता  

शाम के साथ साथ 

रीत गया वो नाम 

मैं हैरान हूँ कि किस तरह 

बरसों पुराना नाम 

बन गया एक पल में गुमनाम 

अब उसकी 

कोई पहचान नहीं होती 

कोई शबनम 

उस पर नहीं रोती 

एक पल में 

लावारिस बन जाता है 

कोई बरसों पुराना नाम। 


चाँद का ठहाका

 चाँद का ठहाका 


हर लम्हा 

तुम्हारी याद तड़पाती है, 

एक ख़ामोशी 

मेरी आत्मा में पसर जाती है 

सब कुछ थम-सा जाता है 

उठती - गिरती साँसों का क़ाफ़िला  भी 

ठहर जाता है 

जैसे बहते बहते 

कोई नदी ठहर गयी हो 

जैसे कैन्वस पर उकेरे 

वसंत की साँसें 

पतझड़ी हो गयी हो, 

पीड़ा की इस ठहरी नदी में 

प्रतीक्षारत है एक चाँद 

नदी की लहरों में 

डूबा तन्हा चाँद 

जंगल का संगीत 

गाता है दर्द भरा गीत 

चाँद हो जाता है 

उदास और उदास 

ज़मी , आसमान ,तारें 

सब कुछ जाता है थम 

तन्हा चाँद की आँखें  भी 

हो जाती है नम ,

तुम अभी मुस्कराओगी 

टूट जायेगा

प्रकृति का तिल्सिम भी 

तन्हा उदास चाँद ने 

लगाया ठहाका 

कोई भूला बिसरा प्रेम गीत 

उसे भी याद आया क्या ?





बहुत दिन हुए

बहुत दिन हुए 


बहुत दिन हुए 

कोई प्रेम कविता नहीं लिखी 

बहुत दिन हुए 

इस दिल की कली नहीं खिली 

बहुत दिन हुए 

वसंत गुनगुनाया नहीं 

बहुत दिन हुए 

प्रीतम खिलखिलाया नहीं 

बहुत दिन हुए 

चाँदनी में नहाये हुए 

बहुत दिन हुए 

चाँद को बुलाये हुए 

बहुत दिन हुए 

तुम याद नहीं आये 

बहुत दिन हुए 

बिछड़े तुम्हारे साये 

बहुत दिन हुए 

विसाले रात न आयी 

बहुत दिन हुए 

तारों की बरात न आयी 

क्या यही  प्रेम कविता है ?


अजंता की मूरत

 अजंता की मूरत 


शिर से नख तक 

अजंता की मूरत हो तुम 

संगेमरमर- सा तुम्हारा शफ़्फ़ाक बदन 

अप्सरा की सूरत हो तुम 

कितनी फुर्सत में 

ख़ुदा ने तुम्हे गढ़ा होगा 

शायरों ने तुम्हे खूब पढ़ा होगा 

लहरों ने तुम से बल खाना सीखा होगा 

कलिओं ने तुम से मुस्काना सीखा होगा 

बादल  ने सीखा होगा बरसना 

चातक ने सीखा होगा तरसना 

तेरे नयनों से काजल बना होगा 

तेरी ज़ुल्फ़ों से बादल सजा होगा 

धरती तुझसे धीर बनी होगी 

बदरी तेरी  करधनी होगी 

आग तुझ से जल गयी होगी

रात तुझसे सज गयी होगी 

तारें  तुझ से झिमिलाये  होंगे 

चाँद भी तुझ से शर्माए होंगे 

चासनी तेरे लबों से बनी होगी

मिश्री तेरे ज़बाँ में घुली होगी

मोती तुझ से चमके होंगे 

चाँद सितारे झमके होंगे 

हर सफ़र    तेरे  क़दमों में है 

ज़िंदगी तेरे क़दमों में है 

क़यामत की क़यामत है तू 

अजंता की एक मूरत है तू  । 






प्रेम पूजा

 


प्रेम पूजा 


रखती हो तुम व्रत 

करती हो करवाचौथ की पूजा 

मेरी लम्बी आयु के लिए 

बचाती हो मुझे बुरी नज़र से 

छुपाती हो मुझे हर नज़र से 

मेरे हर सफ़र    का आगाज़ हो तुम 

मेरे हर सुर की आवाज़ हो तुम 

मेरे लिए लड़ जाती हो यमराज से भी 

तुम मेरी पूजा नहीं करती 

अपितु तुम तो स्वयं एक पूजा हो 

और 

मैं हूँ तुम्हारा प्रेम पुजारी । 


एक अरसा हुआ

 एक अरसा हुआ 


एक अरसा हुआ 

तुम्हारा कोई ख़त नहीं आया 

एक अरसा हुआ 

मैंने  भी तुम्हे ख़त नहीं लिखा 

एक अरसा हुआ 

तुमने मुझे याद नहीं किया 

एक अरसा हुआ 

मैंने भी तुम्हे याद नहीं किया 

एक अरसा हुआ 

तुम मुझे भुला नहीं पायी

एक अरसा हुआ 

मैं भी तुम्हे भुला नहीं  पाया 

क्या हम अब भी

 एक दूसरे  से प्रेम करते हैं  ?

क्या हम अब भी

एक दूसरे पे मरते हैं ?


प्रेम फूल

 प्रेम फूल 


वसंत में खिलती 

कलियों   की ख़ुश्बू  में भीगा 

अनूठा है ये प्रेम फूल 


अनमना , अलसाया -सा 

धूप की चादर ओढ़ 

बेसाख़्ता पसर जाता है 

छाया की छन छन  में 


आकाश , नदी , पहाड़ 

झरनें  ,पेड़ 

सबको पार कर 

बँध जाता है 

अनंत प्रेम के बंधन में 


शबनम  के अधरों पर 

गीत बन कर महकता है 

नदी की लहरों पर सवार हो कर 

करता है तय अनजाने 

प्रेम द्वीपों का सफ़र

जन्नत के जम जम में 


आज यही  प्रेम फूल घायल है

और इससे रिसते 

रक्त की नदी में  

डूबा हूँ सर तक मैं

एक अंतहीन सन्नाटा 

लील रहा है मेरी आत्मा को  । 




















अनाथ

 अनाथ 


मैं  अनाथ हूँ 

अर्थात  मेरा कोई नाथ नहीं 

मेरे माँ - बाप नहीं 


मैं यहाँ 

अपरिचित  चेहरों  की भीड़ में

अकेली हूँ 


किसी अनजान शहर में 

किसी अनजानी गली में 

किसी खंडहरी इमारत में 

किसी सीलन भरे 

अँधेरे तंग कमरे में 

अपने वजूद तो तलाशती 

मैं ऐसे सूर्य  की रौशनी हूँ 

जिसकी काली किरणे 

इस कमरे के अँधेरे को 

और अधिक गहरा देती हैं 

और उस मुर्दा सन्नाटे में रात 

एक अंतहीन  रात 

निरंतर करवटें बदलती है 

मेरी आत्मा बिलख बिलख उठती है 

चंद  सर्पीली उँगलियाँ

 मेरे शफ़्फ़ाक़ बदन पर 

बेतरतीबी से रेंगने लगती है 

और 

मेरा बदन ढल जाता है 

दर्द की एक अंतहीन नदी में 

दर्द की यह नदी 

रात के मूक सन्नाटे के साथ 

मिलकर गाती है 

दर्द का अंतहीन मर्सिया 


सुबह की रौशनी का 

लिबास ओढ़कर 

मैं  एक बार फिर से 

कोशिश करती हूँ 

अपने वजूद को पहचानने की 


उस अनजान शहर में 

उस अनजानी गली में 

उस खंडहरी  इमारत  में 

उस अँधेरे कमरे से गुज़रते हुए 

मैं  अब नहीं घबराती 

अब मैं  परिचित हूँ 

यहाँ  की धूप , हवा , रौशनी 

चेहरे , मुखोटें 

सब को पहचान लेती हूँ 

बस पहचान नहीं पाती तो 

उन सर्पीली उंगलिओं को 

जो रात में देर तक 

मेरे मिटटी के बदन पर 

अनगिनत दंश छोड़ जाती है 

पीर की एक नदी 

बिलख बिलख जाती  है 


मैं रोज़ बनती हूँ दुल्हन 

लेकिन बन्ने के गीत 

मेरे गले में ही घुट जाते हैं 

प्रेम के सब गीत चुक जाते हैं 

सर्पीली उंगलिओं के दंश 

न जाने कितनी सदिओं में जाएँगे 

एक न एक दिन ये आंसूं भी मुस्कुराएँगे  


मैं  अगली सुबह 

फिर उठती हूँ काली चादर छोड़ कर 

रौशनी की ऊँगली पकड़ मुस्कराती हूँ 

प्रेम का वही अनंत गीत 

अपनी आत्मा में गुनगुनाती हूँ ।


कवि  -इन्दुकांत आंगिरस 



अनजानी उड़ान

 अनजानी उड़ान 


तुम वसंत के पंखों पर 

सवार होकर 

निकल पड़े अनजानी यात्राओं पर 


और मैं अकेला 

यहाँ  धरती पर 

देख रहा हूँ तुम्हारी उड़ान 

तुम्हारे नए आसमान 

असीमित , अपरिचित आसमान 


मैं यहाँ  धरती पर 

प्रेम की अपरिचित गलियों   में

ढूँड रहा हूँ हमारी आत्मा के निशान

प्रेम की वही पुरानी  पहचान 


जहाँ कभी हम साथ साथ चले थे 

अनंत प्रेम पथ पर 

एक साथ बढे थे 


तुम आकांक्षा के रथ पर 

सवार हो कर 

भटक रहे हो नए नए आसमानों में

और इधर धरती की 

फैली हुई बाँहें थक गयी हैं  

लौट आओ प्रिय 

अभी हमे मिलकर तय करने हैं 

प्रेम के अनगिनत सफ़र 


आकाश ,धरती ,चाँद , सितारें 

और ये लाल फूल 

सब रो रहे हैं मेरे साथ, 

तुमने उकेरे थें 

प्रेम चित्र मेरी आत्मा पर 

और मैंने ढाले थें  

प्रेम गीत तुम्हारे अधरों पर 

सब पुकार रहे हैं तुम्हे 

लकिन तुम फिर भी ख़ामोश हो 


ईश्वर प्रतीक्षा कर रहा है 

हमारे महामिलन की 

और मैं यहाँ खजुराहों के मंदिर की 

सीढ़ियों पर 

प्रतीक्षारत हूँ 

डूबते सूरज के साथ 


कब लौटोगे ,  ओ  मेरे सहयात्री !


खुली आँखों का आकाश

 खुली आँखों का आकाश 


मैं तुम से दूर बहुत दूर 

इस सन्नाटे में 

लम्हा लम्हा बिखरता हूँ 

भूले बिसरे ख़तों के अल्फ़ाज़ 

धीरे धीरे मेरी आत्मा में उतरते हैं 

और मैं

तब्दील हो जाता हूँ 

एक अदद सन्नाटे में 


बिखरे हुए बिस्तर  की सिलवटे 

गाती  हैं दुःख भरा गीत 

और मैं

तन्हाई में बनता हूँ 

उन गीतों का संगीत 


तुम दूर बहुत दूर 

एक साफ़ सुथरे बिस्तर पर 

एक रौशनी की मानिंद सो रही हो 

तुम्हारी बंद आँखों में 

परोसते ख़्वाबों  की तस्वीर को 

मैं रोज़ उकेरता हूँ 

अपनी आत्मा के कैन्वस पर 


तुम अभी 

नींद से जागोगी 

ख़्वाबों  की सब तस्वीरें 

बिखर जायेंगी 


तुम्हारी खुली आँखों का आकाश 

तुमसे दूर बहुत दूर 

इस बेतरतीब कमरे में 

टूट रहा है लम्हा लम्हा 


आओ  अब आ भी जाओ 

ये आकाश टूट कर 

बिखर न जाये 

समेत लो इसे अपनी बाँहों  में 

इससे पहले कि

यह गहरी नींद सो जाये । 



स्पर्श

 स्पर्श 


मैं रोज़ जाता हूँ दफ़्तर

चंद पैसे कमाने के खातिर 

और दोपहर के भोजन के बाद 

तन्हा  सुड़कता हूँ एक चाय 

वही चाय की दुकान के सामने 

मैली ज़मीन पर बैठी 

वो बदसूरत अधनंगी  बुढ़िया 

अपनी पैबंद लगी गठरी में 

रह रह कर टटोलती 

ज़िंदगी के गुज़रे साल 

उसके ढले हुए स्तन 

अक्सर उसके ढीले ब्लाउज से 

बाहर झलकते रहते

झुर्रिओं से भरा चेहरा  

उलझे हुए खिचड़ी से बाल 

लटकी हुई खाल


अपनी पैबंद लगी गठरी में 

टटोलती ज़िंदगी के गुज़रे साल 


अजीब सुरों में कुछ पुकारती 

अपने गूँगे हाथ पसारती 

उसके बदन से उठती बास 

यकायक मेरे ज़हन में कई 

अनकहे सवाल गए जाग  


कहा होंगे वे कठोर हाथ 

जिन्होंने कभी किया होगा मर्दन 

उन कठोर स्तनों का

 कहा होगा वो राजदुलारा

जिसने अपने नन्हे होठों से 

पिया होगा दूध उन पुष्ट स्तनों का 

शायद उड़ा रहा हो सिगरेट का धुआँ आस-पास 

एक  लावारिस ज़िंदा लाश 

जिसे थी बस स्पर्श की तलाश 

लोग भीख में फैकते   सिक्के 

लेकिन बचते उसके स्पर्श से 


वह खाती  सूखी डबलरोटी 

पानी में भिगो कर

हँसती   रो रो कर 

उसे मिल जाता  पेट भरने को 

दाना पानी 

बस स्पर्श नहीं मिलता 

दिल का फूल नहीं खिलता 

और मै 

ख़रीद लाया हूँ बाज़ार  से 

कैन्वस और रंग 

बनाऊंगा  एक तस्वीर 

उस बुढ़िया की 

दुनिया उस तस्वीर  को देख कर 

यकीनन रह जाएगी दंग


मैंने कैन्वस पर 

सारे  रंग उड़ेल दिए 

पर तस्वीर अभी भी अधूरी है 

उसके स्तनों में फिसलती 

उन नन्ही मासूम उंगलिओं के स्पर्श से 

शायद यह तस्वीर मुकम्म्ल हो जाये 

या शायद नहीं भी 

बेहतर है कुछ तस्वीरों का अधूरा ही रह जाना 

अच्छा  लगता है सुनना कभी कभी 

ज़िंदगी का दर्दीला गाना ।







प्रेम की अंतहीन नदी

 प्रेम की अंतहीन  नदी 


तुम एक आवारा बादल की तरह 

मेरी आत्मा में पसर जाते हो 

और 

मेरी आत्मा का आकाश 

भर लेता हैं तुम्हे 

अपनी फैली हुई बाँहों  में 

कभी न बिछड़ने के लिए 


तुम वासंती हवा की मानिंद 

मेरी साँसों  में उतर जाते हो 

और मेरी साँसों का पिंजरा 

क़ैद कर लेता हूँ तुम्हे 

सदा सदा के लिए, 

तुम एक उत्ताल नदी की मानिंद 

मेरी रगों में 

प्रेम जल बनकर 

पसर जाते हो 

और तब 

हम मिलकर गाते हैं 

प्रेम का अंतहीन गीत ।


प्रेम पंछी

 प्रेम पंछी 


जब प्रेम रीत जाता है 

तो परिंदा का सोने का घर  भी 

उसके लिए पिंजरा बन जाता है 


शबनम की बूँदें  भी 

शोला बन जाती है 

हृदय की प्रेम कलियाँ 

भी मुरझा जाती हैं


और नदी की लहरें 

आग की लपटों में

 तब्दील हो जाती हैं 


पहाड़ों से उतरती 

सूरज की किरणें भी 

मन के अँधेरों को दूर नहीं कर पाती 


तारों का टूटा साज़ 

गाता हैं दर्दीले गीत 

रात  भर दिल को चाँदनी  जलाती



वसंत दबे पाँव 

लांघ जाता हैं प्रीत की दहलीज़

और पतझड़ 

एक अपरिचित अतिथि की तरह 

पसर जाता हैं आत्मा में 


आसमान से टपकती 

आग भरी बूँदों से 

चटक जाते हैं 

प्रीत के शीशें

और उन किरचों में उभर आता हैं 

एक वीरान टूटा ताजमहल 


नदी की लहरें भी गाती हैं

 उदासी भरा गीत 

किश्तियाँ किनारों पर 

तोड़ देती हैं दम

और बोझिल किनारे गातें हैं 

शोकगीत 


खजुराहों की प्रेम प्रतिमाएं भी 

तब्दील हो जाती हैं 

खालिस संवेदनहीन पत्थरों   में 

भूका प्यासा प्रेम का पंछी 

अंततः तोड़ देता हैं दम


लेकिन उसकी आत्मा 

फिर भी नहीं मरती 

उसकी आत्मा ओढ़ लेती हैं 

एक और प्रेम का लिबास 

और एक बार फिर से 

प्रेम पंछी निकल पड़ता हैं 

प्रेम की अनंत यात्रा पर ।







प्रेम घाटी

 प्रेम घाटी 


प्रेम पथ पर बढ़ते बढ़ते 

तुम न जाने कहा खो गए 

इस अंतहीन यात्रा पर 

अभी तो हम बढे ही थें 

अंतहीन प्रेमांगलिनों के 

घेरों में 

अभी तो हम खड़े ही थें 


अभी तो तुमने 

वसंत के पहले फूलों के रंगों से 

मेरा तिलक किया ही था 


अभी तो प्रेम जल की गंगा में 

हमने स्नान किया  ही था 


अभी तो हमें बादलों के उस पार 

क्षितिज की सीमायें तोड़कर 

प्रेम घाटी  में जाना था 

अभी तो हमे वसंत के साथ साथ 

मुस्कुराना था 



प्रेम की इस अंतहीन 

यात्रा में 

हम अभी से थक गए 

हमारे क़दम बढ़ते बढ़ते रुक गए 


देखो प्रिय 


प्रेम घाटी के इन प्रेम फूलों को 

ये प्रेम  फूल

अंतहीन अनंत प्रेम बंधन में बँधे है 


एक दूसरे  के प्रेमलिंगिनों में कसे हैं  


प्रतीक्षारत है आनेवाली सदिया 

और वसंत के ये ताज़ा फूल 

लिख रहे हैं इक - दूजे   के हृदय पटल पर 

अपने अपने नाम ।




प्रेम प्रतीक्षा नहीं करता

 प्रेम प्रतीक्षा नहीं करता 


तुमने कहा था 

प्रेम प्रतीक्षा नहीं करता 


सूरज की किरणें

लौट आती  हैं  क्षितिज के उस पार से 

नदी अंततः करती है 

सागर का आलिंगन 

तारों के साज़ की धुन पर 

गुनगुनाने लगते हैं  सपने 

चाँद मुस्करा कर चांदनी को 

अपनी बाँहों में समेट लेता है 

आकाश धीरे धीरे झुकता है धरती पर  

और 

सारी दुनिया सुनती है 

पतझड़ की दहलीज़ पर

 वसंत का ठहाका 

अपने अपने घरों को लौटते परिंदे 

पेड़ों की आत्माओं से उठता अंतहीन संगीत 

गाता है प्रेम का अनंत गीत 

पहाड़ों से उतरता प्रेम जल 

पसर जाता है मेरी शिराओं में 

अपनी सूनी आँखों के जंगल में 

डूबते सूरज के साथ 

करता हूँ तुम्हारी अंतहीन प्रतीक्षा 


तुमने कहा था 

प्रेम प्रतीक्षा नहीं करता ...






ज़ख़्मी दिल

 ज़ख़्मी दिल 


तुम्हारा दिल ज़ख़्मी है 

ख़ून  मेँ रिसता तुम्हारा ये दिल 

मुझे उदास बना देता है 

और मेरा प्रेम रिसने लगता है 

अब मेरा दिल भी 

ज़ख़्मी है तुम्हारे दिल की मानिंद 

मुझे और अधिक 

उदास हो जाना चाहिए   था 

लेकिन मैं  ख़ुश था 

कि  प्रेम मेँ डूबी 

उन जलती आँखों को 

अब मैं भी अपनी 

भीगी आँखों से देख पाउँगा 

मैं  ख़ुश था कि

उस रिसते ज़ख़्मी दिल को 

अब अपने ख़ून  से धो पाउँगा

मैं  ख़ुश था 

कि अब दर्द के 

इस अंतहीन तराने का 

दर्दीला नग़मा

तुम्हारे साथ मिलकर  गा पाउँगा । 


प्रेम कैन्वस

 प्रेम कैन्वस


अपनी आत्मा में 

तुम फूलों के रंगों से 

उकेरती रही 

मेरे ह्रदय के सूने कैन्वस पर 

वसंत के अनछुए   प्रेम गीत 

और मैं

भरता रहा उन प्रेम रंगों को 

अपनी आत्मा में

तुम शब्दों की सरगम से 

कसती रही 

मेरी ह्रदय वीणा के तार 

प्रेम के अनछुए   प्रेम गीत

और मैं

भरता रहा उन प्रेम तरंगों को 

अपनी आत्मा मेँ 


तुम तन्हाई की गर्दन पर 

रखती रही ख़ामोशी का साज़ 

गाती रही सन्नाटे का गीत 

और मैं

भरता रहा उस सन्नाटे को 

अपनी आत्मा मेँ । 



वसंत की दस्तक

 वसंत की दस्तक 


वसंत की दस्तक के साथ 

खिलते फूल 

कुनमुनी  धूप की चादर लपेटे 

गर्माते पेड़ 


नीली झील में खिलते 

सफ़ेद और लाल कमल के पत्तों पर 

झलकती शबनमी बूँदें 


फूलों का आलिंगन भर लेने को 

तड़पता पानी 

और पतझड़ी जंगल में 

वसंत  का ठहाका 


क्या यह सब प्रेम है ?


शाम देर तलक 

किसी की याद में डूबी आँखें 

किसी से मिलने का निमंत्रण 

फूलों की पँखुड़ियों का 

परत दर परत टूटना 


दूर क्षितिज में डूबता सूरज 

मेरी आँखों में उतर गया 

और वसंत सरे आम 

मेरी उंगलिओं से फिसल गया 


क्या यह सब प्रेम है ?

हाँ , यह सब प्रेम है 


लेकिन 

दर्द की यह अंतहीन नदी  भी तो 

प्रेम ही है 

दर्द की इस अंतहीन नदी में

 तैरकर ही 

पार करने है हमें सब प्रेम पुल


इसकी लहरों के स्पंदन से ही 

धड़कता रहता है हमारा ज़ख़्मी दिल 


और भिगोने को हमारी आत्मा 

देखो प्रिय 

कितना आतुर है ये प्रेम जल । 

 


हाँ , मुझे प्रेम हो गया है

 हाँ , मुझे प्रेम हो गया है 


हाँ , मुझे प्रेम हो गया है 

उन उदास गहरी नीली  आँखों से 

जिनसे छलकती रहती है 

प्रेम की एक अंतहीन नदी 

जो देर तक भीगती रहती है 

मेरी यादों की बारिश में 


हाँ , मुझे प्रेम हो गया है 

उन लम्बी पतली उंगलिओं से 

जो तूलिकाओं की तरह 

उकेरती रहती हैं मेरी आत्मा पर

 कभी न मिटने वाले चित्र 


हाँ , मुझे प्रेम हो गया है

उन गहरे घने केशों से 

जिनमे ज़िंदगी 

प्रेम के अबूझे रहस्यों की मानिंद 

उलझ कर रह जाती है


हाँ , मुझे प्रेम हो गया है

उन रसवंती अधरों से 

जो गुनगुनाते रहते हैं 

पवित्र प्रेम के अंतहीन नग़मे 


जिनपर मेरा नाम शायद 

लिखा है भी या नहीं भी 


हाँ , मुझे प्रेम हो गया है

उस आत्मा से 

जिसके मधुर आलिंगन में 

मैं देर तक सुनता हूँ 

प्रेम का अंतहीन तराना ।















प्रेम की रौशनी

 प्रेम की रौशनी 


तुम भोर की पहली किरण की तरह 

मेरी वीरान आँखों में पसर जाती हो 

और तमाम सपने जाग उठते हैं 

तुम्हारी खुली आँखों के साथ 


तुम मेरी ऊँगली पकड़ 

ले जाती हो मुझे 

रौशनी की घाटी में 

और 

में अपनी वीरान आँखों में 

देर तक भरता रहता हूँ रौशनी

हाँ , तुम्हारे प्रेम की रौशनी ।






परी हो तुम

 परी हो तुम 


तुम , हाँ तुम 

परी हो तुम 


सात समंदर पार से आयी परी हो तुम 

छुपा लिया था तुमने मुझे अपनी पलकों में 

बिखर गया था हर सफ़र  तुम्हारी अलकों में 


तुम्ही ने पोंछ दिए थे मेरे आँसू

पढ़ाये थे मुझे ठीक से प्रेम के आधे अधूरे  सबक 


रुक गया था समय 

ठहर  गयी थी बहती नदी 

मौन हो गया था आकाश 

जब तुमने छुआ था मुझे 

हाँ , तुम्हारी ही बाँहों  में 

ख़त्म हो गयी थी मेरी तलाश ।  



पीली रौशनी

 


पीली रौशनी 


एक पीली उदास रौशनी 

मेरी आत्मा में घर कर गयी 

और प्रेम के तमाम फूल 

मुरझा गए 

बस एक आँसू

पलकों पर आकर ठहर गया

टूटा तारा दिल में उतरा और पथरा गया  


पीड़ा कि ठहरी हुई नदी में 

मैंने उतार दी 

अपने प्रेम की किश्ती 

और लिखता  रहा देर तक 

लहरों पर तुम्हारा नाम 


मुझे यक़ीन है 

एक दिन तुम ज़रूर आओगे 

खिल उठेंगे 

सब मुरझाए हुए फूल 

और 

मेरी आत्मा की 

पीली उदास रौशनी 

तब्दील हो जाएगी 

सुनहरी प्रेम किरणों में 

पीर नदी का ठहरा जल 

तब्दील हो जायेगा 

प्रेम जल में 


और 

हमारी आत्माओं का अमर  प्रेम 

सदियों  तक 

कभी न बिछड़ने के लिए 

निकल पड़ेगा 

अनंत प्रेम पथ पर ।

 


प्रेम जल

 प्रेम जल 


तुम्हारा दिल  पत्थर  का एक पहाड़ है  

जो कुछ नहीं कहता 

जो कुछ नहीं सुनता 

मेरे दिल की तपन से भी 

ये पत्थर नहीं पिघलता


पर शायद यह मेरी भूल थी 

जो तुम्हे पत्थर जान कर 

मैं आगे बढ़ गया 

यह भूल गया कि

इस पहाड़ के भीतर 

एक वसंत  करवट लेता  है 

जो दर्दीले स्वर में  गाता है  प्रेम गीत

सदियों  पुराना वही 

चिरपरिचित प्रेम गीत 

जिसकी अनुगूँज से 

मेरी आत्मा भीग जाती है 

जब इस पथरीले पहाड़ से निकल 

प्रेम जल की एक नदी 

मेरी आत्मा में पसर जाती है ।


प्रेम पत्र

 प्रेम पत्र


अब नहीं लिखती तुम मुझे प्रेम पत्र

और ना   ही मधुर शब्द 

बदल गया है तुम्हारा प्रेम 

जैसी बदलती है ये धरती 

आकाश , नदी ,पहाड़ और पेड़ 

वैसे ही बदलता है प्रेम भी 

अब मेरे गीत 

तुम्हारी आत्मा के साज़ को नहीं छेड़ते 

अब मेरे प्रेम चित्र 

तुम्हारी आत्मा के कैन्वस पर नहीं उभरते 

अब कोई भी वसंत 

तुम्हारी आत्मा के फूलों को नहीं महकाता

अब कोई भी सुर 

हमारे प्रेम राग को नहीं गाता

एक अनंत पतझड़ी जंगल 

मेरी आत्मा में पसर गया है 

और आज तुम्हे प्रेम  पत्र में 

" प्रिय  " मधुर शब्द न लिख कर

मैं उदास हूँ

लकिन ख़ुश  भी हूँ यह जानकर 

कि प्रेम में अब हम   बराबर हैं  ।


कवि - इन्दुकांत आंगिरस  



प्रेम बूँद

 प्रेम बूँद

 

तुम परोसते हो मुझे 

प्रेम सागर 

लेकिन मुझे प्रेम बूँद की तलाश है 

मेरी आत्मा में मुरझाए हुए पलाश है 


प्रेम बूँद , हाँ मुझे प्रेम बूँद चाहिए 

हाँ वो प्रेम बूँद

जो मरुस्थल की प्यास बुझा दे 

जो सागर से मिल ख़ुद को मिटा दे 

जिसकी आत्मा से निकले प्रेम के अंतहीन तराने 

जिसके भीतर ज़िंदगी लगे गुनगुनाने 


जो हर लहर को लहर कर दे 

जो मृत्यु में भी जीवन भर दे 

जो पहाड़ों से निकल कर बहे 

जो  क्षितिज के उस पार रहे 

जो सागर से भी गहरी और बड़ी हो 

जो ज़िंदगी और मौत की कड़ी हो 

हाँ , मुझे वो प्रेम बूँद चाहिए 

बस एक प्रेम बूँद चाहिए ।


प्रेम नदी

 प्रेम नदी 


प्रेम एक तन्हा ख़ामोशी है 

यह अजाब पल पल कटता है 

सदियों  की मानिंद 

एक अंतहीन सन्नाटा 

मुझे हर पल डसता है 

बेतरतीब बिखरी  किताबों के अल्फ़ाज़ 

धीरे धीरे उतरते हैं मेरी रूह में 

धीरे धीरे एक अनजाने शोर से

 भर जाता है दिल 

एक गूंगा शोर 

जिसकी आवाज़ मुझे भी सुनाई नहीं देती 

और बाहर

शोर में लिपटी यह दुनिया 

मेरे दिल से टकरा कर

पीड़ा की एक अंतहीन नदी में 

पसर जाती है 

एक अंतहीन सन्नाटा 

मेरे भीतर के सन्नाटें को 

लील लेता है 

और में तब्दील हो जाता हूँ

 एक अदद पत्थर में 

जिससे फूटती है 

प्रेम की वही चिर परिचित अनंत नदी 

पर शायद यह प्रेम नदी 

समंदर के घर का पता भूल गयी है । 


प्रेम पुल

 प्रेम पुल


मैं कैसे मान लूँ कि 

तुम्हारे और मेरे बीच 

प्रेम का यह आख़िरी पुल भी 

आज टूट गया 


तुम्हारा प्रेम जल 

अब भी 

मेरी वीरान आँखों में बसता हैं 

और 

मेरा यह रक्त रंजित 

हृदय पुष्प 

तुम्हारे सीने में 

निरतर रिसता हैं । 



धीरे ..धीरे.. धीरे .

 धीरे ..धीरे.. धीरे ..


दूर पहाड़ों से 

उतरते सूरज की किरणों की मानिंद 

तुम उतरती रही 

मेरी आत्मा में 

धीरे ...धीरे.. धीरे .


प्रेम लहरों से उठती गंध 

फैलती गयी मेरी शिराओं में 

धीरे ..धीरे.. धीरे.. 


तुम्हारे और मेरे 

दरमियाँ

तन्हा फ़ासला 

डसता रहा हम दोनों को 

धीरे ,धीरे धीरे


तुम्हारे और मेरे 

बीच का 

अब यह तन्हा फ़ासला  ही 

बन गया 

हमारी आत्माओं का अनंत मिलन 

धीरे ..धीरे.. धीरे.. 


प्रेम फूल

 प्रेम फूल 


तुम पीड़ा की  इस अंतहीन नदी में 

मुझे अकेला छोड़ गए 

जिन लहरों पर सवार होकर 

मैं आता था तुम्हारे द्वार 

और तुम करती थी 

मेरा प्रेमाभिसार 

आज वही लहरें 

गुमसुम बैठी है  उदास 

और तुम 

नदी के उस पार 

मुझसे अनजान 

भटक रही हो अंतहीन जंगलों में 

और मैं यहाँ

प्रेम नदी के गहरे जल में 

समाधिस्थ हूँ 

और प्रतीक्षा कर रहा हूँ उस पल की 

जब तुम्हारी हथेली पर 

टपका मेरा आँसू 

बदलेगा एक फूल में

मुहब्बत के फूल में 

जो हमारी आत्मा में 

कभी न मुझनाने  वाला 

वसंत बनकर महकेगा । 


कभी उसके घर जाना

 कभी उसके घर जाना 


एक समंदर उफ़नता है बार बार 

एक सन्नाटा सुलगता है बार बार 

आकाश के रंग भी बेरंग हो गए हैं 

कुछ ताज़ा ग़म भी संग हो गए हैं 


वसंत की साँसे  भी मुरझा जाती हैं 

ज़िंदगी सुलग सुलग जाती है 


पतझड़ी वसंत का अपना मज़ा है 

यक़ीनन ज़िंदगी सजा है , सजा है 


पीले चाँद की उदास रौशनी 

वसंत की साँसों में उतर जाती है 

ज़िंदगी भूला बिसरा गीत गाती है 


वसंत की इन उदास साँसों की अनुगूँज में 

गूँजता है प्रेम का अंतहीन तराना 

इसी अंतहीन तराने को गाते गाते ही 

गुज़र जाती है ज़िंदगी 

अंतहीन पीड़ा की एक नदी

प्रतीक्षारत है , हाँ , प्रतीक्षारत है 

समंदर कभी उसके घर जाना ।


प्रेमाग्नि का हलाहल

 प्रेमाग्नि का हलाहल 


मैं शायद 

दुनिया के उन कम 

ख़ुशनसीब लोगों में से एक हूँ 

जिन्होंने प्रेम को भरपूर जिया है 

हँसते हँसते प्रेमाग्नि का हलाहल पिया है 


प्रेम के टूटने की  पीड़ा 

अपने आप में 

एक ऐसा दर्दीला गीत हैं 

जिसकी चीख़ से 

ये धरती भी फट सकती हैं 

आकाश भी टूट सकता हैं 

सागर भी सूख सकता हैं 


लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं होता 

बस दर्द कि अंतहीन नदी का 

रिसना बंद नहीं होता 

मैं जलते मरुस्थल पर 

नंगे पाँव हूँ भागता 

जल जाती है मेरी रूह भी 

बस वीरान आँखों में ठहरा 

पानी नहीं सूखता  ।


प्रेम आँसू

 प्रेम आँसू


मेरी आँख में  ठहरा 

यह प्रेम आँसू

इस धरती के 

महासागर से भी गहरा हैं 

क्यों कि 

इसमें समाहित हैं 

हमारे अनंत प्रेम का 

अंतहीन सागर । 




प्रेम पहेली

 प्रेम पहेली 


प्रेम के अबूझे 

रहस्यों को  समझते समझते 

मैं ख़ुद  इक पहेली बन गया 

जिसका जवाब मुझे भी  नहीं मालुम 


प्रेम के इस अनंत जंगल में 

मेरे हिस्से का वसंत 

न जाने  कहा गुम हो गया 


प्रेम को पाना

और  

प्रेम को जीना 

रेल की दो पटरियों  की तरह हैं 

जिनका मिलना नामुमकिन हैं 

हमारी आत्माओं का अनंत मिलन

मिलते मिलते बिछुड़ गया 

प्रेम क्षितिज तक जाकर पलट गया 

मैं देर तक देखता रहा 

समुन्दर किनारे 

आती जाती लहरों को, 

प्रेम की जलती बूँदें 

लहरों में घुल मिल गयी 

प्रेम की तपन से 

लहर लहर जल जल गयी ,

मैं उदास हूँ 

तुम दूर बहुत दूर 

शायद बाँचती हो प्रेम की अबूझी किताब 

जिसमे शायद अभी तक महफूज़  हो कोई सूखा गुलाब 

मैं  इधर इश्क़ की आग में जल रहा हूँ 

और हैरान हूँ कि

इस आग कि लपटे कही तुम्हारी 

आत्मा को न छू लें 


मैं आधा अधूरा था 

तुमने मुझ से मेरा सन्नाटा लिया ही क्यों 

तुमने मुझ से प्रेम किया ही क्यों ?




प्रेम -प्रसंग -6

 प्रेम -प्रसंग


मुहब्बत की राह में

हम साथ साथ बढे थे 

सुखद सपनों के महल 

हम ने मिल कर गढ़े थे 

वो किरण - किरण के साथ 

परवान चढ़ता हमारा प्रेम 

वो चाँदनी रातों में देर तक 

हमारा बर्फ़ - सा सुलगना 

अधर अधर हँसना  

नज़र नज़र सुबकना 

काश वो दिन लौट आये 

आज तुम बहुत याद आये। 


प्रेम -प्रसंग -5

 प्रेम -प्रसंग


तुम मेरे कुछ नहीं हो कर भी 

सब कुछ हो मेरे 

मैं कोई बंधन नहीं 

पर घेरा हो तुम मेरा 

जब कभी भी मैं

घिर जाता हूँ 

वीरानियों के जंगल में

तुम उकेर देते हो 

तबस्सुम की एक लकीर 

हृदय के कैन्वस पर 

और ज़िंदगी भर जाती है फिर 

मीठे , नाज़ुक गुलों से। 

प्रेम -प्रसंग -4

 प्रेम -प्रसंग


आज तुम याद आये 

हाँ , तुम याद आये 

बिलकुल वैसे ही 

जैसा तुम्हें कभी देखा था 

आँखों में वही  मस्ती 

लबों में वही मिठास 

वैसी  ही ख़ुश्बू भरी साँस 

वही काला तिल 

मुहब्बत भरा दिल 

बिलकुल वैसे ही मुझे मिले 

जैसा कभी मुझसे बिछड़े थे। 

Friday, June 28, 2024

प्रेम -प्रसंग -3

 प्रेम -प्रसंग


मैंने जब भी तुम्हें चूमा 

तुम कसमसाकर यही बोलीं 

' भई  हम नहीं ' 

और अब तुम नहीं 

हम दूर जंगलों में 

ढूँढा करेंगे

यही आवाज़ 

' भई  हम नहीं , भई हम नहीं  ' 




प्रेम -प्रसंग -2

 प्रेम -प्रसंग


रेखांकित हैं मेरे पास 

उन चुंबनों के घाव 

जो पूर्णिमा की 

शरद चाँदनी में 

तुम ने 

मेरी नंगी पीठ 

ललाट , कपोलों व अधरों पर 

दूर अमलतास के नीचे 

बिखेर दिए थे।  



प्रेम -प्रसंग -1

 प्रेम -प्रसंग


मेरे प्रेम जाग 

आ फिर चूम लूँ तेरे दाग़ 

और ..और ..

फैलने दो 

जंगल में आग 

युगों में 

एक बार 

आता है फाग। 

Sunday, June 23, 2024

आख़िर क्या होती है लघुकथा

 

                                         आख़िर क्या होती है लघुकथा

 

जो वक़्त की क़ीमत को बेहतर समझती है

जो अंधेरों में बिजली - सी चमकती है

पढ़ ले जिसे आप कुछ पलों  में

जादू  जिसका रहे सालों तक 

जो उतर जाये रूह में आपकी

बस रहे न चंद ख़यालों तक,

जो काली घटा - सी  आये बरसने को

और छोड़ जाये सबको तरसने को

तार तार तो होता है  दामन इसका

लिखती अपने लहू से जब कोई क़िस्सा

कभी आग कभी पानी , कभी लहरों की रवानी 

मुफ़लिस की जवानी होती है लघुकथा

कुछ कविता , कुछ कहानी होती है लघुकथा।

 

- इन्दुकांत आंगिरस

Sunday, June 16, 2024

पिता

 बहुत सालों तक पिता को समझ नहीं पाया 

जब ख़ुद बाप बना तो समझ आया 

जलाता है जो अपने लहू से घर के चिराग़ 

जिसके सीने में हमशा दबी होती है एक आग 

जो पत्थरों  को फोड़ कर पानी निकालता है 

जो जल जल कर भी मुस्कुराता है 


Saturday, June 15, 2024

लघुकथा - GST

 लघुकथा - GST 


" क्या हुआ दोस्त , इतना उदास क्यों बैठे हो ? " 


" अरे यार , ज़ुल्म की भी हद होती है।  क्रेडिट कार्ड से लोन लिया , ऋण पर ब्याज़ दे रहे हैं , लेकिन ब्याज़ पर सरकार द्वारा १८ परसेंट GST ? तुम्हीं बताओ , न कुछ ख़रीदा न बेचा लेकिन GST देना पड़ता है और वो भी ब्याज़ पर ?" दोस्त ने बिफ़रते हुए जवाब दिया। 


" ज़ुल्म तो है लेकिन मुझे इस बारे में कुछ नहीं मालूम , ये सरकार जाने या राम जाने " 


- कौन से राम भाई ? कौन सी सरकार की बात  कर रहे हों ?   


- अरे वो ही अयोध्या वाले राम , और वो ही राम मंदिर बनाने वाली सरकार , उन्हीं से पूछो कि ब्याज़ पर भी GST क्यों लगाया जा रहा है ?


-" ठीक है भाई उन्हीं से पूछता हूँ पर जवाब कब मिलेगा ये तो राम ही जाने। " - दोस्त ने अपनी बुझी हुई आँखों से आसमान की ओर  निहारते हुए कहा तो दूसरे दोस्त की आँखें भी गीली हो गयीं। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


लघुकथा - नौकरी

 लघुकथा - नौकरी 



 नौकरी के लिए आये उम्मीदवारों में से दो उम्मीदवारों को शार्ट लिस्ट कर लिया गया था। अंतिम निर्णय कंपनी के मालिक ने लेना था। कम्पनी के निदेशक को यह जान कर हैरानी हुई कि मालिक ने उस उम्मीदवार को चुना जो अनुभव और शिक्षा में दूसरे उम्मीदवार से कम था ।  आख़िर निदेशक ने झिझकते हुए मालिक से पूछा - सर , आपने एम . ए . पास वाले को नौकरी न दे कर बी . ए. पास वाले को नौकरी दे दी ?

" अरे  बी . ए. पास है तो क्या हुआ। उसने सुन्दर काण्ड में सर्टिफिकेट और रामचरित मानस में डिप्लोमा  कर रखा है और वो भी अमेरिका से। " - मालिक ने पुरज़ोर आवाज़ में जवाब दिया। 


उनका जवाब सुन कर निदेशक का  मुहँ ही नहीं , आँखें भी खुली की खुली रह गयी।  


- इन्दुकांत आंगिरस  


Thursday, June 6, 2024

छम छम बरसे पानी देखो

छम छम बरसे पानी देखो 

पानी  की    रवानी  देखो 


भरते जाते ताल तलैया 

पानी ही पानी है भैया 

डूब रहे सब गाँव शहर 

मिलने आई एक नहर 


सुबह एक तुफ़ानी देखो 

पानी  की  रवानी  देखो 


रात रात घन घन बरसे 

सहमे बच्चें इस डर से  

बिजली रह रह चमकी 

सबको  देती  धमकी 


बिजली की निशानी देखो

पानी  की  रवानी  देखो