अरविन्द और राष्ट्रीय
चेतना
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की उपरोक्त पंक्तियाँ मानव और मानवतावाद से तो जुडी
हुई हैं
,परोक्ष रूप से ये पंक्तियाँ राष्ट्रीय
चेतना के सरोकारों को भी उजागर करती हैं। किस
भी राष्ट्र की उन्नति के मूल में उस राष्ट्र की भाषा , संस्कृति और राष्ट्रीय चेतना के
स्वर ढूंढें जा सकते हैं। वास्तव में भाषा और संस्कृति भी राष्ट्रीय चेतना का अभिन्न
अंग हैं। भारत सदियों से संतो और ऋषियों की भूमि रहा है। इस संसार में अधिकांश क्रांतियां कवियों और दार्शनिकों द्वारा ही देखने
को मिलती हैं। अरविन्द भी एक दार्शनिक है और
इस आलेख में हम अरविन्द और उनकी राष्रीय चेतना पर मंथन करेंगे। इससे पूर्व
कि हम अरविन्द और उनकी राष्ट्रीय चेतना पर विचार करें , हमें राष्ट्र और चेतना पर अलग
अलग चिंतन करना होगा , तदपुरांत अरविन्द और राष्ट्रीय चेतना पर।
राष्ट्र क्या होता है ? , चेतना क्या होती है ? क्या
विश्व ग्लोब पर अंकित कुछ रेखाओं में सीमित ज़मीन के एक टुकड़े को राष्ट्र कहा जा सकता
है ? क्या राष्ट्र कुछ सामजिक संघटनों की साझा पहचान भर है ? क्या राष्ट्र किसी राजनैतिक संगठन
की बपौती है ? क्या राष्ट्र कुछ जातीय समूहों की साझा सम्पति है ? क्या राष्ट्र सिर्फ इतिहास का दस्तावेज़
होता है ? क्या राष्ट्र सिर्फ किसी भाषा या संस्कृति की धरोहर होता है ?
राष्ट्र से सम्बंधित ऐसे बहुत से प्रश्न हमारे मस्तिष्क में
उठते हैं और इन प्रश्नों की महत्ता अधिक गंभीर हो जाती है जब हम अरविन्द के भारत राष्ट्र
के बारे में विचार करते हैं जोकि विविधताओं
से भरा हुआ है। भारत में अनेकों बोलियां हैं और कई भाषाएँ हैं। पुरानी कहावत 'चार कोस पर पानी बदले आठ कोस पर
बानी' भारत के सन्दर्भ में सटीक बैठती
है। जहाँ हर आठ कोस पर 'बानी' , यानी बोली बदल जाती हो , तो जातीय समूह और उनकी विचारधाराओं में विभिन्नता स्वाभाविक है।इतनी विभिन्नताओं में
एकता के सूत्र को पिरोने का काम राष्ट्रीय चेतना के द्वारा ही संभव हो सकता है शायद
इसीलिए महर्षि अरविन्द ने राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाई।
इसी सन्दर्भ में हमारे लिए यह जानना आवशयक हो जाता है कि ' चेतना ' शब्द का अर्थ क्या होता है। अंग्रेजी भाषा में चेतना को consciousness
कहा जाता है। हमारे
प्राचीन वेदों में 'चेतना ' को मन से सूक्ष्म बताया गया है और इसी सूक्षमता के चलते चेतना ईश्वर की तरह सर्वयापी
पायी जा सकती है। चेतना कोई वस्तु नहीं अपितु
चेतना एक संवेदनशील प्राणी के विचार और भावनाएं भी हो सकती है। मानव को सुख - दुःख की अनुभूति चेतना के कारण ही संभव हो
पाती है। चेतना के कई रूप और स्तर हो सकते
हैं।धर्म , दर्शन , अध्यात्म और मनोविज्ञान जैसे क्षेत्रों में चेतना की अलग अलग परिभाषा मिल सकती
है लेकिन उसका मूल मन्त्र ' गति ' हर क्षेत्र में गतिमान रहती है। निम्न
छंद ने कबीर ने अगम लोक की चेतना को स्पर्श किया है।
कबीर धारा अगम की सतगुरु
दई लखाए
उलटी ताहि सुमिरन करो स्वामी संग मिलाए
चेतना के अभाव में गतिहीनता
आ जाना स्वाभाविक है। अलग अलग क्षेत्रों में
चेतना के अलग अलग आयाम पाए जा सकते हैं हैं
लेकिन यहां हम चेतना के विस्तार में न जाते हुए अपने विचार अरविन्द
और राष्ट्रीय चेतना पर ही केंद्रित करेंगे । .
भारत सदियों से ऋषि - मुनियों कि धरती रही है। 15 अगस्त 1872 को कोलकोता में जन्में अरविन्द घोष उर्फ़
अरविन्द प्रख्यात योगी , दार्शनिक, कवि और शिक्षा विद थे।
इनकी शिक्षा दीक्षा इंग्लॅण्ड में हुई और मात्र
18 वर्ष की उम्र में अरविन्द घोष ने ICS की परीक्षा
उत्तीर्ण कर ली थी । अपनी युवा अवस्था में अरविन्द ने भारतीय स्वतंत्रता संग्र्राम
में एक क्रांतिकारी के रूप में सक्रीय भागीदारी करी जिसके चलते उन्हें जेल भी जाना
पड़ा लेकिन बाद में आप योगी बन गए । बड़ोदा के
नरेश इनसे बहुत प्रभावित थे और उन्होंने उनको अपनी रियासत में शिक्षा शास्त्री के रूप
में नियुक्त कर रखा था। कवि के साथ साथ अरविन्द
एक पत्रकार भी थे . अरविन्द के उग्र विचारों ने तत्कालीन राष्ट्रवादियों को आकर्षित किया . सभी उनके
विचारों का लोहा मानने लगे थे . विपिनचन्द्र पाल द्वारा प्रकाशित पत्रिका ' वन्देमातरम
' में अरविन्द के आलेखों को बड़े उत्साह से प्रकाशित किया जाता था । इसमें कोई दो राय नहीं कि अरविन्द की राष्ट्रीय चेतना
के मूल में उनका शिक्षा दर्शन है । इससे पूर्व कि हम अरविन्द की राष्ट्रीय चेतना का
विश्लेषण करें हमें अरविन्द के शिक्षा दर्शन को समझना होगा . भारतीय शिक्षा में उनके
अमूल्य विचारों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता । महर्षि अरविन्द के अनुसार इस सांसारिक
दुनिया में रहते हुए भी मनुष्य दैवी शक्ति प्राप्त कर सकता है अर्थार्त 'अति मानव
' बन सकता है और शिक्षा द्वारा यह संभव है । महर्षि अरविन्द के शब्दों में -
" शिक्षा मानव के मस्तिष्क और आत्मा की शक्तियों का निर्माण करती है और उसमे ज्ञान
, चरित्र और संस्कृति को
जाग्रत करती है ." उन्होंने अपने शिक्षा सम्बन्धी विचार दो पुस्तकों - ' नेशनल सिस्टम ऑफ़ एजुकेशन ' और ' ऑफ़ एजुकेशन ' में प्रकट किये हैं ।उनके अनुसार
शिक्षा द्वारा मनुष्य अतिमानस की अवस्था से आनंद , आनंद से चित और चित
से सत की अवस्था तक पहुँच सकता है । उन्होंने अपनी शिक्षा प्रणाली के बारे में विस्तार
से इन पुस्तकों में लिखा है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि महर्षि अरविन्द की शिक्षा
प्रणाली पर चलते हुए सत को पाना सहज नहीं , अपितु अति दुर्गम है । इस प्रकार की शिक्षा को जनमानस में उतारने
के लिए शायद अभी सैकड़ों वर्ष लग जाये । बहुत से लोग उनके द्वारा प्रस्तुत शिक्षा प्रणाली को पसंद करते
थे वही बहुत से लोग इससे सहमत नहीं थे । उनका मानना था कि अरविन्द द्वारा प्रचारित
शिक्षा प्रणाली में बहुत सी तकनीकी कमिया है जिसके चलते उन्हें किर्यान्वित करना सहज
नहीं है ।
महर्षि अरविन्द के शब्दों में "राष्ट्रवाद महज एक राजनीतिक कार्यक्रम नही
है, बल्कि राष्ट्रवाद एक धर्म है, जिसका स्रोत ईश्वर है ।" अरविन्द का मानना
है कि राष्ट्रवाद ईश्वर का आदेश है और ईश्वर के आदेश का तो पालन हमें करना ही चाहिए
। अरविन्द के राष्ट्रवादी लेख वन्देमातरम " में निरंतर प्रकाशित होते थे । इन
लेखों के ज़रिये अरविन्द ने सम्पूर्ण राष्ट्र में राष्ट्रवाद की अलख जगाई और करोड़ों
लोगो के मन में राष्ट्रीय चेतना जागृत होने
लगी। भारत में जगह जगह पर राष्ट्रवादी आंदोलन होने लगे।इन आंदोलनों से अँगरेज़ हकूमत
इतनी भयभीत हुई कि इन आंदोलनों को दबाने की अँगरेज़ सरकार ने भरसक कोशिश करी। कई बार ' वन्देमातरम
' पत्रिका के प्रकाशन को बंद किया गया और पत्रिका की प्रतियों को ज़ब्त किया गया ।
महर्षि अरविन्द ने '
कर्मयोगी ' और ' धर्म ' समाचार पत्रों का प्रकाशन किया
और इन समाचार पत्रों के द्वारा राष्ट्रीय चेतना का विकास किया ।उन्होंने राष्ट्र की
जनता को ये जता दिया कि राष्ट्र ही सर्वोपिर है , राष्ट्र से बढ़ कर कुछ भी
नहीं . व्यक्ति से समाज ,
समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है . अगर कोई राष्ट्र गुलामी
की बडियों में क़ैद है तो उस राष्ट्र के निवासी
भी ग़ुलाम है ।महर्षि अरविन्द ने अपने लेखन और पत्रकारिता के माध्यम से भारतीय जीवन
की जड़ता को तोडा . लोगो को गहरी नींद से जगाया , उनके भीतर सुषुप्त वैचारिक
और सांस्कृतिक चेतना को जागृत किया . इसी क्रम में मुंबई से प्रकाशित ' इंदुप्रकाश
' समाचार पत्र में पुराने दीपों की जगह नए
दीप ' आलेखमाला में प्रकाशित अरविन्द के विस्फोटक आलेखों ने करोड़ों लोगो को राष्ट्रवाद
का सीधा सन्देश भेजा . उनके ये प्रयास अत्यंत सफल हुए और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
में राष्ट्रवाद की एक नयी लहर उमड़ पड़ी ।
अरविन्द विश्बंधुत्व की भावना में विशवास रखते थे और इसी कारण
से पॉन्डिचेरी में इनके द्वारा स्थापित अरविन्द आश्रम में विश्व के अनेक देशों से अनुयायी
रहते हैं । अरविन्द मनुष्य में जाति , रंग , स्थान , धर्म आदि आधार पर भेद भाव नहीं करते थे और भारतीय संस्कृति के मूल मन्त्र ' वसुधैव कुटुंबकम ' में विशवास
रखते थे . उनके द्वारा रचित पुस्तक ' मानव एकता का आदर्श ' में उन्होंने ' वसुधैव कुटुंबकम ' का विश्लेषण किया है और बताया
है कि किस तरह एक ही राष्ट्र में अलग अलग धर्म
, जाति और भाषा के लोग किस तरह एकजुट होकर एकता की भावना को मजबूत
कर सकते है और इस प्रकार अपने राष्ट्र को भी सशक्त बना सकते है । अरविन्द का मानना
है कि राष्ट्रवाद एक धर्म है जोकि सीधा ईश्वर द्वारा दिया गया है । इस को किसी भी हालत में दबाना संभव ही नहीं है । उनके अनुसार राष्ट्रवाद एक ऐसा
यज्ञ है जिसमें स्वतंत्रता , शिक्षा
, स्वदेशी भावनाओं की आहुति जाती है . इससे राष्ट्रवाद अधिक प्रबल होता है
और उसकी जड़ें लोगो की आत्माओं में घर बनाने लगती हैं .अपनी पुस्तकें , अपने
आलेखों और भाषणों के माध्यम से उन्होंने जन साधारण के मन में यह बात बैठा दी कि राष्ट्रवाद
ईश्वर प्रदत्त है और देवी की अनुकम्पा है । भारतीय जन मानस के लिए ,जोकि
पहले से ही धार्मिक और ईश्वर में आस्था रखता है , अरविन्द की इस प्रस्तावना
को समझना सहज तो था लेकिन इस प्रणाली को जीवन में ढालना उतना ही कठिन ।
अरविन्द की राष्ट्रीय चेतना कोई जादू की पोटली नहीं अपितु उसमें
सम्मिलित योग , शिक्षा , नैतिकता ,चरित्र विकास आदि भावनाएं और गतिविधियां
हैं जो किसी में भी राष्ट्रीय चेतना का निर्माण करती हैं . अरविन्द का मांनना
है कि शिक्षा द्वारा ये संभव है लेकिन दुर्भागयवश
हमारे देश में आज भी करोड़ों लोग निरक्षर हैं . शिक्षा के अभाव में नैतिकता की समझ , चरित्र विकास कैसे संभव होगा ? जापान एक छोटा सा राष्ट्र है जिस
पर द्वितीय विश्वयुद्ध में एटम बम गिराया गया था . बहुत कुछ नेस्तनाबूद हो गया था लेकिन कुछ ही वर्षों में जापान एक विकसित
राष्ट के रूप में उभर कर आ चुका है .इस उपलब्धि
के लिए उनका राष्ट्रवाद ही प्रशंसा
का पात्र है । जापान के जन मानस में राष्ट्रवाद कूट कूट कर भरा है . उनमे समाहित राष्ट्रीय
एकता उनके आत्म त्याग का ही परिणाम है । उनके लिए राष्ट्र ही सर्वोपिर है बाक़ी सब गौण
।लेकिन क्या अरविन्द की राष्ट्रीय चेतना भारत के जन मानस में इस तरह का बदलाव लाने
में सक्षम हो पाई है ? आज भी करोड़ों लोग निरक्षर हैं और साक्षर लोगों में नैतिकता और चरित्र ढूंढने से
भी नहीं मिलती . जहाँ आदमी नून , तेल और लकड़ी में उलझा हो , रोटी , कपडा और मकान के लिए संघर्षरत हो वहां नैतिकता और जीवन मूल्यों को सहेज कर रखना
एक दुर्लभ कार्य है । भारत के महान संत कवि कबीर की निम्न पंक्तियाँ देखें -
झीनी झीनी बीनी चदरिया ॥
काहे कै ताना काहे कै भरनी
दास कबीर जतन करि ओढी,
ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ॥
ईश्वर द्वारा प्रदत्त साफ़ सुथरी चदरिया को वैसे का वैसा रखना
, उस पर कोई भी दाग़ न लगने
देना मुश्किल काम है । अंग्रेजी भाषा में एक कहावत है - Simplest things are most
difficult things यानी सरल कार्य करना ही सबसे अधिक मुश्किल होता है और यहाँ तो
अरविन्द की शिक्षा प्रणाली ही अपने आप में इतनी कठिन है , शायद इसीलिए
आज तक पूर्ण रूप से कार्यान्वित नहीं हो पाई . दुविधा तो ये
है कि ईश्वर प्रदत्त बताने के बाद भी लोग उसको
अमल में नहीं ला पा रहे हैं । वास्तव में मनुष्य
ईश्वर के डर से बहुत से कार्य करता है लेकिन वह तभी जब वह दुखी होता है . दुःख में
ही उसे ईश्वर याद आता है और सुख के समय वह ईश्वर को भूल जाता है । इस सन्दर्भ में कबीर
का ये दोहा देखें -
दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥
लेकिन यहाँ सुख - दुःख की बात नहीं , बात नैतिकता , जीवन मूल्यों और चरित्र की है
. जिस तरह आग में तपाये बिना सोना कुंदन नहीं बनता उसी तरह मनुष्य का चरित्र भी बिना
तपे विकसित नहीं होता । राष्ट्रीय चेतना को विकसित करने
के लिए ज़रूरी है कि पहले नैतिकता और जीवन मूल्यों के पाठ को ठीक से पढ़ लिया जाये, भाईचारे और प्रेम को समझ लिया जाये धर्म , जाति , रंग के भेदों से ऊपर उठा जाये । अपनी सांस्कृतिक
विरासतों को संभाला जाये , निस्वार्थ राष्ट्र सेवा में तन - मन
- धन की आहुति दी जाये तो राष्ट्रीय चेतना का निर्माण स्वयं ही हो जायेगा ।
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