Saturday, November 19, 2022

ग़ज़ल - साँसों में कुछ जल रहा है


 साँसों में कुछ जल रहा है 

ग़म का पारा गल रहा है 


देख कर उसकी पलकों को 

सूरज   आँखें   मल रहा है 


उनसे बिछड़ने का लम्हा 

धीरे धीरे   टल   रहा है 


मौत  पड़ने   लगी है गले 

सूरज भी अब ढल रहा है 


एक परिंदा प्रीत का कब से 

इस   सीने   में पल रहा है 


क्या सोच रहा है  ' बशर '

क्यों करवट बदल रहा है ?





शाइर - बशर देहलवी  


गीत - खुले हैं मन के द्वार , उस पार चले आना

 


खुले हैं मन के द्वार , उस पार चले आना 

रोकेगी   मझदार  ,  पर तुम   यार चले आना 


सपनों के  काँवर में  रंग  नये भर  जाना तुम 

धरती की  पलकों पे गीत नया रच जाना तुम 

शबनम के कतरो पे आग नयी धर जाना तुम 


मधुर मधुर है प्यार  , उस पार चले आना 

खुले हैं मन के द्वार......


साँसों  की सरगम से  राग    नया रच जाना तुम 

किशना की मुरली सा साज़ नया बन जाना  तुम 

मीरा के   गीतों  का   राज़ नया   समझाना तुम 


मीरा का मनुहार , उस पार चले आना 

खुले हैं मन के द्वार......


चाँदी  के  पंखों से    तार नये   बुन जाना तुम

साँसों की किरणों से फूल नये  चुन लाना तुम  

अधरों की किसमिस से कर देना मस्ताना तुम 


प्रीत का बंदनहार , उस पार चले आना   

खुले हैं मन के द्वार......




कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


 

ग़ज़ल - हम फ़क़ीरी में दिल लुटाने को

 हम फ़क़ीरी में दिल लुटाने को 

ग़म की दौलत चले कमाने को 


करता है   इश्क़   वो सताने को 

हम भी दिल रखते हैं निशाने को 


संगबारी है    और हम   तन्हा 

क्या ख़बर  हो गयी ज़माने को 


झील ने आँख मूँद ली है अभी 

चाँद निकलेगा क्या नहाने को 


बुझते शोलों को तुम हवा न दो 

राख काफी है दिल जलाने को 


बेसबब दिल में आ के वो बैठा 

उम्र गुज़री    जिसे भुलाने को 


फूल सूखे हुए ही चंद आँसू  

बस यही रह गए बिछाने को 


जाग जाये न    हसरतों अरमां 

चाँद आया था शब्  सुलाने को 


रंग पे आ ही गयी ' बशर ' महफ़िल 

हम जो    आये   ग़ज़ल सुनाने  को 



शाइर - बशर देहलवी  


Friday, November 18, 2022

ग़ज़ल - मुझे ग़म में डूबी कहानी बहुत है



 मुझे ग़म में डूबी  कहानी बहुत है 

मगर आँसुओं से सुनानी बहुत है 


समुन्दर न दरिया मगर इस ज़मी पर 

मैं पानी हूँ   मुझको रवानी बहुत है 


जमा भी करूँ कैसे मैं बिखरे ख़तों को 

मुझे एक   भूली    निशानी    बहुत है 


जला तो दिया है चिराग़ों को हर सू 

मगर रात काली तूफ़ानी बहुत है 


उठाने को दुनिया के लुत्फ़ों करम सब  

' बशर ' चार दिन की जवानी बहुत है  





शाइर - बशर देहलवी  


Thursday, November 17, 2022

ग़ज़ल - इस बज़ाहिर तीरगी से दोस्त घबराना नहीं

 


इस बज़ाहिर तीरगी से दोस्त घबराना नहीं 

इस के पीछे रौशनी है तुम ने पहचाना नहीं 

 

अजनबी   हूँ दो घडी   रहने दो अपने शहर में 

जानता हूँ इस तरफ़ फिर लौट कर आना नहीं 


तश्नगी होटों पे ले कर घूमता हूँ दर - ब - दर 

और मीलों तक नज़र में कोई मयख़ाना नहीं 


हर किसी के साथ हो लेता हूँ अपना जान कर 

और जो कह लो मुझे लेकिन मैं दीवाना नहीं 


ज़िंदगी के साये में पलता रहा फिर भी ' बशर '

ज़िंदगी   भर ज़िंदगी  को मैंने पहचाना नहीं 




शाइर - बशर देहलवी  



लघुकथा - जेबकतरा


जेबकतरा 

 

सूरज  चौंधिया रहा था और बस -स्टैंड पर शेड भी नदारद। लोग पसीने  में नहाये बस की इन्तिज़ार में खड़े थे।  जैसे ही बस आई , भीड़ का एक रेला बस में घुसने के लिए उमड़ पड़ा।  धक्का -मुक्की में लोग चढ़ कम पाएँ  और  बस चल पड़ी। पायदान पर लटके लोग बस में खड़े यात्रियों पर भीतर घुसने के लिए चिल्ला रहे थे।  अभी एक - दो स्टॉप ही गुज़रे थे कि एकाएक किसी की चीख़ गूँज उठी- " हाय रे , मैं तो लुट गया , किस ने मेरी जेब काट ली है।  अरे , अरे , पकड़ो उसे ! वो देखो वो बस से कूद कर भाग रहा है , अरे , कोई पकड़ो उसे , यह तो वही भला आदमी है। "


-" भला आदमी कौन बाबा ? " किसी ने पूछा। 


- अरे भाई , वो ही भला इंसान जिसने बस स्टॉप पर मुझे धूप से बचाने के लिए अपने छाते में आश्रय दिया था। 


बाबा का जवाब  सुन कर सभी यात्री हतप्रभ थे।





लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 


Wednesday, November 16, 2022

ग़ज़ल - फिर दिल से उठी लपटें घर को न जला लेना

 फिर दिल से उठी लपटें घर को न जला लेना 

बेहतर है यही इन को दिल ही में दबा लेना 


जब भी तू कभी चाहे जब दिल में तेरे आए

इस पार बुला लेना , उस पार बुला लेना 


है तेरे सिवा    किसका अंदाज़े बयां ऐसा 

इक बात बता देना , इक बात छुपा लेना 


मुमकिन है कि फिर तुझको वो शख़्स न मिल पाए 

बढ़ के तू     गले    उस को इक    बार लगा लेना 


इस दौर    के लोगो ने    सीखा   है हुनर कैसा 

ख़ुद अपनी ही लाशों पे इक दुनिया बसा लेना 


बुझती है अगर शम्मा बुझने दे ' बशर ' उसको 

इन ग़म के अंधेरों से इस दिल को जला लेना 





शाइर - बशर देहलवी  


ग़ज़ल - तीरगी का सफ़र इक परी चाहिए

 तीरगी का सफ़र  इक परी  चाहिए 

जगमगाती   हुई   रौशनी  चाहिए 


दोस्ती भी भली , दुश्मनी भी भली 

हम फकीरों को बस बंदगी चाहिए 


आबलों का सफ़र और घायल जिगर 

चाँदनी    में ढली इक नदी चाहिए 


फूल बन कर खिलूँ  मैं हर इक साँस में

साँस को   प्रेम की   रागिनी चाहिए 


बात सुनने में लगती है कैसी अजब 

ज़िंदगी के लिए    ज़िंदगी चाहिए  


भीड़ है तो ख़ुदाओं की हर सू  मगर 

आदमी को यहाँ आदमी  चाहिए  


उठ रहा है धुआं हर नज़र से यहाँ 

हर नज़र को मगर चाँदनी चाहिए 


नफ़रतों को मिटा दे जो दिल से ' बशर '

आज दिल    को वही सादगी चाहिए 



शाइर - बशर देहलवी  


ग़ज़ल - बस वही इक प्यार का नग़मा पुराना याद है

 

बस वही इक प्यार का नग़मा पुराना याद है 

मेरे    कानों में    वो तेरा   गुनगुनाना याद है 


रात तारों से हुई कुछ देर मेरी गुफ़्तगू

चाँदनी रातों में तेरा झिलमिलाना याद है  


बस यही इस मोड़ पर कल गा रही थी  ज़िंदगी 

मेरे काँधे पर वो तेरा सर झुकाना याद है 


चाँद की बाँहों में जैसे चाँदनी का साज़ हो 

वो तिरा बाँहों में मेरी कसमसाना याद है 


मेरे टूटे दिल से जो निकला था नग़मा हिज्र में 

तेरे अधरों पर उसी का कँपकपाना याद है 


कल ज़मी की कोख से फूटा था फिर चश्मा कोई 

मुझको तेरा बज़्म में वो खिलखिलाना याद है 


हर तरफ़ फैली हुई थी तीरगी जब ऐ ' बशर ' 

उस घडी तिरा नज़र में जगमगाना याद है 



शाइर - बशर देहलवी  


प्रेम - प्रसंग/ 2 - - बुदापैश्त के नाम

 


पुराने  काग़ज़ों में बुदापैश्त के नाम लिखा  वो गीत मिल गया जो मैंने अपने बुदापैश्त  प्रवास ( सं २००० )  के दौरान  लिखा था।  यूँ तो यह एक साधारण सा  गीत है लेकिन मेरी यादों से जुड़ा है , इसीलिए मित्रों के साथ साझा कर रहा हूँ।


 बुदापैश्त के नाम 


सुनो ,नगरी है ये प्यार की यारो 

कर लो तुम रसपान सुधा का 

क़दम क़दम यहाँ प्यार की गगरी 

छलके रस   बरसाए सुरा का । 


दूना यहाँ छल छल कर बहती 

ये आप कहानी अपनी कहती 

पैश्त के धोये ज़ख़्म भी इस ने 

बुदा के आँसू भी पौंछे  इस ने । 


खिलते फूल यहाँ  हर आँगन 

छलके नयन नयन में सावन 

चित चोर यहाँ चातक ठहरा 

हर चकवी मजनू  की लैला । 


झांकों झांकों  इन नयनो में तुम 

मस्ती में इनकी हो   जाओ गुम 

मदहोश तुम्हें जब  कर देंगी 

ख़ुश्बू साँसों में   भर देंगी ।


प्रीत यहाँ बहती हर उर में 

साज़ यहाँ सजता हर सुर में 

जितने फूल हँसे हैं खिल के 

हैं उतने ही आँसू भी छलके । 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

Tuesday, November 15, 2022

ग़ज़ल - डूबती इक सुबह का मंज़र हूँ मैं

 डूबती इक सुबह का   मंज़र हूँ मैं

वक़्त का चलता हुआ चक्कर हूँ मैं 


कोई दरवाज़ा न कोई रौशनी 

तीरगी का एक सूना घर हूँ मैं 


दाग़ सीने में लिए फिरता रहा 

देखिये फूलों की एक चादर हूँ मैं 


दिल में रखी है किसी की मूर्ति

एक छोटा प्यार का मंदर हूँ मैं


आप भी चाहे तो ठोकर मार लें 

बारहा   तोडा गया   पत्थर हूँ मैं


लूटने का कब मुझे आया हुनर 

एक खस्ताहाल सौदागर  हूँ मैं 


हर कोई हैं मेरे साये में ' बशर '

हर तरफ फैला हुआ अम्बर हूँ मैं



शाइर - बशर देहलवी 



ग़ज़ल - दिल लगाना भी बेमज़ा निकला

 

दिल लगाना भी बेमज़ा निकला 

बावफ़ा जो था बेवफ़ा  निकला 


जो समुन्दर      दिखाई देता था 

एक पानी का  बुलबुला निकला  


मौत       की राह में    भटकने  को 

किसकी साँसों का काफ़िला निकला 


उनकी तिरछी निगाह का जादू 

हैरतों    से भरा     हुआ निकला 


जिस तरफ़ भी बढे क़दम अपने 

तेरे  घर का     ही रास्ता निकला 


कब    सहारा      दिया ज़माने ने 

अज़्मे दिल ही मेरा ख़ुदा निकला 


 जितना जो ख़ुश है देखने में ' बशर '

उसका उतना ही ग़म सिवा निकला  



 शाइर - बशर देहलवी 


Monday, November 14, 2022

ग़ज़ल - हर घडी इक आग सी सीने में मेरे है लगी

 

हर घडी इक आग सी सीने में मेरे है लगी 

लम्हा लम्हा जागती है मेरे दिल की तश्नगी 


ग़ैर के आँचल से क्या   उम्मीद रखूँ दोस्तों 

हो सकी न जब हमारी रौशनी अपनी ठगी 


सोचता हूँ छिन  न जाये मुझ से वो मेरी ख़ुशी

ढूँढ कर लाई है जिसको   आज मेरी ज़िंदगी  


कल फ़लक से रौशनी का कारवाँ गुज़रा कोई 

चाँदनी भी जिस के आगे रह गई गुमसुम  ठगी 


दिल में  रखी है   बसा कर जो भी सूरत ऐ ' बशर '

हर किरण में उस की सूरत हू ब हू  मुझ को लगी 


शाइर - बशर देहलवी 



ग़ज़ल - तब तक रहेंगी आप से ख़ुशियाँ परे परे

 


तब तक रहेंगी आप से ख़ुशियाँ परे परे 

जब तक रहेंगे आप ही इस से डरे डरे 


लगता है अब किसी से उठाया न जाएगा 

भारी   जो हो गया है   ये पत्थर   धरे धरे 


जाने वो क्या नज़र थी जो गुलशन पे छा गयी 

शाख़ों  पे खिल  उठे हैं   जो  पत्तें    हरे हरे 


देखो छलक न जाये लगा दी ये शर्त भी 

साक़ी ने दे को जाम  मुझे कुछ भरे भरे 


ऐसी ग़ज़ल सुनाओ कि सुन के जिसे ' बशर ' 

अरमान दिल में जाग उठे फिर मरे मरे 



शाइर - बशर देहलवी 




Saturday, November 12, 2022

ग़ज़ल - बेख़ुदी में भी बेकली सी है

 बेख़ुदी में  भी  बेकली  सी है 

राख सीने में कुछ दबी सी है  


दिन है जलते हुए फफोले सा 

रात ठहरी हुई   नदी सी   है 


हर तरफ़ तीरगी है वैसे तो 

दिलजले हैं तो रौशनी सी है 


रात भर ख़ुद जला तो ये पाया 

इश्क़ की आग कुछ नयी सी है 


याद फिर आ गया तेरा मिलना 

आज आँखों में कुछ नमी सी है 


उठ रहा   है धुआं   शरारों    से 

आग दिल में भी कुछ लगी सी है  


आग ढूंढों नहीं  'बशर  ' इस में 

रौशनी   आज    रौशनी    सी है 




शाइर - बशर देहलवी 


Thursday, November 10, 2022

ग़ज़ल - इक किरन चलती है जैसे रौशनी के साथ साथ

 

इक किरन चलती है जैसे रौशनी के साथ साथ 

आप भी चल कर तो देखो ज़िंदगी के साथ साथ 


ठीक ही कहते थे सारे लोग मुझको नासमझ 

दोस्ती मैंने   निभाई दुश्मनी   के साथ साथ 


इश्क़ तो करने चले  हो ये भी  सुन लो ये मियां 

दर्द भी दिल को मिलेगा दिल लगी के साथ साथ 


क्या ख़बर क्या हादसा गुज़रा फ़लक पर दोस्तों 

रात भर जागे   सितारे   चाँदनी    के साथ साथ 


दिल हमारा है अजब   शय टूटने   के बावजूद 

रात दिन महवे सफ़र है बेदिली के साथ साथ 


यूँ तो दुश्मन आदमी है आदमी का ऐ ' बशर '

आदमी रहता है फिर भी आदमी के साथ साथ 



शाइर - बशर देहलवी 


गीत - सह ले जो हर चुभन ,वो हृदय कहाँ से लाऊँ

 


      गीत 


सह ले जो हर चुभन ,वो हृदय कहाँ  से  लाऊँ 

कह दे जो हर कथन, वो समय कहाँ  से लाऊँ 


बन बन कर यूँ समय से टूटा हूँ कभी मैं

शीशा  भी मैं  नहीं हूँ  पत्थर  भी नहीं मैं 


चुन ले जो हर सुमन ,वो नयन कहाँ  से  लाऊँ 

बुन  दे जो हर कफ़न, वो वसन कहाँ  से  लाऊँ 


जल जल के यूँ चिता में ,बुझता हूँ कभी मैं 

शोला भी में नहीं हूँ ,  शबनम भी  नहीं  मैं


बुन  ले जो हर सपन, वो नज़र कहाँ  से  लाऊँ 

सह ले जो हर दमन ,वो उदर कहाँ  से  लाऊँ 


गिन गिन के यूँ सपन भी ,जगता हूँ कभी मैं 

जीवित भी मैं  नहीं हूँ ,  मरता  भी  नहीं  मैं। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


ग़ज़ल - इक न इक दिन फिर अंधेरों में कही खो जाएँगे


 इक न इक दिन फिर अंधेरों में कही खो जाएँगे

फिर भी लेकिन हम जहाँ में रौशनी बो जाएँगे 


अपने ग़म से जब कभी हम आशना हो जाएँगे

शौक़ से काँटों के बिस्तर पर कही सो  जाएँगे


 देख लो एक बार हम तुम फिर न जाने कब मिले 

टूट कर डाली से पत्तें भीड़ में खो जाएँगे 


हर तरफ़ होगी उदासी फिर तेरे जाने के बाद 

सब हँसी दिलकश मनाज़िर बेज़बाँ  हो जाएँगे 


दिल के दामन पर जो धब्बें हैं गुनाहों के ' बशर '

हो सका तो ख़ून- ए- दिल से हम इन्हें धो  जाएँगे 






शाइर - बशर देहलवी 



 

Wednesday, November 9, 2022

पुस्तक परिचय - हंगेरियन लोक कथाएँ ( हिन्दी अनुवाद )





                                                हंगेरियन  लोक कथाएँ 



 हंगेरियन  लोक कथाओं का यह अनुवाद मैंने मूल हंगेरियन  भाषा से किया है ।  इस पुस्तक का विमोचन 2006 में ही हंगेरियन सांस्कृतिक केंद्र ,दिल्ली  में संपन्न हुआ था । इसकी भूमिका मेरी अध्यापिका डॉ Köves Margit  ने लिखी है जो अभी भी दिल्ली विश्विद्यालय में हंगेरियन भाषा पढ़ाती हैं। मुखपृष्ठ का चित्र मेरी हंगेरियन कलाकार मित्र Hummel Rozália  द्वारा बनाया गया है जिनसे  मेरी पहली मुलाक़ात बुदापैश्त में और बाद में कई बार भारत में भी हुई।   पुस्तक में कुल 10 लोक कथाओं का अनुवाद शामिल है। बानगी के तौर  पर प्रस्तुत है इसी पुस्तक से एक लोककथा का हिंदी अनुवाद - 


Egyszer volt Budán kutyavásár

बुदा में कुत्तों  का बाज़ार सिर्फ एक बार 


आदत के अनुसार एक बार मात्याश  राजा ने एक गावँ की छोटी -सी सराय में रात गुज़ारी। अगली सुबह मैदान में घूमते हुए राजा ने दो किसानों को देखा। उन किसानों में से एक किसान बहुत कमजोर था और एक बूढ़े घोड़े से अपनी ज़मीन जोत रहा था। जब राजा ने देखा कि ग़रीब किसान को अपना काम करने में अत्यंत कठिनाई हो रही है तो राजा ने अमीर किसान की तरफ मुड़ कर उससे कहा कि उसे ग़रीब किसान की मदद करनी चाहिए।

" मुझे इससे कोई लेना-देना नहीं ,सब अपना अपना काम देखते हैं "-अमीर किसान ने रुखा -सा जवाब दिया।

मात्याश  राजा को यह जवाब पसंद नहीं आया। उन्होंने ग़रीब किसान से कहा -" देख रहा हूँ कि तुम बहुत कठिनाई में हो। तुम्हे एक नेक सलाह देता हूँ - अगले इतवार बुदा में कुत्तों का बाज़ार  लगेगा।  तुम जितने भी गलियों  के कुत्ते इकट्ठे कर सको कर लो , चाहे  कैसे भी हो,उन सबको इकठ्ठा कर बुदा ले आना।"

ग़रीब किसान को कुछ हैरानी हुई , लेकिन उसने राजा की सलाह मान ली। जब वह आवारा कुत्तों को इकठ्ठा  कर बुदा के बाज़ार में  पहुंचा तब राजा भी अपने मंत्रिओं के साथ बाज़ार में आया और उसने ग़रीब किसान से महंगे दामों में कई कुत्ते ख़रीदे।  राजा ने अपने मंत्रिओं को भी कुत्ते ख़रीदने के लिए कहा।  किसी में इतना साहस नहीं था कि राजा की बात को टालते।  सभी मंत्रिओं ने  कुत्ते ख़रीदे और पैसे दिए।

ग़रीब किसान बहुत से पैसों के साथ गावँ लौटा और उसने सबको अपनी कहानी सुनायी कि वह कैसे अमीर बन गया था। अमीर पड़ोसी ईर्ष्या से जल-भुन गया। उसने  अपने बैल , घोड़े ,घर आदि सब कुछ बेच कर ख़ूबसूरत नस्ली कुत्ते ख़रीदे और उन कुत्तों को लेकर बुदा गया।

उस समय बाज़ार में किसी का भी मूड कुत्ते ख़रीदने का नहीं था । अमीर किसान राजा के महल की तरफ़ गया और पहरेदार से बोला - "राजा को बताओ कि मैं शानदार नस्ली कुत्ते बेचने के लिए लाया हूँ "। जवाब आने में देर नहीं लगी। महल के पहरेदार ने उससे कहा - " मात्याश  राजा तुम्हारा ही इन्तिज़ार कर रहे थे ओर उन्होंने तुम्हारे नाम सन्देश भेजा है कि बुदा में कुत्ता का बाज़ार सिर्फ एक बार लगा था "।

 तुम जहाँ से आये हो वही लौट  जाओ।


                                   ***
अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस






पुस्तक का नाम - हंगेरियन  लोक कथाएँ 

लेखक - Anonymous 

अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

प्रकाशक - मंजुली प्रकाशन , नयी दिल्ली 

प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण , 2006

कॉपीराइट - अनुवादक 

पृष्ठ - 32

मूल्य - ( 30/ INR  ( तीस रुपए केवल )

Binding -  Paperback

आवरण एवं चित्रांकन   - Rozila Hummel

Size - डिमाई 5.3 " x 8.1 "

ISBN - 81-88170-28-3






प्रस्तुतिइन्दुकांत आंगिरस


Monday, November 7, 2022

गीत - अपनी ही साँसों से मुझे इक गीत चुराना है

 

गीत 


अपनी ही   साँसों से मुझे   इक गीत चुराना है 

सूनी इन राहों पे मुझे   इक दीप जलाना है 


कल शायद न मिल पाऊँ दुनिया के मेले में 

पर याद बहुत आऊँगा तुमको मैं अकेले में 

इक बात मेरी सुन लो , इक बात मेरी गुन लो 

कौन बिछड़ कर मिलता है दुनिया के मेले में


इन गीतों से ग़म का ,तो रिश्ता ये  पुराना है 

अपनी ही   साँसों से ....


मन बिखरा तन बिखरा , बिखरे जीवन के सपने 

हर    शख़्स लगा है अब   तो ख़ुद अपने से डरने 

सबका मैं आघात सहूँ ,किस से  दिल की बात कहूँ

अपनों   में   बेगाने    निकले     बेगानों   में अपने 

 

ग़ैरों को ही अब तो मुझे ये  राज़  सुनाना है 

अपनी ही   साँसों से ....


मेरे इस सूने मन में इक मीत रहा करता था 

अक्सर दिल की बात मुझसे वो कहा करता था 

अब तो वो भी रूठ गया , जैसे सपना टूट गया 

अश्क मेरी आँखों से , जो रोज़ बहा करता था 


अपने इन अश्कों से मुझे इक दाग़ मिटाना है 

अपनी ही   साँसों से ....



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 





Saturday, November 5, 2022

मौत का एक दिन मुअय्यन है , नींद क्यूँ रात भर नहीं आती

 


बक़ौल मिर्ज़ा ग़ालिब  - मौत का एक दिन मुअय्यन  है , नींद क्यूँ  रात भर नहीं आती 


मौत का दिन ही तय नहीं होता बल्कि जगह और वक़्त भी पहले से ही तय होता है।  फ़ारसी में एक पुरानी कहावत है कि इंसान का दाना - पानी और उसकी मौत उसको खींच कर ले जाती है , मसलन अगर मेरी मौत यहाँ से ५००० किलोमीटर दूर किसी ख़ास जगह और वक़्त पर लिखी है , तो मैं उस जगह और उस वक़्त पर वहाँ  पहुँच जाऊँगा। इंसान के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि वह सही वक़्त और जगह पर मरे और अगर ऐसा नहीं होता तो उसके परिवार और दोस्तों को शिकायत रह सकती है। असल में इंसान की मौत  के बारे में सब कुछ पहले से तय होता है लेकिन इंसान को इसका इल्म नहीं होता और होना भी नहीं चाहिए , अगर ऐसा हुआ तो इंसान मौत को भी धोका देने की कोशिश करेगा। कुछ लोगो का तो ये भी मानना है कि मौत  सिर्फ़ एक ठहराव होती है और इस ठहराव के बाद इंसान फिर से ज़िंदा हो जाता है। 


बक़ौल मीर तक़ी मीर

मुर्ग मांदगी का एक वक़्फ़ा है 

यानी आगे चलेंगे दम ले  कर 


इस बात को यूँ भी समझा जा सकता है कि वास्तव में मौत सिर्फ़ बदन की  होती है रूह की नहीं , यानी आत्मा कभी नहीं मरती। गीता में भी यही कहा गया है कि आत्मा सिर्फ़ चोला बदलती है। 


 मौत के बारे में लोगो के अलग अलग ख़्याल है , उर्दू शाइरी में आपको मौत पर हज़ारों शे'र मिल जायेंगे। 


बक़ौल कृष्ण बिहारी नूर -


 ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है , 

 दूसरा कोई रास्ता ही नहीं। 


मौत , ज़िंदगी कि मंज़िल तो है लेकिन  यह मंज़िल ऐसी है जहाँ पहुँच कर किसी को ख़ुशी नहीं मिलती बल्कि मिलता है अंतहीन दर्द। 

जब दूसरा कोई रास्ता ही नहीं तो क्यों नहीं हम इसी रास्ते को खुशगंवार बना ले और इस रास्ते पर मोहब्बत के फूल उगाते चले जिससे कि आने वाली नस्लों को यह रास्ता काटने में दुश्वारी न हो।



प्रस्तुति - इन्दुकांत आंगिरस  

ग़ज़ल - अकसर अपनी राख उड़ा कर बन जाते हैं तारे लोग


अकसर अपनी राख उड़ा कर बन जाते हैं तारे लोग 

फिर अनजान नगर में जा कर छुप जाते हैं सारे लोग 


अपनी अपनी ज़ात बना कर रख लेते हैं प्यारे नाम 

फिर उनमे से बन जाते हैं मीठे , खट्टे , खारे लोग 


हाथ अगर तुम रख दो सर पे बन जाते हैं बिगड़े काम 

सर पर रख दो हाथ हमारे हम हैं ग़म के मारे लोग 


हम है बहते दरिया जैसे अपना रैन बसेरा क्या 

चलते रहना काम हमारा हम ठहरे बंजारे लोग 


आई है फिर याद किसी की आज ' बशर ' तड़पाने को 

क्यों इस  दिल में भर जाते हैं   चुपके से    अंगारे लोग  



शाइर - बशर देहलवी 

Friday, November 4, 2022

ग़ज़ल - बरसाए सिर्फ़ फूल ही कब है बहार ने

 


बरसाए सिर्फ़   फूल ही   कब है बहार ने 

बख़्शा है दिल को दर्द भी परवरदिगार ने 


फ़ुर्सत कहाँ उन्हें जो वो आएँगे इस तरफ़ 

आ मिल गले मुझी   से कहा इन्तिज़ार ने 


मिलता कहा से हमको दरे यार का पता 

छोड़े हैं नक़्शे पा भी न देखों ग़ुबार ने 


फूलों से गुफ़्तगू की तमन्ना तो इक तरफ़  

रोने दिया न हमको  तो उजड़े दयार ने 


सीने में इक आग भड़कती थी ऐ ' बशर ' 

उसको   बुझा दिया  है दिल बेक़रार ने 




शाइर - बशर देहलवी 

ग़ज़ल - अब एक फूल भी उगता नहीं निगाहों में

 

अब एक फूल भी उगता नहीं निगाहों में 

बबूल  इतने  कोई  बो  गया  है  राहों में 


लिखूँ भी कैसे हथेली पे दास्तां अपनी 

हैं लफ़्ज़ डूबे हुए सब के सब गुनाहों में 


कहे किसे कि वो क़ातिल है और लुटेरा है 

हर एक शख़्स मसीहा है क़त्लगाहों में 

 

इसे तो और कही जा कर तुम तलाश करो 

स्कूने दिल न मिलेगा किसी की चाहो में 


कहाँ वो ताब रही दिल में अब ' बशर ' बाक़ी 

समेट लूँ मैं जहाँ भर को अपनी बाँहों में


शाइर - बशर देहलवी 

   


ग़ज़ल - घर जलाओ नहीं दुश्मनी के लिए

 


घर जलाओ  नहीं   दुश्मनी के लिए 

इक ज़रूरत है घर आदमी के लिए 


यार तुझ सा नहीं फिर मिलेगा मुझे 

दुश्मनी   भी तेरी   दोस्ती के लिए 


हर ख़ुशी तो मिली ज़िंदगी में मगर 

ज़िंदगी न मिली   ज़िंदगी के लिए 


झिलमिलाते हुए कुमकुमों  को न गिन

इक दिया है   बहुत   रौशनी के लिए 


इश्क़ मुझको नहीं ज़िंदगी से मगर 

ज़िंदगी है   मेरी  बंदगी के    लिए


कारवाँ भी गया , हमसफ़र भी गए 

वक़्त रुकता नहीं है किसी के लिए 


आइना   तो सबब   पूछता है ' बशर '

बन संवर के न चल हर किसी के लिए  





शाइर - बशर देहलवी   


ग़ज़ल - अपनी आँखों में बसा कर देखो

 अपनी आँखों   में बसा   कर देखो 

ग़म को पलकों पर सजा कर देखो 


इतना मुश्किल  भी  नहीं  है यारों 

दिल किसी बुत से लगा कर देखो 


हो ही जायेगा उजाला हर सू 

प्यार की शम्ह जला कर देखो 


यूँ ही पत्थर न उठा  कर फैंको 

शीश ए दिल पे गिरा कर देखो 


ऐ ' बशर ' चैन से बैठो घर में 

बेवफ़ाओं को भुला कर देखो  


शाइर - बशर देहलवी   


ग़ज़ल - बिना हो नींद पे जिनकी वो मेरे ख़्वाब नहीं

 

बिना हो नींद पे जिनकी वो मेरे ख़्वाब  नहीं 

मैं अपने आप में इक लफ़्ज़ हूँ किताब नहीं 


मेरे सवाल पे चुपके से मुँह के फेर लिया 

ये बेरुख़ी   तो मेरा   हासिले जवाब नहीं 


किसी की आँख से निकला हुआ मैं आँसू हूँ 

मैं फैल जाऊँ तो   मेरा कोई  हिसाब नहीं 


उतर के आई   है आँगन   में चाँदनी मेरे 

अगरचे अर्श पे अब कोई माहताब नहीं 


घुली हो जिसमे न साक़ी की चश्मे नाज़ ' बशर '

भले हो चीज़   वो कुछ भी   मगर शराब  नहीं। 




शाइर - बशर देहलवी   


ग़ज़ल - तीर जितने चले रक़ीबों के

 तीर   जितने   चले   रक़ीबों के 

दिल में जा कर चुभे हबीबों  के 


हम ही ढोते रहे  सलीब मगर 

हम ही वारिस नहीं सलीबों के 


हम भिखारी किसे कहे यारों 

सब है राजा  यहाँ नसीबों के 


आप तो सिर्फ़ इक  सहारा थे 

बन गए कब ख़ुदा ग़रीबों के 


आज घर घर में हैं अदीब ' बशर '

कौन घर  जाये   अब अदीबों के  



शाइर - बशर देहलवी 

Thursday, November 3, 2022

पुस्तक परिचय - पकना एक कहानी का ( लघुकथा संग्रह )







पकना एक कहानी का  , लघुकथा संग्रह की लेखिका शोभना श्याम एक प्रतिष्ठित लेखिका  हैं। यह लेखिका का दूसरा लघुकथा संग्रह है।  इस लघुकथा संग्रह में कुल ७१ लघुकथाएँ है। पुस्तक की भूमिका प्रसिद्ध साहित्यकार बलराम अग्रवाल ने लिखी  है।  संग्रह की अधिकांश लघुकथाएँ सामजिक सरोकारों से जुडी हैं और समाज में व्याप्त  विभिन्न कुरीतियों और असंगतियों को उजागर करती हैं। बलराम अग्रवाल ने अपनी भूमिका में लिखा है -" कुल मिलाकर शोभना की लघुकथाएँ भीड़ में अलग खड़ी दिखाई देती हैं , गुणवत्ता के प्रति आश्वस्त करती हैं। 
बानगी के रूप में इसी लघुकथा संग्रह से प्रस्तुत है एक लघुकथा -


                                                          कुतरे हुए नोट

 

जैसे-जैसे आर्डर होती डिशेस की संख्या बढ़ती जा रही थी, प्रशांत की बेचैनी भी उसी अनुपात से बढ़ रही थी, उसे ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने उसके दिल को मुठ्ठी में जकड़ लिया है और दबाता ही जा रहा है । 

वह कॉरपोरेट में नया-नया आया था और एक अघोषित नियम के चलते उसे स्टाफ को 'न्यू जॉइनिंग ट्रीट' देनी पड़ी । काफी कोशिश की उसने टालने की । अपनी आर्थिक स्थिति की तरफ इशारा भी किया, लेकिन किसी को उस सब से कोई मतलब नहीं था।

उनकी ज़िद  और फ़िकरों का लब्बो-लुआब यह था कि कॉरपोरेट में इतना कम कोई नहीं कमाता कि एक ट्रीट न दे सके । ज़ियादा   न सही, एक-एक ड्रिंक और हल्के  - फुल्के स्नैक्स तो कोई भी अफोर्ड कर सकता है। अब वह कैसे बताता कि उसकी ठीक-ठाक तनख़्वाह  उन सब की तरह घर में एडीशनल नहीं बल्कि एकमात्र है । उसके पास न एक अदद पिता है, न पिता का घर । हिंदी फ़िल्मों  की तर्ज़ पर एक माँ, एक कुँवारी बहन और एक खड़ूस मकान मालिक है । लेकिन न तो वह कह पाया और कहता भी तो वे सुनते नहीं । कॉरपोरेट की "ईट , ड्रिंक एंड बी प्रिपेयर फॉर हार्ड वर्क" वाली नीति में इस प्रकार का कहना सुनना होता ही नहीं।

 सो अब वे सब इस हाई-फाई बिल्डिंग में ही बने एक रेस्ट्रॉं में बैठे हैं। उसके कुछ खा न पाने पर उन्होंने कंजूसी का लेबल लगा दिया है । ट्रीट खत्म हो चुकी है। वह बड़ी लाचारी और बेकसी से देख रहा है- हर प्लेट में कुछ कुतरे हुए नोट पड़े हैं।

-शोभना श्याम
 



पुस्तक का नाम - पकना एक कहानी का   ( लघुकथा संग्रह )


लेखक -  शोभना श्याम

प्रकाशक - अधिकरण प्रकाशन 

प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण , 2018

कॉपीराइट - शोभना श्याम 

पृष्ठ - 128

मूल्य - 350/ INR  ( तीन  सौ पचास रुपए केवल )

Binding - Hardbound

Size - डिमाई  4.8 " x  7.5 "

ISBN - 978 -93-87559-44-8

आवरण  - हिमांशी मित्तल





                                                                                                   प्रस्तुति -इन्दुकांत आंगिरस 

पुस्तक परिचय - लिथुआनियन लोक कथाएँ ( हिन्दी अनुवाद )

 







लोक कथाएँ  अक्सर किसी भी राष्ट्र की संस्कृति की संवाहक होती हैं।  हज़ारों साल से चली आ रही इन  लोक कथाओं का अपना संसार होता हैं। विभिन्न देशों की लोक कथाएँ   पढ़ कर हम सभी का ज्ञान बढ़ता है।  लिथुआनिअन लोक कथाओं का यह अनुवाद मैंने मूल लिथुआनियाई भाषा के ज़रिये अपने लिथुआनियाई चित्रकार मित्र ज़ीता विलुतीते की मदद से किया।  इस पुस्तक का विमोचन 2007 में बैंगलोर में संपन्न हुआ जिसमे ज़ीता विलुतीते भी मौजूद थी।  इस अवसर पर उनके चित्रों की प्रदर्शनी भी लगी थी। इसकी भूमिका भी ज़ीता विलुतीते ने लिखी है। पुस्तक में कुल 10 लोक कथाओं का अनुवाद शामिल है। 


पुस्तक का नाम - लिथुआनियन लोक कथाएँ 

लेखक - Anonymous 

अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

प्रकाशक - मंजुली प्रकाशन , नयी दिल्ली 

प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण , 2007

कॉपीराइट अनुवादक 

 पृष्ठ - 32

मूल्य ( 30/ INR  ( तीस रुपए केवल )

Binding -  Paperback

आवरण एवं चित्रांकन   - Zita Vilutyte

Size - डिमाई 5.3 " x 8.1 "


ISBN - 81-88170-50-X






प्रस्तुतिइन्दुकांत आंगिरस



 



Wednesday, November 2, 2022

ग़ज़ल - धुआं सा बन के मुझे फिर बिखर ही जाना है


धुआं सा बन के मुझे फिर बिखर ही जाना है 

जिधर से आया था मैं फिर उधर ही जाना है 


हर एक बात वो कहता तो है यक़ीं से मगर 

मैं जानता हूँ कि उसने मुकर ही जाना है 


भड़क उठी है जो सीने मैं आग फुरकत की

उसे भी दिल को जला कर गुज़र ही जाना है 


गुज़र ही जाएगी ये रात भी किसी सूरत 

चढ़ा हुआ है जो दरिया उतर ही जाना है 


बुला रहा है मुझे हर कोई करीब अपने 

मैं जानता हूँ कि मुझको बिखर ही जाना है 


समझ में ये नहीं आता कि बरहमी क्यों है  

सराए फ़ानी से सबको गुज़र ही जाना है 


वो मान जाएँगे , आएंगे , पास बैठेंगे 

मेरी दुआ ने ' बशर ' काम कर ही जाना है 



शाइर - बशर देहलवी  


ग़ज़ल - काँटों का पहरा होता है


 काँटों का पहरा होता है

फूल जहाँ सोया होता है 


जीवन के टेढ़े रास्तों पे 

थम थम कर चलना होता है 


दुश्मन तो होता है दुश्मन 

अपनों से बचना होता है 


हर आंसू  के पीछे देखो 

ग़म का इक दरिया होता है 


मिल जाता है उससे आख़िर 

जिससे दिल मिलना होता है 


यूँ तो तुम भी ग़ैर नहीं हो 

' अपना फिर अपना होता है '


रहबर से रहज़न है बेहतर 

वो धुन का पक्का होता है 


टूट गया तो रोना कैसा 

सपना कब अपना होता है 


बात निकलती है जो दिल से 

उसका असर बड़ा होता है 



शाइर - बशर देहलवी   

ग़ज़ल - ये ज़मी तो हैं ज़मी , वो आस्मां हिल जाएगा

 

ये ज़मी तो हैं ज़मी , वो आस्मां हिल जाएगा

दिल का भूले से कभी जो आबला छिल जाएगा  


फूल ही फिर तो जहां में हर तरफ़ खिल जाएँगे  

फूल सा चेहरा कभी जो आपका खिल जाएगा 


आएगी फसलें बहारां जब कभी ऐ दोस्तों 

चाक इस दिल का गरेबां देखना सिल जाएगा 


कब तलक बैठे रहोगे मंज़िलों का ग़म लिए 

ढूंढ़ने निकलोगे जब भी रास्ता मिल जाएगा 


तीरगी ही तीरगी छा जाएगी चारों तरफ़ 

रौशनी दे कर जहां को जब मेरा दिल जाएगा 


मिल गए जो वो 'बशर' कल फिर मुझे इस राह में 

अजनबी दिल को मेरे इक आशना मिल जाएगा 




शाइर - बशर देहलवी   

Tuesday, November 1, 2022

ग़ज़ल - घर बसाने हम चले थे , दिल लुटा कर रह गए

 घर बसाने हम चले थे , दिल लुटा कर रह गए 

ग़म हमारी   ज़िंदगी पर   मुस्कुरा कर रह गए 


दूर हो पाई   न फिर भी   आस्मां की तीरगी 

रफ़्ता रफ़्ता सब सितारे जगमगा कर रह गए 


जब सुनानी ही पड़ी ख़ुद   उनको अपनी दास्तां 

दिल की मजबूरी पे अपनी तिलमिला कर रह गए


ख़ुद को भी लगने लगे जब अजनबी तो दोस्तों 

आईने के  सामने हम   सर झुका कर रह गए 


याद उनकी जब भी आई , झूमती गाती ' बशर '

एक मीठी सी ग़ज़ल हम   गुनगुना कर रह गए 



शाइर - बशर देहलवी 




ग़ज़ल - गुम चिराग़ों से कभी जब रौशनी हो जाएगी

 


गुम चिराग़ों से कभी जब रौशनी हो जाएगी 

हर तरफ़ बस तीरगी ही तीरगी हो जाएगी 


दाग़ सीनों के जला कर आएगी शब देखना 

फिर अंधेरों में  कही पर रौशनी हो जाएगी 


कौन   डालेगा   गले में    इसके बाँहें दोस्तों 

जब गुनाहों की नज़र ये ज़िंदगी हो जाएगी 


इस कदर भी आँच तुम देना न अपने शौक़ को 

दर्द ए सर वरना तुम्हारी दिल लगी हो जाएगी 


मंज़िलें खिंच कर चली आएँगी फिर तो ऐ ' बशर '

जब थकानों से   सफ़र की   दोस्ती हो जाएगी 


ग़ज़ल - मुझे जो छोड़ कर राहों में यूँ तनहा खड़ी है



 मुझे जो छोड़ कर राहों में यूँ  तनहा खड़ी है 

बड़ी बेदर्द है  अपनी ही   मेरी    ज़िंदगी है 


मुझे हर सम्त आते हैं नज़र शोले ही शोले 

न जाने दिल में कैसी आग सी मेरे लगी है 


समुन्दर भी बुझा सकता नहीं है जिस को यारों 

कभी वो तिश्नगी भी एक क़तरे से बुझी है 


न जाने कौन सा डर है जो उसको खा रहा है 

मेरी उम्र रवां मुड़ मुड़ के मुझको देखती है 


जिसे मैं ग़म ज़माने का समझता था अभी तक 

अकेले   वो मेरी ही   ज़िंदगी   की   बेकसी है 


" बशर " सब बेवफ़ा है कौन मिलता है किसी से 

शबे - हिज्रा ये   मेरे कान में   कह कर   गई है  




शाइर - बशर देहलवी