Saturday, December 16, 2023

कविता - पहाड़ियों के रंग

 कविता - पहाड़ियों  के रंग 


जिस तरह  सूरज की किरणों को छू  कर 

बदल जाता है पहाड़ियों का रंग 

कभी सुनहरी ,कभी चम्पई , कभी नीली

कभी ताम्बई  कभी काली , कभी पीली 

फ़ज़ा में घुलते इन रंगो को देख कर  

कुदरत भी रह जाती है दंग ,

बदलते इन रंगों के साथ साथ 

बदलते हैं पहाड़ी औरत के मन के रंग 

उसका इंद्रधनुषी मन 

गाने लगता है प्रेम के गीत 

कभी डसती  है उसे विरह की पीड़ा 

कभी बनती  है राधा , कभी बनती है मीरा 

कभी बदरी  की बूंदों सा भीग जाता  उसका बदन 

कभी तड़पा जाती  उसे पीले चाँद की छुअन 

कभी लाल गुलाब सा खिल उठता  उसका चेहरा 

कभी काली रात का सहती वो  पहरा 

कभी सुरमई सांझ में होती तब्दील 

कभी तन्हाईयाँ  जाती उसको लील 

कभी सुनहरे ख्वाबो को बुनती 

कभी टूटी किरचों  को चुनती 

कभी नीले आकाश पर लफ़्ज़े मुहब्बत लिखती 

कभी उसकी किस्मत पर रोती धरती 

कभी चम्पई शाम के सिरहाने 

जब  ज़िंदगी लगी  गुनगुनाने 

मुझे बहुत याद आई वो पहाड़ी औरते 

जिनके  ताम्बाई बदन की आंच से 

चाँद की  किरणे भी गरमा जाती हैं 

वो रंग - बिरंगी पहाड़ी औरते 

किसी जादूगरनी की मानिंद 

दुनिया के ज़र्रे ज़र्रे को 

अपनी मीठी मुस्कान  से   सजा जाती हैं । 


कवि  -इन्दुकांत आंगिरस 




Thursday, December 14, 2023

कविता - पहाड़ी औरत

 पहाड़ी औरत 


पहाड़ी औरत हो सकती है 

उबड़ खाबड़ 

एक पहाड़ी की तरह 

लेकिन होती है मजबूत उसकी टाँगे ,

पहाड़ियों से 

रोज़ चढ़ती - उतरती 

इस औरत के क़दम 

बना देते हैं पहाड़ियों पर 

एक ऐसी पगडण्डी 

जो उसके बदन की तरह  

होती है  घुमावदार

और हर सफ़री से करती हैं प्यार ,

शहरी औरतों की तरह 

इनका बदन लिजलिजा  नहीं होता 

सौंदर्य रूप प्रसाधनों से 

इनका कोई वास्ता नहीं होता 

पहाड़ी औरत होती हैं खुदरंग 

इसे देख नदी ,  पहाड़ , झरने , आकाश 

सब रह जाते हैं दंग ,  

जब दिन भर की मेहनत के बाद 

रात की ख़ामोशी में 

खोलनी पड़ती  हैं उसे अपनी  मजबूत टांगे  

एक पुरुष के अभद्र इशारे से  

तब बहुत रोता हैं आसमान 

रोते हैं  चाँद - सितारे 

रोती है ये धरती 

रोती है वही पहाड़ी पगडण्डी, 

लेकिन अगली सुबह 

रात की चादर को छोड़ कर 

जब  मुस्कुरा उठती है पहाड़ी औरत ,

 तो कुदरत के साथ साथ  

मैं भी हो जाता हूँ हैरान 

 एक पहाड़ी नदी की मानिंद 

खिलखिला उठता है आसमान । 



कवि  -इन्दुकांत आंगिरस 

Sunday, December 10, 2023

लघुकथा - प्रजातंत्र

 प्रजातंत्र

प्रजातंत्र एक ऐसी प्रणाली होती  है जिसमें नेता लूटते हैं प्रजा को और प्रजा स्वयं को लुट जाने देती हैं। चुनाव के समय नेता चाँद देने का वायदा करते हैं लेकिन प्रजा को रोटी भी नहीं मिलती। प्रजा के टूटे सपनों की ईंटों पर नेताओं के महलों की बुनियाद पड़ती है। नेताओं के भाषण मीडिया पर चहकने लगते हैं और आम आदमी की आवाज़ उन भाषणों के शोर  में खो जाती है। प्रजातंत्र का शिक्षक शिक्षा की ख़रीद - फ़रोख़्त करने से नहीं चूकता , फिर भी प्रजातंत्र उससे नहीं रूठता। जहाँ बोलने की आज़ादी का मतलब गला फाड़ कर चिल्लाना,जहाँ ईमानदारी का मतलब अपने अलावा सबको बेईमान समझना ,जहाँ साहूकारी  का मतलब है नाप तोल कर  लूटना।  प्रजातंत्र एक ऐसी जादूनगरी होती हैं जिसमें रहने वाले बापू के तीन बन्दर भी बरगला उठते  हैं हैं, यानी गूंगे , बहरे और अंधे बन जाओ और प्रजातंत्र का जश्न मनाओ । 

मैं ऐसी ही एक जादूनगरी में रहता हूँ , और आप ? आप कहाँ रहते हैं ?




लेखक - इन्दुकांत  आंगिरस 


लघुकथा - कलाकार



लघुकथाकलाकार 


 ज़िंदगी की तंगहाली से परेशान हो कर शिल्पकार ने अपनी नवीनतम कृति को भीगी आँखों  से  निहारा। अगर घर में रोटी के लाले न होते तो वह इस मूर्ती को बेचने  की कभी न सोचता।  नियत समय पर मूर्ति का ख़रीददार आ पहुँचा ।  ग्राहक ने ग़ौर से  मूर्ती का मुआयना किया 

और एक नज़र मूर्तिकार के टूटे -फूटे घर पर डाली। ग्राहक समझ गया था कि मूर्तिकार मजबूरी में मूर्ती बेच रहा है और ग्राहक जोकि पेशे से व्यापारी था , किसी की भी मजबूरी का फायदा उठाना बख़ूबी जानता था।  यूँ तो कला की कोई क़ीमत नहीं होती लेकिन ग्राहक ने उस मूर्ती की क़ीमत इतनी अधिक  लगा दी कि शिल्पकार ने आनन् - फानन में मूर्ती उसको बेच दी ।  

कुछ महीनों बाद शहर में अंतर्राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी लगी तो शिल्पकार भी वहाँ गया। प्रदर्शनी में अपनी उसी मूर्ती को देख कर उसे ख़ुशी हुई लेकिन मूर्ती पर अपने नाम के लेबल के ऊपर अब उस ग्राहक के नाम का लेबल देख कर उसका दिल टूट गया। वह थके क़दमों से कला दीर्घा से बाहर जाने लगा। दरवाज़े के पास मीडिया के लोग उस ग्राहक व्यापारी का साक्षात्कार ले रहे थे। उस   दिन उसे मालूम पड़ा कि किस तरह कुछ कला व्यापारी कला का व्यापार करते करते व्यापारी से कलाकार बन जाते है। 



लेखक - इन्दुकांत  आंगिरस 

Saturday, December 9, 2023

लघुकथा - मोमेंटो

 लघुकथा  - मोमेंटो 


लेखक के घर में क़दम रखते ही पत्रकार को इस बात का एहसास हो गया कि लेखक सिर्फ लेखक नहीं बल्कि  एक बड़े लेखक हैं।  पूरे ड्राइंग रूम में मोमेन्टोस सजे हुए थे, यहाँ तक कि दीवारें भी मोमेन्टोस से ढकी पड़ी थी। साक्षात्कार के दौरान पत्रकार ने बड़े सम्मान से सम्मान के बारे में प्रश्न उछाला " देख रहा हूँ कि  आपका ड्राइंग रूम मोमेन्टोस से भरा हुआ है , क्या किसी  लेखक का मुकाम उसके मोमेन्टोस की संख्या से आँका जा सकता है ? 

" यक़ीनन , जिसको जितने अधिक सम्मान मिलेंगे , जितने मोमेन्टोस मिलेंगे , वो उतना बड़ा लेखक होगा।  " - बड़े लेखक ने दृढ़ता से जवाब दिया। 

-"  शायद आपको मालूम हो कि नसीरुद्दीन शाह ने इस तरह के सम्मानों और मोमेन्टोस को आयोजित - प्रायोजित की श्रेणी में रखा है और उन्होंने अपने तमाम मोमेन्टोस अपने फार्म हाउस के दरवाज़ों पर हैंडल बना कर लगा दिए हैं।  इसके बारे में   आपका  क्या विचार है ? " 

- " जी , सुना था मैंने भी , शायद उस समय नसीरुद्दीन शाह  के पास पैसो की कमी रही होगी सो उन्होंने अपने मोमेन्टोस को दरवाज़ों पर जड़वा दिया , लेकिन मेरे पास पैसो की कोई कमी नहीं है। "

बड़े लेखक का जवाब सुन कर पत्रकार चाह  कर भी लेखक के सामने ठहाका तो नहीं लगा सका लेकिन उसके होंटो पर एक लम्बी मुस्कान तो खिल ही गयी थी। 


- इन्दुकांत आंगिरस 

लघुकथा - रिकॉर्ड

 लघुकथा  - रिकॉर्ड 


पिछले दिनों दुनिया में रिकॉर्ड बनाने की होड़ लग गयी। देशज और  अंतर्राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाने के जुनून ने इन आँखों को कैसे कैसे मंज़र  दिखाए। कोरोना के वक़्त में  लावारिस लाशों के दाह संस्कार का बना अद्भुत रिकॉर्ड। लेकिन रिकॉर्ड तो रिकॉर्ड होते हैं , इतनी आसानी से नहीं बनते। असल में हुआ यूँ कि वर्ल्ड रिकॉर्ड बुक में नामांकन की अंतिम तिथि आ गयी लेकिन रिकॉर्ड बनाने के लिए अभी एक लावारिस  लाश  और चाहिए  थी लेकिन कही से भी किसी के भी मरने की ख़बर नहीं मिल रही थी। संस्था के निदेशक महोदय गंभीर मुद्रा में बैठे चिंतन कर रहे थे। अब क्या होगा ? अगर कल तक वर्ल्ड रिकॉर्ड का फॉर्म नहीं भरा तो एक साल की लिए बात टल जाएगी और क्या पता अगले साल इतनी मौत हो या नहीं।  तभी द्वारे आवाज़ लगाते , मैले कुचले फटे कपडे पहने एक बूढा  लाचार भिखारी को देखते ही निदेशक की आँखें चमक उठी  और उनका गुर्गा  उनका इशारा  समझ अपनी तलवार की धार तेज़ करने में लग गया । संस्था का नाम वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में सम्मिलित हो गया था लेकिन उस दिन के बाद वो बूढा  लाचार भिखारी मोहल्ले में दिखाई नहीं दिया। 



लेखक -  इन्दुकांत आंगिरस  

   

  

Monday, November 27, 2023

लघुकथा - अकेले में.....


 अकेले में.....


नगर के प्रतिष्ठित हिन्दी समाचार पत्र के सम्पादक के निमंत्रण पर समाचार पत्र के परिसर में ही काव्य - गोष्ठी का आयोजन था ।  सभी आमंत्रित कवि स्वयं को गौरान्वित अनुभव कर रहे थे। काव्य - गोष्ठी  के बाद जलपान , गपशप और फिर विदाई का वक़्त। सम्पादक से विदा लेते वक़्त खुले बालों वाली उस युवा कवियत्री ने संपादक से हाथ मिलाते हुए कहा था - " मुझे ,आप से अकेले में कुछ बात करनी थी "। शेष कवि अख़बार के दफ़्तर का ज़ीना उतरने लगे  और सम्पादक युवा कवियत्री को अपने निजी कमरे में ले गया । 

उस वक़्त मेरे लिए भी इस बात का अन्दाज़ा लगाना मुश्किल था कि कवियत्री ने अकेले में संपादक से क्या बात करी होगी  लेकिन  अगली सुबह अख़बार के मुखपृष्ठ पर उसी युवा कवियत्री की खिलखिलाती तस्वीर और उनकी लम्बी कहानी " अकेले में ..." के  प्रकाशन ने उस बंद कमरे की गुफ़्तगू को परत दर  परत खोल दिया था। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस       

 

  

Monday, October 23, 2023

MUKTAK -SHER_

 पत्थर से  शीशा बन जाना सब के बस की बात नहीं 


सीने में ग़म को दफ़नाना सब के बस की बात नहीं 


ग़ैरों के रिसते ज़ख़्मों पर कोई भी हँस लेता है


अपने ज़ख़्मों पर मुस्काना सब के बस की बात नहीं 




छलके हैं  मैख़ाने इनमें 

गुज़रे कई ज़माने इनमें 

ये आँखें हैं झील सी गहरी

डूबे लाख दीवाने इनमें 



इश्क़ को तुम इल्ज़ाम न दो

यूँ आँसू इन्आम न दो

भूल गया हूँ ख़ुद को मैं 

अब मुझको तुम नाम न दो


मुहब्बत को दिल में बसाये तू रखना

सदा शम्अ-ए-उल्फ़त  जलाये तू रखना

मिलन दो दिलों का न आसान होता

मगर दिल से दिल को लगाए तू रखना



दिल से दिल का सिलसिला तो निकले 

रूह का ये  आबला तो निकले 

रुकता है मेरा सफ़र तो क्या है

रहगुज़र से  क़ाफ़िला तो निकले


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नहीं बाहर तलाशें बीज इनके

शुरू होते हैं घर से फ़ासिले सब

1222-1222-122

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तोड़ डाला आपने इसको भी क्यों

ये मेरा दिल तो कोई वा'दा न था 

2122-2122-212

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हादिसा हर बार कुछ ऐसा हुआ

ज़ख़्म उसने  जब छुआ मेरा छुआ 

2122- 2122 - 212

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ज़माना रहा है मुहब्बत का दुश्मन

मुझे चाहा उसने ये कम तो नहीं है

122×4

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लगाये हैं दिल से यूँ ही ज़ख़्म मैंने
नहीं मुफ़्त मिलती कोई शै यहाँ पर
122×4
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और सबूत अनाड़ीपन का क्या होगा
उसकी आँखों में उतरें और  डूब गए 
22 22   22 22  22 2

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बताऊँगा मजबूरी इक दिन मैं अपनी
न समझें मुझे बेवफ़ा आप यूँ ही
122×4
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रास्ते पर मैं ही खुद आता नहीं
मंज़िलें तो मिलने को बेताब हैं

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क्या भरोसा याद ये तुमको करे
वश (बस) नहीं रहता है इस दिल पर मिरा
2122-  2122  -212
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लिया है लहर ने लहरों का चुम्बन
किनारे तो कभी मिलते नहीं हैं
1222  1222  122

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धूप तो दीवार से उतरी मगर
है अना दीवार सी अब तक खड़ी
2122-2122-212
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कभी रेत का घर बिखरता जो देखूँ
बिखरने को मैं  भी मचलता हूँ ख़ुद में
122-122-122-122 

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यारों ने तो ख़ूब पिलाकर मस्त किया
कौन मुझे छोड़ेगा मेरे घर तक अब
22-22   22-22  22-2

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याद आया इक पुराना वक़्त मुझको 
जब सुखाने छत पे कपड़े आ गए वो
2122-2122-2122

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आईने पर न इतना यक़ीं कीजिए  
वक़्त के साथ ये भी बदल जाएगा
212×4
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न इतने प्यार से हमको निहारें 
अभी कुछ और जीने की है चाहत
1222 1222 122
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आँखों से होकर पहुँचता इश्क़ दिल तक
उम्र-भर समझे नहीं ये बात हम क्यों 
2122-2122-2122
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ख़्वाब जबसे ये जेबी हुए
अश्क मेरे फ़रेबी हुए
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जब तू ग़ैरों से जाकर जुड़ा
अश्क भी भाप बनकर उड़ा
212×3
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हर तरफ बिखरी हुई तन्हाइयाँ हैं 
परछाइयों में  क़ैद कुछ  परछाइयाँ हैं 
2122-2122-2122
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याद तुम्हारी जब भी आए
ख़ूं के आँसू हमें रुलाए
22 22- 22 22
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आशाओं की नैया जबसे डूबी है
क्या आईना  देखें, क्या बाल सँवारें
22 22        22 2      2  222
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तुमको मैं ख़ुद भूल न पाया
कैसे कह दूँ मुझे भुला दो
22 22 22 22
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रुके हैं जहाँ कारवां सबके थककर
वहीं से शुरू होता अपना सफ़र है
122-122-122-122

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तब ही दिल का मिरे जल उठा आशियां 
जब निगाहें किसी की हुईं मेहरबां
212-212-212-212
फ़ाइलुन ×4
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गहरे सागर की चाहत में जब भी घर से निकला मैं
उन आँखों की गहराई ने मेरे मन को लुभा लिया
 22 22 -22 22- 22 22- 22 2
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गुज़र जानी है शब यूँ ही तो बस यूँ ही गुज़ारेंगे,
न उनको याद आएँगे न उनको हम पुकारेंगे
1222-1222-1222-1222
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दिल की वहशत तुझे याद जब भी करे
सूनी छत की मुंडेरों पे कुहनी टिके
212-212-212-212-
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मुहब्बत भी सिखाती है बहानों की अदा कितनी
वो दरवाज़े पे आते हैं बुहारन के बहाने से
1222-1222-1222-1222
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Sunday, October 1, 2023

फ़्लैश बैक/3 - जुड़वाँ लड़कियाँ


जुड़वाँ लड़कियाँ


 मेरे घर के सामने वाली चाल में

रहती थी दो जुड़वाँ लड़कियाँ

दिखने में लगती थी बन्दरियाँ 

चिड़िया की मानिंद 

सारे दिन रहती फुदकती

अस्फुट स्वर में आपस में बतियाती 

न बैठने का सलीका न चलने का शऊर 

उनके  कम दिमाग़  के चलते 

कुछ फुकरे फिकरे रहे कसते 

उनकी दुखियारी माँ अक्सर घबराती  

कुछ भी समझ नहीं पाती 

चाल के गलियारे में 

जुड़वाँ बहिने हुड़दंग मचाती 

गर्मियों की दोपहर में

कभी सीढ़ियों पर ही  सो जाती

कभी कभी मुझसे भी बतियाती 

मैं उनकी बात समझ नहीं पाता

वो मेरी बात समझ नहीं पाती 

भरती किलकारी , खिलखिलाती 

लेकिन उस शाम उदासी 

पसर गयी थी मेरी आत्मा में

कुछ सालों बाद पता चला था जब 

उनके गुज़र जाने का सिलसिला 

चाल का हंगामा  बदल गया था सन्नाटे में

आँखों में मेरी तैर गयी वो शाम 

जब दोनों बहनो ने 

 ख़ुद को डुबो दिया था आटे में 

और मचाया था हुड़दंग बहुत 

चाल के अहाते में।   



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

फ़्लैश बैक/3 - सप्रू हाउस

सप्रू हाउस 


बाराखम्बा रोड , नई दिल्ली से शायद है मेरा 

पिछले जन्म का नाता 

इसी रोड पर मैं बरसो रहा आता - जाता 

जवानी में स्टेट्समैन अख़बार का दफ़्तर

और बचपन में सप्रू हाउस के चक्कर 

उन दिनों दिखाई जाती थी 

सप्रू हाउस में बाल - फ़िल्में 

होता था दिन इतवार का 

पिता जी के कुछ प्यार का 

अक्सर ले जाते थे मुझे फ़िल्म दिखाने

अब तो गुज़र गए ज़माने 

नहीं देखी कोई बाल फ़िल्म

 तब इंटरनेट और यूट्यूब का नहीं था चलन

फिर भी बहुत खिला खिला था बचपन। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस  

फ़्लैश बैक/3 - मामा के जूते

मामा के जूते 


 मेरे मामा आज भी लगते स्मार्ट 

रहे सदा ज़िंदगी में टिप - टॉप 

घंटो करते अपने कपडे ख़ुद प्रेस 

उनका मुँह चाँद सा  चमकता 

मोती सा उनका रूप दमकता 

होंठों पे रहे बिखरती स्नेहिल मुस्कान

ऊँचा बहुत उनका ख़ानदान    

सिखाते सदा मुझे दुनियादारी 

सुनता था मैं उनकी बाते सारी 

पर कभी कभी जब होता था उनसे नाराज़ 

पलंग के नीचे घुस कर 

उनके चमकीले जूते देता था काट 

अगले दिन पड़ती थी बहुत डाँट 

और मामा ख़रीद लाते थे 

एक जोड़ी नए जूते।  


Sunday, September 24, 2023

प्रेम - प्रसंग/ 2 -सुर्ख़ गुलाब

 

सुर्ख़  गुलाब 


अपने माथे पर सजा लिया

 तुम ने जब लाल सूरज 

और एक सुर्ख़ गुलाब 

अपनी ज़ुल्फ़ों में 

मुहब्बत के कितने लम्हात  

तुम्हारे क़दमों में बिछ गए ,

दीवानो को क्या इस से मतलब ..

के वो सुर्ख़ गुलाब 

तुम्हारे जूड़े में टाँगा हैं किस ने 

उन्हें तो बस 

उसकी खुशबू  में है भीगना ,

तुम्हारी ज़ुल्फ़ों के 

काले साये-सी  लरज़ती बदरी का

मुहब्बत के सहरा  पर बूँद बूँद बरसना  

दरिया का समुन्दर की लहरों से लिपटना ,

सुनो ! मुहब्बत के बाग़ की अप्सरा हो तुम  

सुरा  हो , बला हो , सबा हो तुम 

हरेक  दिल का वलवला हो तुम,

वो सुर्ख़ गुलाब अपनी ज़ुल्फ़ों में सजाए रखना 

मुहब्बत की एक दुनिया बनाए रखना ,  

बारूद के ढेर पर ठहरी इस दुनिया को 

नफ़रत की आग में  जलती इस दुनिया को 

गर कोई बचा सकता है , तो वो है 

तुम्हारी ज़ुल्फ़ों को सुर्ख़ गुलाब 

तुम्हारी निगाहों में छुपा प्यार का ख़्वाब 

और तुम्हारे होंठों की 

वो मोनालिसा -सी मुस्कुराहट।  



कवि - इन्दुकांत आंगिरस  

Saturday, September 16, 2023

प्रेम - प्रसंग/ 2 - ख़ामोशी

 कविता - ख़ामोशी


सुबह  के तारे के हाथ 

भेजा था तुम्हे सन्देश 

नदी की लहरों पर 

अंकित करी थीं 

अपनी व्यथाएँ 

शाम ढलते ढलते 

तुम बहुत याद आए 

 

सांझ का  तारा भी डूब गया 

नहीं आया तुम्हारा कोई जवाब 

एक मुसलसल ख़ामोशी 

क्या ख़ामोशी में भी 

होती है मुहब्बत 

या तुम 

सिर्फ़ इसलिए ख़ामोश हो 

कि मिटटी का  बदन बोलता है 

तुम्हारी ख़ामोशी के 

सब राज़ खोलता है,  

तुम्हारी ख़ामोशी 

जब पसर जाती है मेरी रूह में 

तो मेरी रूह का सन्नाटा 

टूटने लगता है 

धीरे धीरे .....

जिस तरह कटता है लोहे से लोहा 

जिस तरह निकलता है काँटे से काँटा 

जिस तरह कटती है नज़र  से नज़र 

जिस तरह कटता है ज़हर से ज़हर 

कुछ वैसे ही तुम्हारी ख़ामोशी ने 

मेरी रूह की बर्फ को पिघला दिया 

अब देखना है ,  

ये  कब तक नदी बनती है। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

Friday, September 15, 2023

प्रेम - प्रसंग/ 2 - प्रेम -प्रसंग

 कविता - प्रेम -प्रसंग 


जीवन के   कितने प्रेम - प्रसंग 

सुनाऊँ तुम्हें 

इस दिल के कितने दाग़ 

दिखाऊँ तुम्हें 

जिस जिस से भी प्रेम किया 

बीच मँझधार   मुझे छोड़ गया

प्रेम का साहिल मिला ही नहीं कभी 

यूँ कहो तो अच्छा ही हुआ 

प्रेम का साहिल गर मिल जाता 

दोबारा नहीं प्रेम कर पाता

दोबारा ....?

हाँ , दोबारा , एक बार नहीं हज़ार बार 

करना है मुझे प्रेम ज़िंदगी की हर शय से ,

करते हैं जो सिर्फ़ 

किसी एक से ज़िंदगी भर  प्यार 

बहुत ...बहुत ...बहुत उबाऊँ होते हैं मेरे यार।



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

  


Saturday, September 9, 2023

प्रेम - प्रसंग/ 2 - मुहब्बत के झरने

 कविता - मुहब्बत के झरने




अभी अभी तुम्हें सोचा 


और 


सोचते ही तुम्हें 


घुलने लगा मुहब्बत का रंग  


फ़िज़ाओं  में ,


झिलमिलाने लगे तारे 


गुनगुनाने लगी नदी ,


झूमते फूलों ने 


खोल दिए कलियों के घूंघट, 


ओस की बूँदों में भीगते रहे 


तमाम रात  


चाँदनी की चादर पर बिखरे

 

रात रानी और चमेली के फूल


उन फूलों पर कुनमुनाता 


तुम्हारा तांबई रूप 


किसी शाइर की नज़्म में 


निखर  गया जब 


रोक नहीं पाई तुम अपनी हँसी, ,


तुम्हारी खनखनाती हँसी से 


जाग उठे सदियों से सोये पत्थर 


और उन पत्थरों से फूट पड़े 


मुहब्बत के झरने 


जिनके  पानी में नहाने को 


देखो प्रिय !


कितना आकुल है 


हमारा प्रेम। 






कवि - इन्दुकांत आंगिरस

Wednesday, September 6, 2023

प्रेम - प्रसंग/ 2 - लफ़्ज़े मुहब्बत

 

 लफ़्ज़े मुहब्बत 



एक एक लम्हा गुज़रता गया 

एक एक पहर गुज़रता गया 

देखते देखते माह - साल गुज़र गए 

न कोई ख़त तुम्हें लिखा 

न तुम्हें फ़ोन ही किया 

न तुम्हारी आवाज़ सुनी 

न बढ़ कर तुम्हें पुकारा 

न तुम्हारा ख़त आया 

न तुमने फ़ोन किया 

न तुम ने मुझे पुकारा  

लेकिन  मेरी रूह पर

तुम्हारा जादू तारी रहा 

वो अधखुली आँखों  का जादू 

वो घनेरी ज़ुल्फ़ों का जादू 

वो चाँद से मुखड़े का जादू 

वो सांझ के तारे का जादू 

वो  गुदाज बाँहों  का जादू 

वो  सर्द आहों का जादू 

वो झुकी निगाहों का जादू 

हाँ , मेरी रूह पर 

तुम्हारा जादू तारी रहा 


मैं इधर सन्नाटे में लिपटता  हूँ तन्हाई से 

तुम उधर लिपटती हो मेरी यादों  से 

दूर रह कर भी बहुत पास हैं हम 

यक़ीन है मुझे 

तुम्हारा यक़ीन मुझसे मिलता जुलता होगा 

अगर तुम कहो ये मुहब्बत नहीं 

मुहब्बत का कुछ गुमां होगा 

एक लफ़्ज़े मुहब्बत 

हमारी रूह पर खुदा होगा। 




कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

Thursday, August 31, 2023

प्रेम - प्रसंग/ 2 - वो शाम अब तक है याद मुझे


 वो शाम...


 वो शाम अब तक है याद मुझे 

वो लम्हें अब तक हैं याद मुझे 

गुज़ारे थे जो तुम्हारे  साथ ,

नहीं था तुम्हारे हाथ में मेरा हाथ 

न ही तुम्हारी बाँहें थी मेरे गले में 

लेकिन प्रेम भरी साँसें  

घुल गयी थी फ़िज़ा में  

हर सम्त बिखरी थी तुम्हारी खुश्बू

उस खुशबू में डूब गया था 

हमारा चंद लम्हों का सफ़र

काश , हाँ काश 

कभी ख़त्म न होता ये सफ़र ,

मुझे यक़ीन नहीं होता 

शायद तुम्हें भी न हो 

हम बिछड़ कर भी बिछड़े नहीं 

और मेरी रूह अभी तक 

उस सफ़र में है,

क्या इस सफ़र में तुम  

अभी तक मेरे साथ हो ?  



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

   

गीत - सावन की रतियों में , मत जा रे बलम छोड़ के

 सावन की रतियों में , मत जा रे बलम छोड़ के 


तोरण से मैं द्वार सजाऊँ 

चन्दन बंदन हार बनाऊँ

बिरहन सी सूनी आँखों में

तारों के मैं दीप जलाऊँ


सावन की रतियों में , मत जा रे नयन मोड़ के 


तोड़ के सारे बंधन आ जा 

प्रेम को भी चन्दन कर जा 

सूने प्राणों में रंग भर कर 

मुझको फाल्गुन कर जा  


सावन की रतियों में , मत जा रे कसम तोड़ के 


बैरन रतिया मोह तड़पाए 

आहट पे हर दिल घबराए

साथ हमारा जन्मों का यूँ 

कान्हा के सँग राधा गाए 


सावन की रतियों में , मत जा रे भरम तोड़ के 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

 

Friday, August 18, 2023

प्रेम - प्रसंग/ 2 - अहसास

 अहसास 


जब से दूर गई है 

चाँदनी तेरे प्यार  की 

तन्हाई का अहसास 

पल पल डसने लगा है मुझे  

इस कदर डूब गया हूँ 

तन्हाई के अहसास में 

कि ख़ुद अपनी ही 

हालत से बेख़बर  हूँ मैं   

कभी क़तरा तेरे प्यार  का 

कभी समुन्दर हूँ मैं 

शीशा शीशा मेरा अहसास 

पत्थरों के शहर में 

मेरे भीतर का अहसास 

पत्थर न हो जाये कही 

मंज़िल हमारी मुहब्बत की

एक सफ़र न हो जाये कही 

हमारे प्यार का अहसास 

मर न जाये कही , कोई 

मौत से पहले  

गुज़र न जाये कही,

तारों भरी रात कहाँ 

वो तेरे - मेरे प्यार के 

गुज़रे  हुए  लम्हात कहाँ

सूनी हो  गयी ये दुनिया 

बिन तुम्हारे , बस 

इक अहसास है अहसास के लिए 

इक साज़ है आवाज़ के लिए।  

   







Tuesday, August 15, 2023

लघुकथा - कवि - सम्मलेन

 लघुकथा - कवि - सम्मलेन


साहित्यिक संस्था ने स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष पर कवि - सम्मलेन का आयोजन किया। कवि - सम्मेलन में कवियों को आमंत्रित करने की सूची तैयार की जाने लगी।  संस्था के महासचिव ने कवियों की सूची तैयार कर अध्यक्ष की मेज़ पर रख दी। सूची पर नज़र पड़ते ही अध्यक्ष महोदय ने कहा - ये " फ़िराक सुल्तानपुरी " कौन है ?

-"  जी , बहुत बढ़िया शाइर है और हिंदू ही है।  " महासचिव ने अध्यक्ष का आशय समझते हुए कहा। 

- " होंगे हिंदू , लेकिन नाम तो मुस्लिम ही है , हटाओ इनका नाम।  इनकी जगह माधुरी मिश्रा को आमंत्रित करो। "

- "  लेकिन माधुरी मिश्रा की ग़ज़लें तो बहर में भी नहीं होती।  " - महासचिव ने हिचकते हुए कहा 

- "  अरे , बहर में नहीं लिखती तो क्या हुआ , गाती तो अच्छा है और है भी छम्मक - छल्लो।  उसी को बुलाओ " - अध्यक्ष ने निर्णायक स्वर में कहा। 

- " जी जनाब "  - कह कर महासचिव ने आंमंत्रित कवियों की सूची में  ' फ़िराक़ सुल्तानपुरी ' का नाम काट कर माधुरी मिश्रा का नाम लिख दिया। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस  

गीत - जान लगा देंगे बाज़ी पे देश नहीं बँटने देंगे

 गीत 


जान लगा देंगे बाज़ी पे देश नहीं  बँटने देंगे 

अपने ही हाथो से अपने हाथ नहीं कटने देंगे 


पहले भी प्यारा था हम को ,आज भी हम को प्यारा है 

इंडिया कह लो , भारत कह लो हिन्दोस्तान हमारा है 

Monday, August 14, 2023

वसंत का ठहाका - सपनों की गठरी

 वसंत का ठहाका - सपनों की गठरी 


जब यह दुनिया 

गहरी नींद में 

सो जाती है 

तब मैं यकायक 

सकपका कर 

उठ बैठता हूँ 

और 

मलने लगता हूँ 

अपनी अधखुली आँखें ,

आँखें , जिनमें रोज़ उतरते हैं 

खिले - अधखिले सपने 

सपने , जिनका 

अपना कोई सफ़र नहीं होता 

जिनका अपना कोई घर नहीं होता 

ग़रीबों की दवा के सपने 

ग़ैरों की दुआ के सपने 

सपने , जिनके दिल तो होते हैं 

लेकिन पंख नहीं 

सपने , जो मेरी पीठ पर सवार हो कर 

करना चाहते हैं दुनिया की सैर 

जाने - अनजाने 

सपनों की गठरी  ढ़ोते ढ़ोते

मैं थक जाता हूँ 

और सपनों की गठरी 

अपनी पीठ से उतार 

ठोस ज़मीन पर धर जाता हूँ ,

तेज़ हवा , आंधी से 

चंद मिनटों में ही 

सब सपने इधर -उधर  बिखर जाते हैं 

और मेरी पीठ पर रह जाते हैं 

भारी - भरकम सपनों के निशान

तुम इन बदरंग निशानों पर 

बस अपने अधर रख देना 

और 

आने वाली सदियों को ख़बर कर देना 

कि सपने लेना हैं जितना सुखद 

सपने ढोना हैं उतना ही  दुखद 

लेकिन मैं फिर भी ख़ुश हूँ 

मुझे यक़ीन है कि एक दिन 

मेरे सपनों की गठरी 

पंख लगा कर उड़ जाएगी 

मैं ख़ुश हूँ कि मुझे नहीं तो 

कम से कम मेरी पीठ पर अंकित 

अधूरे सपनों के निशानों को 

उनकी पहचान मिल जाएगी 

मुझे यक़ीन है कि ये दुनिया 

एक दिन ज़रूर   

सूरज की किरणों के मानिंद मुस्कुराएगी 

और आने वाली सदियों के नाम 

सपनों का अंतहीन तराना गुनगुनाएगी  । 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

   

Sunday, August 13, 2023

लघुकथा - दोस्ती

 दोस्ती 


पति के कवि मित्र घर से जाने  लगे तो पति उन्हें गले लगा कर बोले - " आते रहना रामकुमार भाई , इसे अपना  ही घर समझना। कभी भी संकोच मत करना। " रामकुमार ने मुस्कुराते हुए विदा ली । 

रामकुमार के जाने के बाद परेशान  पत्नी ने पति से पूछा  -" आप तो कहते थे कि रामकुमार ने साहित्य के क्षेत्र में आपकी काफी टांग खींची है और इसके लिए आप उसे बर्बाद कर देंगे लेकिन आप तो उसे गले लगा कर दोस्ती का परचम फहरा रहे हैं।  आख़िर ये माज़रा क्या  है ?

पति ने मुस्कुराते  हुए कहा -" तुम बहुत भोली हो जानेमन , दुश्मनी निकालने  के लिए दुश्मन बनना ज़रूरी नहीं है, बल्कि  यूँ समझो कि दोस्त बन कर दुश्मन को ज़्यादा  बर्बाद किया  जा  सकता  है। 

पत्नी हैरानी में दोस्ती और दुश्मनी के इस नए आयाम समझने की कोशिश करने लगी । 


लेखक   - इन्दुकांत आंगिरस          

Thursday, August 10, 2023

लघुकथा - भोर के ठहाके

  भोर के ठहाके 


सूरज की पहली किरण पड़ते ही बाग़ की  कलियाँ खिल उठी और फूल मुस्कुरा उठें। ओस की बूँदें अभी तक कलियों के होंठों पर और फूलो के सीनों पर मचल रही थी। ओस की बूँदें धीरे धीरे किरणों में घुल - मिल रही थी और आकाश में सुबह का तारा धुंधलाता जा रहा था।  फ़ज़ा में फूलों की ख़ुश्बू बिखरी हुई थी। रंग - बिरंगी  तितलियाँ फूलों पर पल भर को बैठती फिर हवा में उड़  जाती।  तभी बाग़ में इंसान ने अपने क़दम पसारे। 

 घास को अपने पैरो से रौंदते हुए कुछ उंगलियाँ भी फूलों को तोड़ने लगी। अब ये फूल या तो ईश्वर पर चढ़ाये जायेंगे या फिर किसी सुंदरी  की ज़ुल्फ़ों में  गजरा बन कर महकेंगे। घास का बदन लहूलुहान था और फूल बिलख बिलख कर रो रहे थे लेकिन उस लाफ्टर क्लब के ठहाकों में घास और फूलों का आर्तनाद किसको सुनाई पड़ता। बस ठहाके  तेज़ होते गए थे...ऊँचे ...और  ऊँचे ....शायद आसमान तक ........। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 

Wednesday, July 19, 2023

गीत - फूलों का मैं राजकुमार

 फूलों का मैं राजकुमार 

तुम मुझ से ही करना प्यार 


अधरों की मुस्कान बना मैं 

ख़ुश्बू की पहचान बना मैं

किशना की मुरली में ढल कर 

सूर बना रसखान बना मैं


काँटा तुम को इस जीवन में 

क्या दे पायेगा कुछ उपहार 


सपनों के बुनता मैं घर हूँ 

अपनों से मिलता अक्सर हूँ 

मुझको छू कर ही जाती है 

यूँ ही नहीं पुरवा गाती है 


मुझ को ही तो रोक राह में 

ऋतु करती सोलह श्रृंगार 


यूँ ही नहीं इतराता हूँ  मैं

देवो पर चढ़ जाता हूँ मैं

पर मुरझाऊँगा इक दिन

मैं खो जाऊँगा इक दिन 



कवि -  इन्दुकांत आंगिरस 


 





 


Monday, July 17, 2023

गीत - महकी है फिर गंध तुम्हारी

 गीत 

महकी है फिर गंध तुम्हारी 
भीगी - सी इक रात हो तुम 
कैसे करूँ श्रृंगार तुम्हारा 
एक अधूरी बात हो तुम 

भर दूँ मैं काजल कारा
धीरे धीरे सारा सारा 

ठहरी हो इक रात कही पर 
तुम्ही कहो फिर कौन हो तुम 
सारी  रात बजा कानो में  
क़तरा क़तरा  मौन हो तुम 

ढँक लो तुम आँखे अपनी 
इतनी सुन्दर सुन्दर सजनी 

दर्पण   में परछाई तुम्हारी 
जब हो जाएगी गम यूँ ही 
हर साँस कही थम जायेगा 
बस थक जाओगी तुम यूँ ही 

मैं भर दूंगा शाम कुँवारी 
ढलके जो रेशम की सारी  


कवि- इन्दुकांत आंगिरस 

Saturday, July 15, 2023

कहानी - ख़सम

 

कहानी - ख़सम 



" सुनो जी , ऊपर से कुछ आवाज़ आ रही है " - संजना  ने मेअपने पति प्रमोद के  नज़दीक सरकते हुए कहा।

 

" ऊपर से कहाँ से " प्रमोद ने जिज्ञासा से पूछा।

 

" ऊपर वाले फ़्लैट से और कहाँ से  , ध्यान से सुनो , लगता है झगड़ा हो रहा है " संजना प्रमोद के होंठों पर ऊँगली रखते हुए  बोली थी।प्रमोद ने अपने कानों को खोला और अपने कान छत से लगा कर ध्यान से सुनने लगा।  ऊपर वाले फ़्लैट में एक अधेड़ उम्र का जोड़ा रहता था। पति सरकारी नौकर था और पत्नी गृहणी। शादी को लगभग बीस साल हो गए थे लेकिन अभी तक बच्चा नहीं हुआ था।  इस सिलसिले में सभी तरह का इलाज और झाड़ - फूंक उन्होंने कर लिया था लेकिन ढ़ाक के वही तीन पात।  आख़िर  उन्होंने बच्चों के बारे में सोचना छोड़ दिया था और इस अभाव ने उनक ज़िंदगी को शायद पहले से अधिक तल्ख़ बना दिया था। अक्सर रात के वक़्त मार - पीट की आवाज़े आती जो रात के सन्नाटे को चीरती हुई हमारे बैडरूम में हमारे बिस्तर की चादर पर अनचाहे अतिथि की तरह पसर जाती और अक्सर हमारे मिलन के रात उदासी की चादर ओढ़ कर सो जाती। लेकिन आज हमारे मिलन की रात बेचैन हो गई और इस रोज़ रोज़ के झंझट से तिलमिला उठी।

 

- " आपको पता है , ये ऊपर वाला अपनी बीवी की पिटाई करता है।  " संजना ने प्रमोद के छाती के बालो में  ऊँगली घुमाते हुए  कहा।

 

- " अच्छा , ये तो बहुत खराब बात है , तुम्हें कैसे पता ?" प्रमोद ने  जिज्ञासा से पत्नी से पूछा।

 

- " अरे , मुझे बता रही थी।  बहुत दुखी है बेचारी।  कह रही थी कि बस किसी भी बात को ले कर उसके पीछे पड़ जाता है।  मनमानी करने लगता है , अगर मान जाये तो ठीक नहीं तो गाली -  गलौच  और फिर मार - पिटाई। "

 

- " अच्छा , गाली भी देता है .." प्रमोद ने हैरानी से पूछा।

 

- " अरे , बस क्या बताऊँ आपको। इतनी गन्दी - गन्दी गाली देता है कि मुझे तो बताते भी शर्म आती है। "

 

- " तो फिर छोड़ क्यों नहीं देती , ऐसे हरामी खसम को। "

 

- " छोड़ कर जाये कहा बेचारी।  औरत की  तो मिटटी हो खराब है।  बीस साल शादी को हो गए , कोई औलाद भी नहीं है। "

 

- " औलाद नहीं है , तो कुछ इलाज - विलाज करवा लेते।  "

 

- " मालूम नहीं , अपनी बीवी को तो जगह - जगह दिखाता  फिरता है , अपना इलाज नहीं करवाता। "

 

- " आख़िर कमी किस में  है , ये तो पता लगे। "

 

- " अरे , कमी किसी में भी हो।  अब  औलाद नहीं हुई तो इसका मतलब ये थोड़े ही न है कि रोज़ रोज़ मार - पिटाई करेगा। "

 

- " हाँ , ये तो तुम ठीक कह रही हो।  सुनो , मैं पुलिस में रिपोर्ट कर देता हूँ।  " प्रमोद ने फ़ैसला  सुनाते  हुए कहा।

 

- " आप क्यों झगडे में पड़ते हो ? " संजना ने टालते हुए कहा।

 

- " उसको थोड़े ही ना पता चलेगा कि रिपोर्ट हमने करी है। " कह कर प्रमोद ने पुलिस का नंबर डायल कर दिया; झगडे की सूचना और पता बता कर बिना अपना नाम बताये फ़ोन  काट दिया।

 

- " अजी , आपने तो कमाल कर दिया , उसको अगर पता लग गया तो आपके पीछे पड़ जायेगा। "

 

- " उसे पता लगेगा तब ना , अभी देखना थोड़ी देर में पुलिस आएगी और जनाब की नौकरी भी ख़तरे  में पड़ जाएगी।  जानवर हैं साले , औरत को मारते है , वैसे बनते हैं पढ़े - लिखे अफ़सर। " प्रमोद ने ग़ुस्से में बोला और संजना को अपनी  बाँहों  में भरने लगा।  "

 

- " अजी रुको ना।  देखना बाहर , लगता है पुलिस आ गयी  ।  

 

बाहर दो पुलिस वाले आ गए थे और टोर्च की रौशनी से मकान नंबर देख रहे थे। मकान नंबर निश्चित कर पुलिस वाले ऊपर ज़ीने  में चढ़ गए।  चाँद मिनिटों में ऊपर से झगडे की आवाज़ें आना बंद हो गयी। लगभग आधे घंटे तक पुलिस वाले पूछताछ करते रहे।  जब पुलिस वाले जाने लगे तो प्रमोद ने उत्सुकतावश अपनी खिड़की के परदे को सरका कर बाहर देखा कि शायद ऊपर वाले मर्द (  जो अपनी बीवी को मारता है , कितना भी कमज़र्फ़ हो कहलायेगा तो मर्द ही )   को पुलिस वाले अपने साथ जा रहे हो लेकिन पुलिस वाले अकेले थे।

 

प्रमोद ने पुलिस वालो को भद्दी - सी गाली दी और संजना से बोला - " हरामी हैं साले , पैसे खा लिए होंगे। चलो अब कम से कम मारेगा तो नहीं ",  कह कर प्रमोद कुनमुनाते हुए संजना की गुदाज बाँहों में सिमट गया और इस बार संजना बिना आनाकानी के सीधी पसर गयी थी।  

अगली रात सोते वक़्त संजना की कथा फिर शुरू हो गयी।  पता नहीं औरतो को सेक्स के वक़्त ही दुनिया जहान की बाते क्यों सूझती हैं और आदमी उन बातों को सुनंने के अलावा और क्या कर सकते हैं।

 

" सुनो जी , पुलिस वाले २०००/ रुपए ले गए , आप ठीक कह रहे थे। " संजना ने प्रमोद की कमीज़ के खुले बटन बंद करते हुए कहा।

 

- " तुम्हें कैसे मालूम ? " प्रमोद ने संजना की चोली के बंद बटन खोलते हुए कहा।

 

- " दिन में बता रही थी मुझे।  कह रही थी कि पुलिस ने उससे अलग कमरे में ले जा कर  पूछताछ करी। "

 

- " कैसी पूछताछ ? " प्रमोद ने संजना को सहलाते हुए कहा।

 

- " यही कि उसका पति उसे मार रहा था क्या "- संजना ने प्रमोद के हाथ को हठाते हुए कहा।

- " फिर , उसने क्या कहा ?"

 

- " उसने मना कर दिया " - संजना ने  गंभीरता से बताया।

 

- " मना कर दिया , मतलब झूठ बोल दिया  , क्यों ? " प्रमोद ने ग़ुस्से से पूछा।


- " हाँ , मना कर दिया , कह रही थी कि मारे चाहे पीटे , है तो मेरा ख़सम  ही , जेल में कैसे भेज दूँ उसे।  पता नहीं कल रात किस मरदूद ने पुलिस में रिपोर्ट कर दी थी।  "

 

- " अच्छा तो ये बात है , एक तो इनकी मदद करो , ऊपर से गाली सुनो।  अरे , इसे आदत पड़ चुकी है पीटने की।  " प्रमोद तैश में आ गया था।

 

- " अजी नहीं , ऐसी बात नहीं है।  पर क्या करे बेचारी , जाये तो जाये कहाँ ; बहुत ज़ुल्म सहती है।  सारी - सारी रात सोने नहीं देता उसको।एक चोली और पेटीकोट में बिठाये रखता है , साड़ी भी नहीं पहनने देता। " - संजना ने नरम लहजे में बताया।

 - " क्यों , साड़ी क्यों नहीं पहनने देता " , प्रमोद ने कुहनी के बल खड़े होते हुए पूछा।

 - " मुझे क्या पता , कह रही थी कि उसकी मरज़ी के बिना कही आ - जा नहीं सकती। किसी ग़ैर मर्द से हँस - बोल नहीं सकती। वो तो जब वो दफ़्तर चला जाता है  तब कुछ देर मुझसे अपना दुखड़ा रो लेती हैं और हिम्मत देखो उस कमज़र्फ़ की , कल पुलिस वालो के जाने के बाद देर तक उसे अपने सामने नंगा बिठा कर  गालियाँ देता रहा । 

 

   " कैसी गाली ? " प्रमोद ने जिज्ञासा से पूछा।

 

- " अजी बस पूछो मत ,इतनी  गन्दी गन्दी गालियाँ देता है कि बस ....."

 

- " फिर भी , कुछ बताओ  तो " - प्रमोद ने गर्माते हुए पूछा।

 

- " मुझे नहीं आती , आप कुछ बोलोगे तो में बताऊँगी .." संजना ने शर्माते हुए कहा।

 

प्रमोद , संजना के कान में गालियाँ फुसफुसाने लगा और संजना अपनी हँसी दबाते हुए सर हिलाती रही। प्रमोद ने संजना की नाइटी के बंद खोल दिए थे और संजना की जवानी की नदी लहरा कर बहने लगी थी। । उनकी  साँसें गरमाने लगी थी और दोनों निकल पड़े थे जन्नत की सैर पर।

 

लेखक - इन्दुकांत आंगिरस

 

 

 

 

Friday, July 14, 2023

लघुकथा - बाइस्कोप


लघुकथा - बाइस्कोप 


 शायद आप सभी ने अपने बचपन में बाइस्कोप देखा होगा। एक ही बाइस्कोप में एक साथ ४ या ५ दर्शक बाइस्कोप देख सकते  हैं। किसी को पता नहीं होता कि दूसरा दर्शक कौन - सी फ़िल्म  देख रहा है जैसे कि आजकल  के पीवीआर सिनेमा हॉल जिनमें  एक ही समय में अलग अलग हॉल में अलग अलग फ़िल्में चलती हैं।  एक बार बचपन में बाइस्कोप चलते चलते बंद हो गया, थोड़ी देर बाद शुरू हुआ तो मेरा हॉल बदल गया था और फ़िल्म भी। अब  देखता हूँ कि हीरोइन पहले से भी ज़्याद मस्त है और डांस भी बेहतरीन कर रही है। उस वक़्त मालूम नहीं था कि असली ज़िंदगी में बाइस्कोप की मस्त हीरोइन कितनी महँगी पड़ती है।  इतनी महँगी पड़ती है कि आदमी गंजा हो जाता है और उसकी गंजी खोपड़ी के रनवे पर हीरोइन के ख़्वाइशो   की फ्लाइट्स लैंड करती रहती हैं ....करती रहती हैं ....करती रहती हैं . .....



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 





Thursday, July 13, 2023

लघुकथा - हवेली के आईने

 लघुकथा - हवेली के आईने 

ठाकुर रामलखन सिंह की बड़ी हवेली किसी महल से कम न थी। हवेली में नयी बहू के क़दम पड़े तो ठाकुर साहिब ने हवेली की काया पलट कर दी।  बहू किसी अप्सरा सी दिखती थी इसीलिए ठाकुर साहिब ने हवेली के गलियारों में रंगीन  फ्रेम वाले ख़ूबसूरत आईने लगवा दिए थे। 

बहू हवेली में कही से भी गुज़रती उसकी सुंदरता उन आइनों में क़ैद हो जाती। कुछ आईने ख़ुद पर इतराते तो कुछ शरमाते। ।एक दिन ठाकुर गलियारे के बड़े आईने के सामने खड़े होकर अपनी मूँछों पर ताव देने लगा और गलियारे में जाती बहूरानी को देख होंठों ही होंठों में मुस्कुराने लगा।  । ठाकुर की मुस्कराहट देख कर आईना सहम गया और डर के मारे थर थर काँपने  लगा। 

थोड़ी देर बाद बहूरानी उधर आई तो उस आईने को इतना सहमा सहमा देख कर  उससे पूछ बैठी - क्या हुआ , आज इतने सहमे हुए क्यों हो?

- "बहूरानी , हम आईने हैं , सच को सच और झूठ को झूठ दिखाना हमारा काम हैं। हम अपने हुनर से धोखा नहीं कर सकते , लेकिन इंसान के चेहरे पे चढ़े हुए मुखौटो से हम भी डर जाते हैं , सहम जाते हैं। "

आईने का जवाब सुन कर बहूरानी कुछ हैरान तो हुई लेकिन उसने अपना सर झुकाया और ख़ामोशी से आगे बढ़ गयी। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस           

Tuesday, July 11, 2023

लघुकथा - गूँगी लड़की

 


लघुकथा - गूँगी लड़की  


साहिल को एक गूँगी लड़की   से प्यार हो गया था। जब यह बात उसके परिवार को पता चली तो घर में कुहराम मच गया। " कैसा दिमाग़ खराब हुआ है इस लड़के का ? जानबूझ कर अपने पैरो पे कुल्हाड़ी मार रहा है। देख कर कौन पीता  है मक्खी वाला दूध। "

घर के सभी सदस्यों ने उसे बहुत समझाया लेकिन साहिल अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। साहिल की माँ के कहने पर मैंने भी साहिल को समझने की कोशिश करी " यार , ऐसी क्या बात है उस गूँगी लड़की में कि तू अपने सब कुछ उस पर क़ुर्बान करने को तैयार है। तुझे उससे भी ज़हीन और ख़ूबसूरत लड़कियाँ मिल जाएँगी। "

" हाँ यार , मुझे मालूम है कि मुझे उससे भी ख़ूबसूरत लड़किया मिल जाएँगी " -साहिल ने मुझसे कहा। 

" तो फिर ये गूँगी लड़की ही क्यों ? " मैंने ज़ोर दे कर साहिल से पूछा। 

" सच बता दूँ... असल में बात ये है कि मेरे अंदर के शैतान को गूँगी लड़की ही चाहिए जिससे कि वो शैतान रोज़ उसका बलात्कार 

कर सके और उसकी चीख़ें उसके गले में ही घुट कर रह जाए। " - साहिल ने तपाक से जवाब दिया। 

अपने  दोस्त साहिल ये जवाब सुन कर मैं गूँगा ही नहीं बहरा भी हो गया था। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस

Saturday, July 8, 2023

गीत - श्याम की मुरली , श्याम की राधा

 श्याम की मुरली , श्याम की राधा 

राधा के मन में      श्याम बिराजा 


कान्हा , कान्हा; कान्हा बोले 

राधा ,    राधा ;  राधा  बोले

एक हुए यूँ प्राण  युगल के 

एकही  प्रीत की बोली बोले 


श्याम की मुरली , श्याम की राधा 


गीत हुआ यूँ   पावन मन का 

भीज गया मन वृन्दावन - सा 

भूल गयी अब सुधबुध राधा 

याद रहा बस नाम किशन का 


श्याम की मुरली , श्याम की राधा 


श्याम चिरैया , श्याम की बईया 

राधा के   घनश्याम   सांवरिया 

श्याम से मोहे आज मिला जा 

सदियों की ये प्यास बुझा जा 


श्याम की मुरली , श्याम की राधा 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

लघुकथा - जंगली जानवर

 लघुकथा - जंगली जानवर 


- " अरे , भई , इतने  सहमी - सहमी    क्यों चल रही हों ? " मैंने उस लड़की से पूछा।  

- " क्या  करूँ , जंगल ही इतना घना है और जंगली जानवर आस - पास घूम रहे हैं।  " देर रात दिल्ली की उस पॉश इलाके से गुज़रते हुए उस लड़की ने जवाब दिया।  

- " जंगली जानवर ? , मुझे तो कोई जंगली जानवर दिखाई नहीं दे रहा , बस चंद इंसान ही घूम रहे हैं। तुम्हें इनसे डर लग रहा है क्या ?  "-मैंने उस लड़की से फिर पूछा।  

- " हाँ , हाँ , मुझे इनसे ही डर लग रहा है क्योंकि  ये इंसान ही पल भर में जानवर बन जाते हैं और अपने ख़ूनी पंजो से नौंचने लगते हैं औरत का जिस्म।   "

उस लड़की की बात सुन कर मुझे कुछ अचरच हुआ और मैं ग़ौर से उन इंसानों को देखने लगा जिनके चेहरों पर अनगिनत  मुखौटे थे। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस  

कहानी - सोने का पिंजरा

 

मनोरमा , हाँ यही नाम था उस ख़ूबसूरत बला  का जो गली के तमाम लड़कों के दिलो की धड़कन थी।  गोरा रंग , गदराया बदन , बादाम - सी आँखें , हिरणी - सी चाल ,गुलाब की पंखुड़ी से होठ , सदाबहार मुस्कराहट , काली घटाओं सी ज़ुल्फ़े  , सुडौल बाँहें।  जिधर से गुज़र जाती ,   एक ख़ुश्बू  बिखेरती चली जाती।  फ़िज़ा में कितने रंग घुल जाते।  जो भी उसे देखता सर्द आहे भरता।  सबके मन को हरने वाली मनोरमा  ने जब से जवानी की दहलीज़ पर पहला क़दम रखा था  तब से कमला चाची की रातों की नींद उड़ गयी थी। 

रात में मनोरमा पानी पीने के लिए भी उठती तो कमला चाची का दिल धड़क जाता।  जवानी की नदी से वह ख़ूब परिचित थी।  जवानी की नदी तटों में कब बंधी है ? इस उद्दाम नदी के पानी का शोर तो फ़िज़ा में दूर दूर तक गूँजता  है।  इसे शोर नहीं एक प्रेम गीत समझे तो बेहतर होगा। अनजाने होंठों पर मचलने को बेचैन यह  प्रेम गीत  धीरे धीरे पूरे  जंगल में फ़ैल जाता है और हर तरफ़  बस प्रेम के नग़मे सुनाई पड़ते हैं।

कमला चाची का  पति एक घड़ीसाज़ था।  दुबला  - पतला  , खजूर के पेड़ जैसा  लम्बा  , दीवानो जैसे बाल और दीवार घडी के पेंडुलम जैसी चाल। एक ज़माने से पुरानी घड़ियों के कारीगर।  कारीगर बेहतरीन था , ज़माने भर की रुकी होती घड़ियों की सुइयाँ  उसके उंगलियों का स्पर्श पाते ही फिर से चल पड़ती लेकिन उसकी अपनी सुई बड़ी सुई के साये में आते  ही रुक जाती। पेंडुलम की तरह हिलता रहता उसका वजूद। इतना सब होने के बावजूद चाची उनको छोड़ कर कभी भागी नहीं और एक क्रम से बच्चे पैदा करती रही।  लड़के की चाह में  ४ लड़कियाँ हो चुकी थी और इनमे सबसे बड़ी थी मनोरमा।

उस रात जब घड़ीसाज़ की सुई फिर अटक गई तो मनोरमा की माँ  ने घड़ीसाज़ से कहा - "  मनोरमा अब बड़ी हो गई है , उसके हाथ जल्दी पीले नहीं किये तो वह चिड़िया की तरह कभी भी उड़ जाएगी "

 

"  तुम चिंता मत करों , मैं जल्दी ही कुछ करता हूँ , लेकिन दहेज़ की मुश्किल तो आएगी। "

 "  दहेज़ में देने को कुछ नहीं है , तुम बिना दहेज़ का लड़का देखो फिर चाहे वो उम्रदराज़  ही क्यों न हो ? कोई है नज़र में ?  "

 " हाँ , एक  कुँवारा  ठेकेदार है  तो सही , थोड़ा उम्रदराज़ है और रंग भी काला है। कई साल से कोशिश कर रहा है पर हर लड़की उसको नापसंद कर देती है   "

" अरे तो क्या हुआ , कृष्ण भी तो  काले थे , मर्दों का रंग किसने देखा है ?  ठेकेदारी है तो पैसे वाला तो होगा ? "

-"  हाँ , अपना मकान है , ठेकेदारी में भी अच्छी कमाई है , बस शराब का ऐब है। "

"  कोई बात नहीं , आप कल ही बात चलाओ "

" ठीक है , दीवार की तरफ मुँह  करते हुए घड़ीसाज़ ने आँखें मूँद ली। "

                                                    ***

दसवीं पास देवेंद्र ठेकेदारी  करता था। ज़्यादातर सरकारी ठेके लेता था ।   घर का पुश्तैनी मकान के चलते किराया तो देना नहीं पड़ता था और कुछ आमदनी ठेकेदारी से हो जाती थी। तीन मंज़िला मकान में देवेन्द बाबू एक मंज़िल में खुद रहते थे और दो मंज़िलें किराये पर उठा रखी थी।   आर्थिक स्तिथि से संपन्न देवेंद्र की उम्र लगभद 35 वर्ष की थी। परिवार में एक दूर की विधवा बुआ के अलावा और कोई नहीं थ।  देवेंद्र बाबू  , मालती बुआ को गाँव से अपने घर शहर ले आये थे।  घर में एक औरत होने के ख़ातिर और घर की रोटी खाने के निमित।   कई सालो से शादी का प्रयास किया जा रहा था लेकिन अब तक किसी लड़की ने उसे पसंद नहीं किया था।  काला  रंग , मुँह  पर हलके चेचक के दाग़ , पकोड़े जैसी नाक और दरम्याना क़द  

 

देवेंद्र बाबू ख़ुद सुन्दर नहीं थे लेकिन सुन्दर औरतों में उनकी दिलचस्पी  कम न थी ।  हर शाम यारों की बैठक में मोहल्ला भर की औरतों पर तब्सिरा होता।  घड़ीसाज़ का काउंटर उनके मकान के ठीक सामने था।  आते -जाते घड़ीसाज़ से दुआ सलाम होती।  उस शाम वो घर से निकले तो घड़ीसाज़ ने उन्हें पुकारा " नमस्ते , देवेंद्र बाबू , और कैसी चल रही है ठेकेदारी  ?

" सब ठीक , तुम सुनाओ ? "

-  " इधर भी सब ठीक ,  कुछ शादी की बात बनी  कही ? "

- " अरे , कहाँ ,  लगता है  कुँवारा    ही मरना पड़ेगा । "

- " कुँवारे मरे आपके दुश्मन , देवेंद्र बाबू , "

- " कोई लड़की है तुम्हारी नज़र में ? " ठेकेदार ने ललचाई आँखों से घड़ीसाज़ कि आँखों में झाँका। 

- " हाँ  हज़ूर , लड़की है नज़र में  "

- " कैसी है , सुन्दर है ? "

- " जी जनाब सुन्दर भी है और संस्कारी भी , १९ वे  वसंत में क़दम  रख ही है। लेकिन .."

-"  लेकिन क्या ? "

- " परिवार ग़रीब है , दहेज़ नहीं दे पाएँगे  , और ..."

- " कोई बात नहीं , परिवार से मीटिंग करवाओ और लड़की से भी  "

-"  परिवार आपके सामने है हज़ूर .."

-  " मतलब ...."

- " मेरी ही बेटी है हज़ूर , आप कल घर तशरीफ़ ले आएँ  । "

- " अरे , तुम्हारी बेटी है .....तुम्हें तो मेरी उम्र का पता है न ? 34 वसंत पार कर चुका हूँ। यानी तुम्हारी बेटी और मेरी उम्र में १५ साल का फर्क है  "

- " जानता हूँ हज़ूर , लेकिन  हमारे पास दहेज़ के नाम पर देने को कुछ नहीं है। "

-" तो तुम्हें और तुम्हारी पत्नी को  इससे कोई ऐतराज नहीं ? हाँ  , दहेज़ तो मुझे नहीं चाहिए , बस सुन्दर और सुशील लड़की की दरकार है। लेकिन १५ साल का फर्क ? "

-" मर्द की उम्र किसने देखी है।  अभी तो आप जवान है , अपना घर , कारोबार सब सुपर है , लक्ष्मी की कृपा है आप पर। "

- " हाँ , ये तो है। "-ठेकेदार ने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा।  

- "हमारी बेटी आपके घर राज करेगी।  हमने सोच समझ कर ही यह फैसला लिया है।  बस आप एक बार घर आ कर बिटिया को पसंद कर लें। "

-  - " ठीक है , कल शाम को आता हूँ । " कह कर देवेंद्र बाबू आगे बढ़ गए।

                                                     ***

अगली शाम निश्चित समय देवेंद्र बाबू घड़ीसाज़ के घर पहुँचे ।  मनोरमा चाय ले कर आई तो देवेंद्र बाबू के होश उड़ गए।  उन्होंने अपने जीवन में   इतनी सुन्दर लड़की अभी तक न देखी थी।  मुँह  से लार टपकने लगी और बदन गरमाने लगा।  आनन् -फानन में शादी की बात पक्की हो गयी।

मनोरमा अपने होने वाले पति को देख कर उदास थी लेकिन वह मजबूर थी।  अपने माँ - बाप के विरुद्ध नहीं जा सकती थी। देवेंद्र बाबू ने घड़ीसाज़ को शादी के इंतज़ाम के लिए कुछ रुपए भी पकड़ा दिए थे।  घड़ीसाज़ और उसकी पत्नी ने राहत की साँस  ली और शादी की तैयारी में जुट गए थे।  अगले १५ दिनों में शादी भी संपन्न हो गयी और मनोरमा अपनी ससुराल पहुँच गयी ।   

सुहागरात के बारे में मनोरमा ने सुना ज़रूर था लेकिन इस रात को लेकर उसके दिल में  बहुत सारी आशंकाएँ  थी।  उसने सुन रखा था कि इस रात अक्सर दूल्हा शराब पी कर दुल्हन का घूँघट उठाता  है।  कोई दुल्हन का मुँह  देखने के लिए  मुँह  दिखाई देते हैं तो कुछ दुल्हन के ज़ेवर उतारते हैं ।  वह अभी इन्ही विचारों में खोई हुई थी कि ठेकेदार ने कमरे में  प्रवेश किया।  मनोरमा ने अपने आँचल को  कस  कर थाम लिया।


ठेकेदार के क़दम लड़खड़ा रहे थे  लेकिन उस का  दिल प्यार की मस्ती में लहरा रहा था।  कमरे में इत्र ,फूल और शराब की ख़ुश्बू  घुल मिल गयी थी और खिड़की से झरती चाँदनी  की किरणों ने रात को और भी रंगीन बना दिया था।  मनोरमा की साँसे उठ - गिर रही थी। तभी ठेकेदार ने बड़े प्रेम से उसका घूँघट उठाया और मनोरमा से बोला - " तुम तो वाकई चौदवी का चाँद हो , बहुत ख़ूबसूरत हो , मैं ख़ुशनसीब हूँ  कि भगवान् ने तुम्हें  मेरी झोली में डाल दिया है। आज से मैं ही तुम्हारा आसमान हूँ और मैं ही तुम्हारी उड़ान।  यह लो मुँह दिखाई का ख़ूबसूरत तोहफ़ा ", कह कर ठेकेदार ने एक छोटा - सा सोने का पिंजरा मनोरमा को उपहार में दिया। पिंजरा सोने का था और उसमे क़ैद थी एक मीठी आवाज़ वाली सुन्दर - सी कोइल। पिंजरे को देख मनोरमा चौंकी और उसने धीमी आवाज़ में ठेकेदार से कहा - " सोने का पिंजरा ...  आपका तोहफ़ा वाकई अजीब है,क्या हम इस कोइल को आज़ाद कर सकते है ? " मनोरमा ने ठेकेदार से पूछा  

-" मेरे ख़्याल से कोयल सोने के पिंजरे में  ही रहना पसंद करेगी।  तुम ख़ुद ही पूछ लेना  कोयल से और अगर वो पिंजरे की क़ैद से आज़ाद होना चाहे तो उसे आज़ाद कर देना  "

दस  साल का लम्बा वक़्त गुज़र गया। कोयल आज भी सोने के पिंजरे में क़ैद है।  शुरू शुरू में तो कोयल को खाने के लिए प्रीत का दाना  मिल जाता था तो वह चहकती रहती थी और गाती  थी मीठे - मीठे नग़मे लेकिन धीरे - धीरे उसे प्रीत का दाना मिलना बंद हो गया। उसका शरीर धीरे - धीरे कमज़ोर होता गया और पंख भी  एक बेबस पतझड़ उसके भीतर पसरता जा रहा था।  

 ऐसी ही एक पतझड़ी शाम थी। आसमान का रंग  ज़र्द  था और परिन्दें अपने अपने घरों को लौट रहे थे।  सुरमई धूप  पहाड़ियों से  उतर रही थी।  मनोरमा ने सोने के पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया लेकिन कोइल पिंजरा छोड़ कर नहीं उडी। मनोरमा भी तो नहीं उड़ पाई थी। उस दिन के बाद से मनोरमा ने पिंजरे को बंद करना छोड़ दिया था।


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लेखक - इन्दुकांत आंगिरस