Saturday, July 8, 2023

कहानी - सोने का पिंजरा

 

मनोरमा , हाँ यही नाम था उस ख़ूबसूरत बला  का जो गली के तमाम लड़कों के दिलो की धड़कन थी।  गोरा रंग , गदराया बदन , बादाम - सी आँखें , हिरणी - सी चाल ,गुलाब की पंखुड़ी से होठ , सदाबहार मुस्कराहट , काली घटाओं सी ज़ुल्फ़े  , सुडौल बाँहें।  जिधर से गुज़र जाती ,   एक ख़ुश्बू  बिखेरती चली जाती।  फ़िज़ा में कितने रंग घुल जाते।  जो भी उसे देखता सर्द आहे भरता।  सबके मन को हरने वाली मनोरमा  ने जब से जवानी की दहलीज़ पर पहला क़दम रखा था  तब से कमला चाची की रातों की नींद उड़ गयी थी। 

रात में मनोरमा पानी पीने के लिए भी उठती तो कमला चाची का दिल धड़क जाता।  जवानी की नदी से वह ख़ूब परिचित थी।  जवानी की नदी तटों में कब बंधी है ? इस उद्दाम नदी के पानी का शोर तो फ़िज़ा में दूर दूर तक गूँजता  है।  इसे शोर नहीं एक प्रेम गीत समझे तो बेहतर होगा। अनजाने होंठों पर मचलने को बेचैन यह  प्रेम गीत  धीरे धीरे पूरे  जंगल में फ़ैल जाता है और हर तरफ़  बस प्रेम के नग़मे सुनाई पड़ते हैं।

कमला चाची का  पति एक घड़ीसाज़ था।  दुबला  - पतला  , खजूर के पेड़ जैसा  लम्बा  , दीवानो जैसे बाल और दीवार घडी के पेंडुलम जैसी चाल। एक ज़माने से पुरानी घड़ियों के कारीगर।  कारीगर बेहतरीन था , ज़माने भर की रुकी होती घड़ियों की सुइयाँ  उसके उंगलियों का स्पर्श पाते ही फिर से चल पड़ती लेकिन उसकी अपनी सुई बड़ी सुई के साये में आते  ही रुक जाती। पेंडुलम की तरह हिलता रहता उसका वजूद। इतना सब होने के बावजूद चाची उनको छोड़ कर कभी भागी नहीं और एक क्रम से बच्चे पैदा करती रही।  लड़के की चाह में  ४ लड़कियाँ हो चुकी थी और इनमे सबसे बड़ी थी मनोरमा।

उस रात जब घड़ीसाज़ की सुई फिर अटक गई तो मनोरमा की माँ  ने घड़ीसाज़ से कहा - "  मनोरमा अब बड़ी हो गई है , उसके हाथ जल्दी पीले नहीं किये तो वह चिड़िया की तरह कभी भी उड़ जाएगी "

 

"  तुम चिंता मत करों , मैं जल्दी ही कुछ करता हूँ , लेकिन दहेज़ की मुश्किल तो आएगी। "

 "  दहेज़ में देने को कुछ नहीं है , तुम बिना दहेज़ का लड़का देखो फिर चाहे वो उम्रदराज़  ही क्यों न हो ? कोई है नज़र में ?  "

 " हाँ , एक  कुँवारा  ठेकेदार है  तो सही , थोड़ा उम्रदराज़ है और रंग भी काला है। कई साल से कोशिश कर रहा है पर हर लड़की उसको नापसंद कर देती है   "

" अरे तो क्या हुआ , कृष्ण भी तो  काले थे , मर्दों का रंग किसने देखा है ?  ठेकेदारी है तो पैसे वाला तो होगा ? "

-"  हाँ , अपना मकान है , ठेकेदारी में भी अच्छी कमाई है , बस शराब का ऐब है। "

"  कोई बात नहीं , आप कल ही बात चलाओ "

" ठीक है , दीवार की तरफ मुँह  करते हुए घड़ीसाज़ ने आँखें मूँद ली। "

                                                    ***

दसवीं पास देवेंद्र ठेकेदारी  करता था। ज़्यादातर सरकारी ठेके लेता था ।   घर का पुश्तैनी मकान के चलते किराया तो देना नहीं पड़ता था और कुछ आमदनी ठेकेदारी से हो जाती थी। तीन मंज़िला मकान में देवेन्द बाबू एक मंज़िल में खुद रहते थे और दो मंज़िलें किराये पर उठा रखी थी।   आर्थिक स्तिथि से संपन्न देवेंद्र की उम्र लगभद 35 वर्ष की थी। परिवार में एक दूर की विधवा बुआ के अलावा और कोई नहीं थ।  देवेंद्र बाबू  , मालती बुआ को गाँव से अपने घर शहर ले आये थे।  घर में एक औरत होने के ख़ातिर और घर की रोटी खाने के निमित।   कई सालो से शादी का प्रयास किया जा रहा था लेकिन अब तक किसी लड़की ने उसे पसंद नहीं किया था।  काला  रंग , मुँह  पर हलके चेचक के दाग़ , पकोड़े जैसी नाक और दरम्याना क़द  

 

देवेंद्र बाबू ख़ुद सुन्दर नहीं थे लेकिन सुन्दर औरतों में उनकी दिलचस्पी  कम न थी ।  हर शाम यारों की बैठक में मोहल्ला भर की औरतों पर तब्सिरा होता।  घड़ीसाज़ का काउंटर उनके मकान के ठीक सामने था।  आते -जाते घड़ीसाज़ से दुआ सलाम होती।  उस शाम वो घर से निकले तो घड़ीसाज़ ने उन्हें पुकारा " नमस्ते , देवेंद्र बाबू , और कैसी चल रही है ठेकेदारी  ?

" सब ठीक , तुम सुनाओ ? "

-  " इधर भी सब ठीक ,  कुछ शादी की बात बनी  कही ? "

- " अरे , कहाँ ,  लगता है  कुँवारा    ही मरना पड़ेगा । "

- " कुँवारे मरे आपके दुश्मन , देवेंद्र बाबू , "

- " कोई लड़की है तुम्हारी नज़र में ? " ठेकेदार ने ललचाई आँखों से घड़ीसाज़ कि आँखों में झाँका। 

- " हाँ  हज़ूर , लड़की है नज़र में  "

- " कैसी है , सुन्दर है ? "

- " जी जनाब सुन्दर भी है और संस्कारी भी , १९ वे  वसंत में क़दम  रख ही है। लेकिन .."

-"  लेकिन क्या ? "

- " परिवार ग़रीब है , दहेज़ नहीं दे पाएँगे  , और ..."

- " कोई बात नहीं , परिवार से मीटिंग करवाओ और लड़की से भी  "

-"  परिवार आपके सामने है हज़ूर .."

-  " मतलब ...."

- " मेरी ही बेटी है हज़ूर , आप कल घर तशरीफ़ ले आएँ  । "

- " अरे , तुम्हारी बेटी है .....तुम्हें तो मेरी उम्र का पता है न ? 34 वसंत पार कर चुका हूँ। यानी तुम्हारी बेटी और मेरी उम्र में १५ साल का फर्क है  "

- " जानता हूँ हज़ूर , लेकिन  हमारे पास दहेज़ के नाम पर देने को कुछ नहीं है। "

-" तो तुम्हें और तुम्हारी पत्नी को  इससे कोई ऐतराज नहीं ? हाँ  , दहेज़ तो मुझे नहीं चाहिए , बस सुन्दर और सुशील लड़की की दरकार है। लेकिन १५ साल का फर्क ? "

-" मर्द की उम्र किसने देखी है।  अभी तो आप जवान है , अपना घर , कारोबार सब सुपर है , लक्ष्मी की कृपा है आप पर। "

- " हाँ , ये तो है। "-ठेकेदार ने लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा।  

- "हमारी बेटी आपके घर राज करेगी।  हमने सोच समझ कर ही यह फैसला लिया है।  बस आप एक बार घर आ कर बिटिया को पसंद कर लें। "

-  - " ठीक है , कल शाम को आता हूँ । " कह कर देवेंद्र बाबू आगे बढ़ गए।

                                                     ***

अगली शाम निश्चित समय देवेंद्र बाबू घड़ीसाज़ के घर पहुँचे ।  मनोरमा चाय ले कर आई तो देवेंद्र बाबू के होश उड़ गए।  उन्होंने अपने जीवन में   इतनी सुन्दर लड़की अभी तक न देखी थी।  मुँह  से लार टपकने लगी और बदन गरमाने लगा।  आनन् -फानन में शादी की बात पक्की हो गयी।

मनोरमा अपने होने वाले पति को देख कर उदास थी लेकिन वह मजबूर थी।  अपने माँ - बाप के विरुद्ध नहीं जा सकती थी। देवेंद्र बाबू ने घड़ीसाज़ को शादी के इंतज़ाम के लिए कुछ रुपए भी पकड़ा दिए थे।  घड़ीसाज़ और उसकी पत्नी ने राहत की साँस  ली और शादी की तैयारी में जुट गए थे।  अगले १५ दिनों में शादी भी संपन्न हो गयी और मनोरमा अपनी ससुराल पहुँच गयी ।   

सुहागरात के बारे में मनोरमा ने सुना ज़रूर था लेकिन इस रात को लेकर उसके दिल में  बहुत सारी आशंकाएँ  थी।  उसने सुन रखा था कि इस रात अक्सर दूल्हा शराब पी कर दुल्हन का घूँघट उठाता  है।  कोई दुल्हन का मुँह  देखने के लिए  मुँह  दिखाई देते हैं तो कुछ दुल्हन के ज़ेवर उतारते हैं ।  वह अभी इन्ही विचारों में खोई हुई थी कि ठेकेदार ने कमरे में  प्रवेश किया।  मनोरमा ने अपने आँचल को  कस  कर थाम लिया।


ठेकेदार के क़दम लड़खड़ा रहे थे  लेकिन उस का  दिल प्यार की मस्ती में लहरा रहा था।  कमरे में इत्र ,फूल और शराब की ख़ुश्बू  घुल मिल गयी थी और खिड़की से झरती चाँदनी  की किरणों ने रात को और भी रंगीन बना दिया था।  मनोरमा की साँसे उठ - गिर रही थी। तभी ठेकेदार ने बड़े प्रेम से उसका घूँघट उठाया और मनोरमा से बोला - " तुम तो वाकई चौदवी का चाँद हो , बहुत ख़ूबसूरत हो , मैं ख़ुशनसीब हूँ  कि भगवान् ने तुम्हें  मेरी झोली में डाल दिया है। आज से मैं ही तुम्हारा आसमान हूँ और मैं ही तुम्हारी उड़ान।  यह लो मुँह दिखाई का ख़ूबसूरत तोहफ़ा ", कह कर ठेकेदार ने एक छोटा - सा सोने का पिंजरा मनोरमा को उपहार में दिया। पिंजरा सोने का था और उसमे क़ैद थी एक मीठी आवाज़ वाली सुन्दर - सी कोइल। पिंजरे को देख मनोरमा चौंकी और उसने धीमी आवाज़ में ठेकेदार से कहा - " सोने का पिंजरा ...  आपका तोहफ़ा वाकई अजीब है,क्या हम इस कोइल को आज़ाद कर सकते है ? " मनोरमा ने ठेकेदार से पूछा  

-" मेरे ख़्याल से कोयल सोने के पिंजरे में  ही रहना पसंद करेगी।  तुम ख़ुद ही पूछ लेना  कोयल से और अगर वो पिंजरे की क़ैद से आज़ाद होना चाहे तो उसे आज़ाद कर देना  "

दस  साल का लम्बा वक़्त गुज़र गया। कोयल आज भी सोने के पिंजरे में क़ैद है।  शुरू शुरू में तो कोयल को खाने के लिए प्रीत का दाना  मिल जाता था तो वह चहकती रहती थी और गाती  थी मीठे - मीठे नग़मे लेकिन धीरे - धीरे उसे प्रीत का दाना मिलना बंद हो गया। उसका शरीर धीरे - धीरे कमज़ोर होता गया और पंख भी  एक बेबस पतझड़ उसके भीतर पसरता जा रहा था।  

 ऐसी ही एक पतझड़ी शाम थी। आसमान का रंग  ज़र्द  था और परिन्दें अपने अपने घरों को लौट रहे थे।  सुरमई धूप  पहाड़ियों से  उतर रही थी।  मनोरमा ने सोने के पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया लेकिन कोइल पिंजरा छोड़ कर नहीं उडी। मनोरमा भी तो नहीं उड़ पाई थी। उस दिन के बाद से मनोरमा ने पिंजरे को बंद करना छोड़ दिया था।


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लेखक - इन्दुकांत आंगिरस

 

 

 

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