Saturday, September 16, 2023

प्रेम - प्रसंग/ 2 - ख़ामोशी

 कविता - ख़ामोशी


सुबह  के तारे के हाथ 

भेजा था तुम्हे सन्देश 

नदी की लहरों पर 

अंकित करी थीं 

अपनी व्यथाएँ 

शाम ढलते ढलते 

तुम बहुत याद आए 

 

सांझ का  तारा भी डूब गया 

नहीं आया तुम्हारा कोई जवाब 

एक मुसलसल ख़ामोशी 

क्या ख़ामोशी में भी 

होती है मुहब्बत 

या तुम 

सिर्फ़ इसलिए ख़ामोश हो 

कि मिटटी का  बदन बोलता है 

तुम्हारी ख़ामोशी के 

सब राज़ खोलता है,  

तुम्हारी ख़ामोशी 

जब पसर जाती है मेरी रूह में 

तो मेरी रूह का सन्नाटा 

टूटने लगता है 

धीरे धीरे .....

जिस तरह कटता है लोहे से लोहा 

जिस तरह निकलता है काँटे से काँटा 

जिस तरह कटती है नज़र  से नज़र 

जिस तरह कटता है ज़हर से ज़हर 

कुछ वैसे ही तुम्हारी ख़ामोशी ने 

मेरी रूह की बर्फ को पिघला दिया 

अब देखना है ,  

ये  कब तक नदी बनती है। 



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 

No comments:

Post a Comment