सुर्ख़ गुलाब
अपने माथे पर सजा लिया
तुम ने जब लाल सूरज
और एक सुर्ख़ गुलाब
अपनी ज़ुल्फ़ों में
मुहब्बत के कितने लम्हात
तुम्हारे क़दमों में बिछ गए ,
दीवानो को क्या इस से मतलब ..
के वो सुर्ख़ गुलाब
तुम्हारे जूड़े में टाँगा हैं किस ने
उन्हें तो बस
उसकी खुशबू में है भीगना ,
तुम्हारी ज़ुल्फ़ों के
काले साये-सी लरज़ती बदरी का
मुहब्बत के सहरा पर बूँद बूँद बरसना
दरिया का समुन्दर की लहरों से लिपटना ,
सुनो ! मुहब्बत के बाग़ की अप्सरा हो तुम
सुरा हो , बला हो , सबा हो तुम
हरेक दिल का वलवला हो तुम,
वो सुर्ख़ गुलाब अपनी ज़ुल्फ़ों में सजाए रखना
मुहब्बत की एक दुनिया बनाए रखना ,
बारूद के ढेर पर ठहरी इस दुनिया को
नफ़रत की आग में जलती इस दुनिया को
गर कोई बचा सकता है , तो वो है
तुम्हारी ज़ुल्फ़ों को सुर्ख़ गुलाब
तुम्हारी निगाहों में छुपा प्यार का ख़्वाब
और तुम्हारे होंठों की
वो मोनालिसा -सी मुस्कुराहट।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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