Thursday, December 14, 2023

कविता - पहाड़ी औरत

 पहाड़ी औरत 


पहाड़ी औरत हो सकती है 

उबड़ खाबड़ 

एक पहाड़ी की तरह 

लेकिन होती है मजबूत उसकी टाँगे ,

पहाड़ियों से 

रोज़ चढ़ती - उतरती 

इस औरत के क़दम 

बना देते हैं पहाड़ियों पर 

एक ऐसी पगडण्डी 

जो उसके बदन की तरह  

होती है  घुमावदार

और हर सफ़री से करती हैं प्यार ,

शहरी औरतों की तरह 

इनका बदन लिजलिजा  नहीं होता 

सौंदर्य रूप प्रसाधनों से 

इनका कोई वास्ता नहीं होता 

पहाड़ी औरत होती हैं खुदरंग 

इसे देख नदी ,  पहाड़ , झरने , आकाश 

सब रह जाते हैं दंग ,  

जब दिन भर की मेहनत के बाद 

रात की ख़ामोशी में 

खोलनी पड़ती  हैं उसे अपनी  मजबूत टांगे  

एक पुरुष के अभद्र इशारे से  

तब बहुत रोता हैं आसमान 

रोते हैं  चाँद - सितारे 

रोती है ये धरती 

रोती है वही पहाड़ी पगडण्डी, 

लेकिन अगली सुबह 

रात की चादर को छोड़ कर 

जब  मुस्कुरा उठती है पहाड़ी औरत ,

 तो कुदरत के साथ साथ  

मैं भी हो जाता हूँ हैरान 

 एक पहाड़ी नदी की मानिंद 

खिलखिला उठता है आसमान । 



कवि  -इन्दुकांत आंगिरस 

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