कविता - मुहब्बत के झरने
अभी अभी तुम्हें सोचा
और
सोचते ही तुम्हें
घुलने लगा मुहब्बत का रंग
फ़िज़ाओं में ,
झिलमिलाने लगे तारे
गुनगुनाने लगी नदी ,
झूमते फूलों ने
खोल दिए कलियों के घूंघट,
ओस की बूँदों में भीगते रहे
तमाम रात
चाँदनी की चादर पर बिखरे
रात रानी और चमेली के फूल
उन फूलों पर कुनमुनाता
तुम्हारा तांबई रूप
किसी शाइर की नज़्म में
निखर गया जब
रोक नहीं पाई तुम अपनी हँसी, ,
तुम्हारी खनखनाती हँसी से
जाग उठे सदियों से सोये पत्थर
और उन पत्थरों से फूट पड़े
मुहब्बत के झरने
जिनके पानी में नहाने को
देखो प्रिय !
कितना आकुल है
हमारा प्रेम।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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