वसंत का ठहाका - सपनों की गठरी
जब यह दुनिया
गहरी नींद में
सो जाती है
तब मैं यकायक
सकपका कर
उठ बैठता हूँ
और
मलने लगता हूँ
अपनी अधखुली आँखें ,
आँखें , जिनमें रोज़ उतरते हैं
खिले - अधखिले सपने
सपने , जिनका
अपना कोई सफ़र नहीं होता
जिनका अपना कोई घर नहीं होता
ग़रीबों की दवा के सपने
ग़ैरों की दुआ के सपने
सपने , जिनके दिल तो होते हैं
लेकिन पंख नहीं
सपने , जो मेरी पीठ पर सवार हो कर
करना चाहते हैं दुनिया की सैर
जाने - अनजाने
सपनों की गठरी ढ़ोते ढ़ोते
मैं थक जाता हूँ
और सपनों की गठरी
अपनी पीठ से उतार
ठोस ज़मीन पर धर जाता हूँ ,
तेज़ हवा , आंधी से
चंद मिनटों में ही
सब सपने इधर -उधर बिखर जाते हैं
और मेरी पीठ पर रह जाते हैं
भारी - भरकम सपनों के निशान
तुम इन बदरंग निशानों पर
बस अपने अधर रख देना
और
आने वाली सदियों को ख़बर कर देना
कि सपने लेना हैं जितना सुखद
सपने ढोना हैं उतना ही दुखद
लेकिन मैं फिर भी ख़ुश हूँ
मुझे यक़ीन है कि एक दिन
मेरे सपनों की गठरी
पंख लगा कर उड़ जाएगी
मैं ख़ुश हूँ कि मुझे नहीं तो
कम से कम मेरी पीठ पर अंकित
अधूरे सपनों के निशानों को
उनकी पहचान मिल जाएगी
मुझे यक़ीन है कि ये दुनिया
एक दिन ज़रूर
सूरज की किरणों के मानिंद मुस्कुराएगी
और आने वाली सदियों के नाम
सपनों का अंतहीन तराना गुनगुनाएगी ।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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