लघुकथा - कलाकार
ज़िंदगी की तंगहाली से परेशान हो कर शिल्पकार ने अपनी नवीनतम कृति को भीगी आँखों से निहारा। अगर घर में रोटी के लाले न होते तो वह इस मूर्ती को बेचने की कभी न सोचता। नियत समय पर मूर्ति का ख़रीददार आ पहुँचा । ग्राहक ने ग़ौर से मूर्ती का मुआयना किया
और एक नज़र मूर्तिकार के टूटे -फूटे घर पर डाली। ग्राहक समझ गया था कि मूर्तिकार मजबूरी में मूर्ती बेच रहा है और ग्राहक जोकि पेशे से व्यापारी था , किसी की भी मजबूरी का फायदा उठाना बख़ूबी जानता था। यूँ तो कला की कोई क़ीमत नहीं होती लेकिन ग्राहक ने उस मूर्ती की क़ीमत इतनी अधिक लगा दी कि शिल्पकार ने आनन् - फानन में मूर्ती उसको बेच दी ।
कुछ महीनों बाद शहर में अंतर्राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी लगी तो शिल्पकार भी वहाँ गया। प्रदर्शनी में अपनी उसी मूर्ती को देख कर उसे ख़ुशी हुई लेकिन मूर्ती पर अपने नाम के लेबल के ऊपर अब उस ग्राहक के नाम का लेबल देख कर उसका दिल टूट गया। वह थके क़दमों से कला दीर्घा से बाहर जाने लगा। दरवाज़े के पास मीडिया के लोग उस ग्राहक व्यापारी का साक्षात्कार ले रहे थे। उस दिन उसे मालूम पड़ा कि किस तरह कुछ कला व्यापारी कला का व्यापार करते करते व्यापारी से कलाकार बन जाते है।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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