भोर के ठहाके
सूरज की पहली किरण पड़ते ही बाग़ की कलियाँ खिल उठी और फूल मुस्कुरा उठें। ओस की बूँदें अभी तक कलियों के होंठों पर और फूलो के सीनों पर मचल रही थी। ओस की बूँदें धीरे धीरे किरणों में घुल - मिल रही थी और आकाश में सुबह का तारा धुंधलाता जा रहा था। फ़ज़ा में फूलों की ख़ुश्बू बिखरी हुई थी। रंग - बिरंगी तितलियाँ फूलों पर पल भर को बैठती फिर हवा में उड़ जाती। तभी बाग़ में इंसान ने अपने क़दम पसारे।
घास को अपने पैरो से रौंदते हुए कुछ उंगलियाँ भी फूलों को तोड़ने लगी। अब ये फूल या तो ईश्वर पर चढ़ाये जायेंगे या फिर किसी सुंदरी की ज़ुल्फ़ों में गजरा बन कर महकेंगे। घास का बदन लहूलुहान था और फूल बिलख बिलख कर रो रहे थे लेकिन उस लाफ्टर क्लब के ठहाकों में घास और फूलों का आर्तनाद किसको सुनाई पड़ता। बस ठहाके तेज़ होते गए थे...ऊँचे ...और ऊँचे ....शायद आसमान तक ........।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
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