Thursday, December 31, 2020

कीर्तिशेष आचार्य सर्वेश चंदौसवी - 2020 और 20 किताबें

 


उर्दू अदब की दुनिया में उस्ताद और शागिर्द की रवायत बहुत पुरानी है , विशेषरूप से साहित्य और संगीत  के क्षेत्र में उस्ताद - शागिर्द की परम्परा सदियों से चली आ रही है।  यूँ तो गुरु -शिष्य की परम्परा हिन्दी साहित्यिक संसार में भी है लेकिन बहुत हद तक धार्मिक गुरु और शिष्य ही देखने को मिलते हैं या फ़िर चंद मिसालें  संगीत के क्षेत्र में पाई जा सकती हैं। हिन्दी  साहित्य के क्षेत्र में  गुरु-शिष्य की परम्परा लगभग लुप्त है क्योंकि अधिकतर हिन्दी कवि स्वयं को ही किसी गुरु से कम नहीं समझते। अपना ही एक शे'र ज़हन में आ गया -


  आज घर घर में हैं अदीब "बशर "

   कौन घर  जाए अब   अदीबों के 


        कीर्तिशेष आचार्य सर्वेश चंदौसवी उस्तादों के उस्ताद थे और उर्दू ग़ज़ल और उरूज़ में उन्हें महारत हासिल थी। सं २०१४ से उनकी किताबों के प्रकाशन का सिलसिला शुरू हुआ , २०१४ में १४ किताबें , २०१५ में १५ किताबें ,२०१६ में १६ किताबें , २०१७ में १७ किताबें , २०१८ में १८ किताबें , २०१९ में १९ किताबें और योजनानुसार २०२० में २० किताबों का प्रकाशन होना था लेकिन 25 मई ' 2020 को सर्वेश जी  इस दुनिया को अलविदा कह गए और उनका बीस किताबों का सपना अधूरा  रह गया।  

    

 आचार्य सर्वेश चंदौसवी के इस अधूरे सपने को उनके शिष्यों ने पूर्ण कर साहित्यिक संसार में एक अद्भुत मिसाल दी है ।  27 दिसंबर 2020 को आचार्य सर्वेश चंदौसवी जी के  20 ग़ज़ल संग्रहों का लोकार्पण दिल्ली के हिन्दी भवन में गरिमापूर्ण संपन्न हुआ।  पदमश्री सुरेंद्र शर्मा की अध्यक्षता में संपन्न हुए इस कार्यक्रम  में देश के अनेक सुप्रसिद्ध कवियों ,शाइरों एवं लेखकों ने शिरकत  फ़रमाई  जिनमें  सर्वश्री क़तील शिफ़ाई , सीमाब सुल्तानपुरी , मंगल नसीम , कीर्ति काले  , राजेश चेतन , जगदीश मित्तल , मोईन अख़्तर अंसारीविजय स्वर्णकार , अरविन्द असर , अजय चौधरी के नाम उल्लेखनीय  हैं 

आचार्य सर्वेश चंदौसवी जी के शागिर्द सर्वश्री विजय स्वर्णकार , अनिल मीत, प्रमोद असर, रसिक गुप्ता,राजेंद्र कलकल ,बलजीत कौर  , शुभी सक्सेना     ने अपने गुरु जी के चरणों में भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। 


इस भव्य साहित्यिक कार्यक्रम के आयोजन के लिए दिल्ली की साहित्यिक संस्था " साहित्य सरगम " निश्चय ही बधाई की पात्र है।  कार्यक्रम का संचालन अनिल रघुवंशी ने किया। 


जन्म - 1 जुलाई ' 1949 , चंदौसी -उत्तर प्रदेश 

निधन - 25 मई ' 2020 - दिल्ली



NOTE : सर्वेश जी के शागिर्द  विजय स्वर्णकार और  अनिल मीत को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया । 

अपने इसी ब्लॉग पर १६ नवंबर २०२० को मैंने आचार्य सर्वेश चंदौसवी जी के  बारे में कुछ विचार रखे थे, अगर आपने पहले न पढ़ें हो तो अब पढ़ सकते हैं - https://adbiyatra.blogspot.com/

Wednesday, December 30, 2020

हंगेरियन कविता - Emberke का हिन्दी अनुवाद

 

                                                         Kaffka Margit ( 1880 - 1918 )

                                                           

Emberke - छुटका पहलवान


( मुझ पर खुलता दरवाज़ा )


माँ , यहाँ हो तुम ? आदतन  दबे पावँ  चली आई हो 

तुम्हारे बेटे का अभिवादन कौन करेगा ? भूल गई हो 

अँधेरे में  चमकती आँखें ? अग्निष्ठिका के पास, देखूँ उधर 

मिल गयी , उल्लू हो तुम , जलती तुम्हारी हथेलियाँ इधर 

लग जाऊँ गले ? कोई प्रेम से पूछे तो सिर्फ़ गूंगे जवाब नहीं देते 

-तुम्हीं ने कहा था कि उल्लू की आँखें अँधेरे में चमकती हैं

इसीलिए नाराज़ हो क्या ? आख़िर कब बोलोगी प्यारी माँ

देखो! मैंने पूरी कॉफ़ी पी डाली , चाहो तो पूछ लो बाई से 

नहाते वक़्त रोया भी नहीं ,  सब बटन भी लगाएँ हैं ठीक से 

गले से "क " का उच्चारण भी सीख गया ," क " से कुत्ता, कॉफ़ी

ठीक हैं न , क्योंकि मैं हूँ  तुम्हारा इकलौता समझदार बेटा

स्नोवाइट की तस्वीर बनाई , पर इसके पैर ताबूत में पसरते नहीं 

बड़े हो कर तुम्हारी तरह बनाऊँगा अक्षर , और तुम्हारी तरह 

मिलेंगे मुझे भी बहुत पैसे , और  तब रोज़ लाऊँगा मैं

कार , तलवार और पासा ,लेकिन तुम्हारे लिए यह सब नहीं, बल्कि 

लाऊँगा केक ,किताब और दस्ताने , जैसे स्नोवाइट के लिए लायें  बौने 

और घोड़ा औ बन्दूक अपने लिए , तुम आज कुछ नहीं लाई मेरे लिए ?

सिर्फ़ मज़ाक में पूछता हूँ , नहीं लाई फ़िर भी तुमसे प्रेम करता हूँ 

सिर्फ़ गंदे बच्चें माँगतें हैं हर रोज़ कुछ न कुछ 

आज वो बर्फ़ वाली कविता सुनाओ , बर्फ़ गुलगुलो का आँचल 

क्या हुआ हैं माँ तुम्हें ? फ़िर पहले की तरह   उदास हो तुम ?

तुम्हें किसी ने दुखी किया है क्या ? मैं डंडे से मारूँगा उसे 

जानती हो, पिछले साल मेरी लाल गेंद भी   छीन ली थी 

उस गुंडे ने सड़क पर , लेकिन तब मैं सिर्फ़ एक छोकरा था 

पर अब गुरुगुंटाल हूँ  मैं , ठोकूँगा ख़ूब उसे गर मिल गया तो 

माँ , तुम्हें चूमा नहीं अभी तक ,उदास मत हो ,अपना मुखड़ा  दो 

इधर झुको .. नहीं झुक सकती, जानती हो, महाआलसी हो तुम 

ठीक है , कुर्सी पर चढ़ कर आता हूँ , आह.. बहुत भारी है कुर्सी 

 यहाँ ..  दुखता है माथा ?अभी भगाता हूँ दर्द ,चूमता  हूँ उधर ही 

पुच्च  ..एक बार और , तीन बार.. और एक बोनस 

देखो ! अब तुम बिलकुल ठीक हो गयी हो 

ठीक है न मेरी प्यारी माँ , मुश्किल काम था 

पर कोई बात नहीं 

लेकिन अब तो तुम मेरे साथ खेलो माँ !



कवियत्री - Kaffka Margit 

जन्म -   10th June ' 1880 , Nagykároly

निधन - 1s December ' 1918 , Budapest 


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

  

Sunday, December 27, 2020

हंगेरियन कविता - Betlehemi Királyok का हिन्दी अनुवाद


ऐसा मानना  है कि भगवान् यीशु के जन्म पर पूर्व दिशा  से तीन राजा , भगवान्  यीशु को देखने बैतलहम गए।  अत्तिला योझेफ  की यह कविता इसी प्रसंग पर आधारित है। 


Betlehemi Királyok - बैतलहम के राजा 


 नमस्ते, नमस्ते यसु हमारे 

राजा तीन हैं  द्वार तुम्हारे 

तारा सर पे ठहर गया था 

दौड़े  आयें समय कहाँ था 

नन्हीं भेड़ ने बतलाया था 

यहीं पे रहते यसु मसीहा 

मेन्यारत  राजा मेरा नाम 

बना दो बिगड़े मेरे काम । 



ईश्वर पुत्र नमस्ते ,नमस्ते 

सुनो , नहीं हम बूढ़े पंडे

सुना, तेरा जन्म  हुआ है 

तू ही ग़रीबों का राजा है 

हैं चरणों में तेरे आ पहुँचे

मोक्ष पाने,  स्वर्ण देश में 

गाशपार  मैं,  ख़ाकसार हूँ 

राजा ज़मीन का, ग़ुबार हूँ । 



तुमसे मिलने आयें हैं हम 

गरम देश से आयें हैं हम 

दाल-भात सब खत्म हुआ 

चमकीला बूट भी टूट गया 

छह मुट्ठी भर सोना लायें

गन्धरस ,लोहबान भी लायें

राजा बोल्दिज़ार  कहो तुम 

हूँ मैं काला भूत, सुनो तुम । 



लाज की किरणें मद्धम मद्धम 

बहुत ही ख़ुश थी माँ मरियम 

ख़ुशी के आँसू यूँ झरते थे 

जिनमें नज़र यसु पड़ते थे 

गाये  ख़ुशी का गीत गडरिया 

अब दूध पीयेंगे यसु मसीहा 

जाओ, जाओ राजाओं अब 

शुभ रात्रि,  जाओं तुम सब । 




कवि -         József Attila

अनुवादक : इन्दुकांत आंगिरस 



Saturday, December 26, 2020

कीर्तिशेष पद्मश्री शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी और उनकी दास्ताँगोई



घरौंदे पर बदन के फूलना क्या 

किराए पर तू इस में रह रहा है 


        कीर्तिशेष पद्मश्री शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी इस बात से बख़ूबी वाकिफ़ थे कि जिस घरौंदे में वो रह रहे हैं वो किराए का है। शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी उर्दू ज़बान के मारूफ़ शाइर और समालोचक है। उर्दू साहित्य उनके साहित्यिक योगदान को कभी भुला  नहीं पायेगा। उर्दू के अलावा  अरबी , फ़ारसी और अँग्रेज़ी भाषा में भी इनकी गहरी पैठ थी।  इन्होने १९६६ से २००६ तक   इलाहाबाद से प्रकाशित उर्दू अदब की पत्रिका " शबख़ूँ  "का सम्पादन किया। पेशे से डाक विभाग में कार्यरत थे लेकिन University of Pennsylvania  में पार्ट टाइम प्रोफ़ेसर भी थे। इनकी किताब " शे'र -ए-शोर अंगेज़ " ( 3 भाग ) के लिए इनको १९९६ में " सरस्वती सम्मान " से नवाज़ा गया। २००९ में इनकी  साहित्यिक उपलब्धियों के लिए इन्हें भारत सरकार द्वारा  " पद्मश्री " सम्मान से भी नवाज़ा गया।

साहित्य से लगभग लुप्त होती कला " दास्ताँ गोई " को पुनर्जीवित करने का श्रेय भी इन्हीं को जाता है। २००६ में प्रकाशित इनकी किताब " कई चाँद थे सरे आसमान " ने इनको आसमान की बुलंदियों तक पहुँचा दिया। इस मशहूर किताब का अँगरेज़ी भाषा में तर्जुमा " The Mirror of Beauty  " के नाम से उपलब्ध है। इनके द्वारा रचित पुस्तकों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त हैं लेकिन चंद उल्लेखनीय किताबों के नाम देखें-


1  ग़ालिब , अफ़साने की हिमायत में 

2 .शे'र ,ग़ैर शे'र और नस्र

3. मीर तक़ी मीर ( 1722 -1810 ,टिप्पणियों के साथ मीर का समग्र साहित्य  )

4. उर्दू का इब्तदाई ज़माना 

5. सवार और दूसरे अफ़साने 

6. कई चाँद थे सरे आसमान 


 शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी ने उर्दू  अदब में अपनी एक अलग पहचान बनाई और उनके किताबें साहित्य जगत में बहुत चर्चित रहीं। उम्मीद है कि उनकी बेशक़ीमती किताबों  का हिन्दी भाषा में भी यथाशीघ्र अनुवाद उपलब्ध होगा जिससे कि हिन्दी के पाठक भी उनकी किताबों से लाभान्वित हो सकेंगे। उन्हें हमेशा अपने लिए एक नई दुनिया की तलाश थी और उनकी यह तलाश २५ दिसंबर २०२० को पूरी हो गयी। उन्हीं का यह शे'र देखें - 


बनायेंगें   नई   दुनिया हम अपनी 

तिरी  दुनिया में अब रहना नहीं हैं 




जन्म -    30th September ' 1935

निधन -  25th December ' 2020





Wednesday, December 23, 2020

कीर्तिशेष चंद्रकिरण राठी और उनकी किताबी दुनिया

 


                                                        कीर्तिशेष चंद्रकिरण राठी


मुझे ठीक से याद नहीं कि मेरी पहली मुलाक़ात चंद्रकिरण राठी से दिल्ली में कब और कहाँ   हुई लेकिन जब मैं अपनी हंगेरियन भाषा की अध्यापिका डॉ कौवेश मारगीत  के साथ लगभग तीन वर्ष पूर्व उनके ग्रेटर नॉएडा वाले घर  पर पहुँचा तो उन्होंने मुझसे कहा -" हम पहले भी कही मिल चुके हैं , शायद किसी साहित्यिक कार्यक्रम में " तो मुझे भी किसी धुँधली मुलाक़ात की याद आ गयी। श्री गिरधर राठी से तो हंगेरियन अनुवाद के सिलसिले में पहले भी मुलाक़ाते हो चुकी थी। 

हम लोग हंगेरियन कवि - साहित्यकार , अरान्य यानोश की कविताओं के हिन्दी अनुवाद पर श्री गिरधर राठी से उनकी विशेष राय जानने  के लिए गए थे।  इस सिलसिले में हमे दो दिन उनके घर जाना पड़ा। दोनों दिन हमे चन्द्रकिरण राठी का  स्नेह एवं प्रेम प्राप्त हुआ। उन्होंने बड़ी आत्मीयता से हमारा यथोचित सम्मान किया और उनके घर पर खाई  मक्के की रोटी और सरसो का साग आज भी याद है। 

 चंद्रकिरण राठी एक लेखिका के साथ साथ अच्छी अनुवादक भी थी।इन्होने बांग्ला और अँग्रेज़ी भाषा से उल्लेखनीय अनुवाद कार्य किया है।  केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो में वरिष्ठ अनुवादक के रूप में कार्य किया ,बी बी सी से भी जुडी रही और अनेक व्यस्क विदेशियों को हिन्दी सिखाई। किताबों से उन्हें विशेष प्रेम था।  उनका मानना था कि किताबे पढ़ कर ही एक आदमी , इंसान बन सकता है। पुस्तकों के प्रचार-प्रसार में उन्होंने अपनी ज़िंदगी का एक लम्बा अरसा गुज़ारा। ग़रीब बच्चों को  पुस्तकें उपलब्ध कराने में उन्हें विशेष ख़ुशी मिलती थी।  ग्रेटर नॉएडा के M S X  मॉल में " पोथी वितरण केंद्र " से पुस्तकों का प्रचार -प्रसार एवं बिक्री। मुझे याद है कि उन्होंने हमसे उस पुस्तक केंद्र को देखने की बात कहीं  थी लेकिन समय अभाव   के कारण हम लोग उस दिन वहाँ नहीं जा पाए थे। 


हिन्दी साहित्य संसार ,कीर्तिशेष चंद्रकिरण राठी के साहित्यिक सहयोग को कभी भुला नहीं पायेगा । जिस साहित्यकार ने अपनी पूरी ज़िंदगी पुस्तकों के प्रचार में बिता दी हो ,आइये  उनके द्वारा रचित बेशक़ीमती किताबों से भी परिचित हो जाएँ  । 



प्रकाशित पुस्तकें -

1. बांग्ला एवं अंग्रेजी से अनु: उड़न छू गाँव (हंगारी कहानियाँ, राजकमल ,  फिर वाग्देवी से प्र.), 
2. रवीन्द्र नाथ निबंध तीसरा खंड, 
3. और ताराशंकर बन्दोपाध्याय मोनोग्राफ(साहित्य अकादेमी),
4 & 5. नवनीता देवसेन की दो किताबें( वाग्देवी ,बीकानेर), 
6. डा कर्ण सिंह की हिंदू धर्म पर, बिना अनु. नाम, (भारतीय ज्ञानपीठ )
7. सत्यजित राय की कहानियाँ . जहाँगीर की स्वर्ण मुद्रा(राजकमल ),। 
8. ऋत्विक घटक की कहानियाँ . ,संभावना हापुड़ से प्रकाशनाधीन।  
9. पुस्तिकाएँ राज. प्रौढ़ शिक्षा सं. से शतरंज पर,
10. सुकुमार  राय की बाल कथा - जतीन का जूता(ईशान/राजकमल ).



जन्म -   29th February ,   1944
निधन - 17th December ,  2020



NOTE - उनके सुपुत्र श्री विशाख राठी को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया। 

Sunday, December 20, 2020

हंगेरियन कविता- A két Természet और Prozai S Poétai szólas का हिन्दी अनुवाद


 A két Természet :  प्रकृति  - दो पहलू


कविता मिलती  है बुज़ुर्गों से और  असभ्यता से  

अक्षुणत:  परिदृश्य  और आत्मा को  जकड़ती  है 

और तुम्हारा कहना है  कि यह  सब एक है ,और 

पवित्र प्रकृति के लिए तुम्हे ग्रीष्म वापिस चाहिए 

जो दिखता है तुम्हे ग्रीष्म प्रकृति  में ,यह वही है- 

प्रकृति की  यह सुन्दर  कला उसके लिए नहीं है । 



 Prozai  S Poétai szólas :  गद्य ओर कविता का वार्तालाप 


यक़ीनन , तुम्हीं हो उस्ताद और  उरूज़ 

तुम्हीं हो सत्य 

तुम्हारी इस्लाह के बाद ही दौड़ती  हैं  

मेरी कविताएँ

और जब पसरती हैं गद्य पर 

तब कविता ओर गद्य में कोई फर्क नहीं रह जाता। 



कवि -  Kazinczy Ferenc (1759-1831)


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस










Wednesday, December 16, 2020

हंगेरियन लोक कथा - A róka meg a sajt का हिन्दी अनुवाद



A  róka meg a sajt - लोमड़ी  और पनीर 


प्राचीन समय की बात है , सात समुन्दर पार एक लोमड़ी रहती थी। एक बार चाँदनी रात में लोमड़ी एक अमीर आदमी के आँगन में कुछ खाने के लिए घुस गयी। वहाँ मुर्गियाँ और सूअर इधर-उधर घूम  रहें थे लेकिन लोमड़ी को खाने के लिए कुछ भी न मिला। 

वह निराश हो कर आँगन से जाने ही वाली थी कि तभी उसकी निगाह आँगन के बीचो-बीच  एक कुँए पर पड़ी। वह  कुँए की  तरफ़ गयी ,  कुँए की मुंडेर पर दोनों टाँगों से खड़े होकर कुँए के पानी में झाँकने लगी। तभी उसने पानी में चाँद की परछाई देखी और उसने सोचा कि वह पनीर का एक बड़ा टुकड़ा है। 

लोमड़ी सोचने लगी कि किस तरह  कुँए  के भीतर पहुँचे जिससे कि उसे पनीर खाने को मिल जाये। शीघ्र ही उसने तरकीब खोज निकाली। वह कुँए  के ऊपर चढ़ गयी और वहाँ लटकी दो बाल्टियों में से एक में बैठ गयी। यह बाल्टी दूसरी बाल्टी की तुलना में भारी हो गयी और वह तत्काल पानी में उतर गयी। 

जब लोमड़ी  कुँए के भीतर पहुँची  तो उसे एहसास हुआ कि जिसे वह पनीर समझ रही थी वह तो चाँद की परछाई थी। वह अफ़सोस करने लगी कि कुँए  के भीतर क्यों उतरी, लेकिन अब बाहर आना मुश्किल था। दुखी होकर सोचने लगी कि अब क्या होगा। तभी एक भेड़िया भी खाने की तलाश में उसी आँगन में आ गया। उसे भी  इधर-उधर घूमती मुर्गियाँ और सूअर ही मिले लेकिन खाने के लिए कुछ न मिला। 

वह भी जब आँगन छोड़ के जाने ही वाला था , उसकी निगाह भी  कुँए पर पड़ी और वह कुँए की ओर चल पड़ा। कुँए की मुंडेर पर दोनों टाँगों से खड़े होकर कुँए  में झाँकने लगा। उसने देखा वहाँ बाल्टी में एक लोमड़ी थी ओर उसके पास ही एक बड़ा पनीर का टुकड़ा।  


- तुमने वहाँ पहुँच कर कमाल कर दिया , उस पनीर में से थोड़ा पनीर मुझे नहीं दोगी खाने को ? भेड़िये ने लोमड़ी से पूछा। 


- क्यों नहीं भेड़िये भैया ,ज़रूर दूँगी - लोमड़ी ने जल्दी से जवाब दिया। 


- लेकिन मैं वहाँ तक पहुँचू   कैसे ?


- कुँए  पर चढ़ कर उस खाली बाल्टी में बैठ जाओ , आराम से नीचे पहुँच जाओगे।  - लोमड़ी जानती  थी  कि भेड़िये का वज़न उससे ज़्यादा है और  जब भेड़िया  कुँए  में उतरेगा तो वह अपने आप कुँए से बाहर आ जाएगी। 

भेड़िया बाल्टी में बैठ नीचे उतरने लगा और लोमड़ी की बाल्टी ऊपर आने लगी।  जब भेड़िया लोमड़ी के करीब पहुँचा तो लोमड़ी ने भेड़िये  को बेहतरीन भोजन की शुभकामनाएँ दी और जैसे ही उसकी बाल्टी ऊपर पहुँची वह बाल्टी में से कूद कर भाग गयी। 


नीचे पहुँच कर भेड़िये को पता चला कि उसे बेवकूफ़ बनाया गया था।  कुँए में पनीर नहीं बल्कि चाँद की परछाई थी लेकिन अब वह कर भी क्या सकता था। उसे सुबह होने तक वही बैठना पड़ा। सुबह  होने पर  जब ज़मीदार  जानवरों  के लिए पानी लेने आया तो उसने देखा वहाँ बाल्टी में एक भेड़िया बैठा था। उसने चिल्ला कर पड़ोसियों को बुलाया।  सबने मिलकर भेड़िये को कुँए से बाहर खींचा और उसे मार दिया।  उसकी खाल के भी अच्छे दाम मिले। 


इस प्रकार इस क़िस्से  का समापन हुआ। 



अनुवादक - इन्दुकांत  आंगिरस 

Sunday, December 13, 2020

हंगेरियन कविता - Altató का हिन्दी अनुवाद


                                                            
József Attila


अत्तिला  योझफ हंगरी के प्रसिद्ध  कवि है। हंगरी   में ११ अप्रेल ,  राष्ट्रिय कविता दिवस के रूप में मनाया जाता है जोकि अत्तिला  योझफ का जन्म  दिवस है।  बुदापैश्त में डेन्यूब नदी के किनारे उनकी सुन्दर मूर्ति भी देखी जा सकती है। आइए , आज पढ़ते हैं उनकी एक कविता का हिन्दी अनुवाद। 



Altató - लोरी


आकाश ने मूँदी नीली आँखें 

घर में मूँदी सबने आँखें 

रजाई में सोयें हरे मैदान 

चैन से सोओ तुम बलाज़


पैरों पर रख  सर को अपने 

कीड़ा ,मक्खी सोयें भैया 

उनके साथ सोयें ततैया 

चैन से सोओ तुम बलाज़


ट्राम भी थक कर सो गयी 

ऊँघ रही है खखड़ाहट 

सपने में बजती थोड़ी -सी 

चैन से सोओ तुम बलाज़


कुर्सी पे रखा कोट भी सोया 

उधड़न   भी अब ऊँघ रही 

बस और नहीं उधड़ेगी अब 

चैन से सोओ तुम बलाज़


ऊँघती गेंद ,एक जाम और 

जंगल की कर लो सैर और 

मीठी चीनी भी सो गयी 

चैन से सोओ तुम बलाज़


दूरिया सब कंचों की मानिंद 

बड़े हो कर सब पाओगे 

मूँद लो नन्हीं आँखें अपनी 

चैन से सोओ तुम बलाज़


सैनिक , फ़ायरमैन बनोगे 

या तुम बनोगे चरवाहे ?

देखो, सो गयी माँ तुम्हारी 

चैन से सोओ तुम बलाज़



कवि - József Attila

जन्म -  11th April ' 1905 - Budapest

निधन - 03rd December ' 1937  - Balatonszárszó


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस 


Thursday, December 10, 2020

हंगेरियन कविता - Meg kell halnom itt का हिन्दी अनुवाद


                                                             
Balázs Béla 


Meg kell halnom itt- मुझे यहीं त्यागने हैं अपने प्राण



नहीं जानता तुम्हें,अपरिचित हो तुम सभी मेरे लिए 

न  कभी तुम्हारी तलाश थी , न मुझे तुम से प्रेम है 

तुम्हारे बंद दरवाज़ों पर जमा मेरी  मुट्ठियों का ख़ून

लाल हो गयी  मेरे होठों के लहू से तुम्हारी दहलीज़

आने दो भीतर मुझे,मुझे यहीं त्यागने हैं अपने प्राण 


नहीं जानता किसने भेजा ,मालूम नहीं  उसका नाम 

ज़िंदगी की तवील  सड़क , भूल चूका हूँ उसका नाम 

 कोड़ों की मार ने धकेला , सुनो कोड़ों की आवाज़ 

अपने भीतर की आवाज़ में फ़िर सुनी वही आवाज़  

जो कहती  हैं तुमसे - मुझे यहीं त्यागने हैं अपने प्राण 


अब तक सुना चुके होंगे तुम्हें शीर्षस्थ संदेशवाहक 

जातीय वंशजों का वही  पुराना गीत और कहानी 

एक   सेना के सामने, तन कर खड़े होंगे तुम सभी  

लेकिन मैं अकेला , गुमनाम , क़दम भी न बढ़ा सका

आता -जाता आवारा, मुझे यहीं त्यागने हैं अपने प्राण 


मैं अकेला ,अंतरिक्ष में भेदे  तीर की मानिंद

अनेक  वंशजों के हुजूम को पार कर गया  

एक युवा भीड़ को , युवा जातीय वंशजों को

सुनो , मुझे भेजा है मेरे पूर्वजों के पूर्वजों ने 

इक भूले पूर्वज के लिए , मुझे यहीं त्यागने हैं अपने प्राण    


तुम्हारे बंद दरवाज़ों पर जमा मेरी  मुट्ठियों का ख़ून

लाल हो गयी  मेरे होठों के लहू से तुम्हारी दहलीज़

अपरिचित हो तुम ,  लेकिन खोल दो  बंद दरवाज़ें  

क्योंकि अजनबियों के लिए ,  ऐसा ही था आदेश

तुम समझ सकते हो, मुझे यहीं त्यागने हैं अपने प्राण




कवि - Balázs Béla  

जन्म -  4 अगस्त ' 1884 - Szeged 

निधन - 17 मई ' 1949  - Budapest


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस 



Wednesday, December 9, 2020

Tetőn - शिखर पर


 साहित्य संसार में यह अक्सर देखने को मिलता है कि कोई कवि या लेखक दूसरे कवि या लेखक से इतना मुतासिर होता है कि उसकी याद में कोई कविता या संस्मरण लिख डालता है। Károly Kós हंगरी के प्रसिद्ध लेखक , वास्तुकार ,कलाविद एवं राजनीतिज्ञ थे। Hervay Gizella ने प्रस्तुत कविता उन्हीं  को समर्पित की है  । 


Tetőn - शिखर पर


Kós Károlynak - कारोयी कोश के नाम 


पतझड़ ने इतने पत्तों को  कभी नहीं गिराया 

और  इतना  डरावना शब्द -सब   रीत गया 


कई दिनों  भटका,रातों को भी सो न सका 

और इतवार की सुबह मैं  पहाड़  पर गया 


वहाँ नीचे घाटी में पसरा था  तन्हा अँधेरा 

यहाँ ऊपर पुराना पहाड़ था अचल खड़ा 


नंगे शिखर देखते असीमता को सदियों से 

मंज़र बनाया था साफ़ दमकती रौशनी ने 


वहाँ नीचे कसमसाती थी   घाटी ताप से 

यहाँ ऊपर सफ़ेद पनीर परोसते चरवाहे 


शान्ति का शब्द उभरता  उसके होंठों पे 

करता  है  प्रतीक्षा वो  शान्ति से बाड़े में 


दूर  जहाँ बर्फ़ का  राजा करता था राज 

आकाश ने फैलाया असीम परचम आज 


पंख मेरी उड़ान के तब टूट गए थे सब 

समेटे थे  बाँहों में लहरों के क्षितिज सब 


देखकर शिखरों को यूँ ही सदियों से 

यही रहस्य्मय शब्द निकला होठों  से -

ट्रान्सिलवानिया  



कवि - Hervay Gizella 

जन्म - 10 अक्टूबर ' 1934- Makó

निधन -  02 जुलाई ' 1982 - Budapest


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस


Monday, December 7, 2020

हंगेरियन कविता - Én nem mozdultam का हिन्दी अनुवाद


Én nem mozdultam  - मैं हिला भी नहीं था


 पुरानी  डगर  पर फ़िर से आख़िर  तक गया था 

इक पतझड़ी जंगल की मानिंद दबे पावँ गया था 

जैसे जाती हुई गरमी में क़ालीन पे पड़े मिरे पावँ 

जैसे मेरी आत्मा के सन्नाटें  में पसरती  पत्तियाँ

शायद मैं गया  नहीं था ? शायद कभी नहीं गया  

जैसे पतझड़ी जंगल में लगातार गिरती पत्तियाँ 

धुँधलाता सूरज स्मृति में अतीत-सा  बन गया 

मैं पत्थर -सा ,झड़ती पत्तियों के नीचे खड़ा था

एक बार फ़िर से तीसा* के किनारे खड़ा था 

वहीं , जहाँ मेरी तमन्ना  झरने की बूँदों में भीगी 

जिसके साथ मैं दूर तक भटकता रहा था 

लेकिन मेरी तमन्ना वहाँ मौन प्रतीक्षारत थी 

वहीं, उसी राह पर जहाँ अनेक दिन गुज़ारे थे: 

क्यूँकि  ठहरी है तीसा*  और ज़मीन बह रही है  । 



कवि - Balázs Béla  

जन्म -  4 अगस्त ' 1884 - Szeged 

निधन - 17 मई ' 1949  - Budapest


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस 


NOTE -  तीसा* यूरोप की इक मुख्य नदी है जो हंगरी  में उत्तर दिशा से दक्षिण की ओर बहती है। 

Sunday, December 6, 2020

Elefánt -हाथी


 

पक्षियों और जानवरों पर कवि और लेखक सदा से  ही लिखते  आयें हैं। प्रकृति के तिल्सिम से बेपरवाह रहना मुमकिन भी कब था। हाथी सम्पूर्ण विश्व में एक लोकप्रिय जानवर रहा  है जोकि सभी को आकर्षित करता है और विशेष रूप से बच्चों को। विश्व साहित्य में हाथी  के ऊपर अनेक रचनाएँ मिल जाएँगी।  आइए आज पढ़ते हैं हाथी पर लिखी एक हंगेरियन कविता  का हिन्दी अनुवाद-  



Elefánt -हाथी 


अंधड़ ले उड़ा खजूर का पेड़ 

और साथ साथ जंगली झाड़ 


विशालकाय शरीर पर 

भारी - भरकम चमड़ी पर 

गिरते रहे बड़े ठूँठ धड़धड़ाते 

उद्दाम नदियाँ उफ़नती उसके आगे 

आकाश की ओर सूँड उठा  बिगुल बजाता 

इसीलिए था हाथी जीता  


उसके बाद आयें ज़हरीले मच्छर 

और डंक मारने वाले कीड़ें 

उतरते रहें पेट पर उसके रोज़ 


खुजली से पतवारी कान फड़फड़ा कर रह गये

थक हार कर दलदल में टेक दिए उसने घुटने 

गहराई में धँसे अपने दाँत और मछलियों को 

देखता था मुहँ फाड़ 


अंततः ज़हरीले मच्छर और डंक मारने वाले कीड़ें 

मेरे मृत शरीर को छोड़ जाते रहे हर रोज़ 

और एक बवंडर लिए निकल पड़े नए हाथी की तलाश में। 



कवि - Monoszlóy Dezső 

जन्म - 28 दिसंबर ' 1923 -Budapest

निधन - 1 मई ' 2012 -  Bécs


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

Saturday, December 5, 2020

हंगेरियन कविता - A mi nyelvünk का हिन्दी अनुवाद

Kazinczy Ferenc ने   १९वी शताब्दी के आरम्भ में हंगेरियन भाषा और हंगेरियन साहित्य के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके अथक प्रयासों से ही १८४४ में हंगेरियन भाषा हंगरी राष्ट्र की राष्ट्र भाषा बनी। Kazinczy  Ferenc कवि के साथ साथ लेखक और अनुवादक भी थे। हंगेरियन भाषा से सम्बंधित उनकी  कविता  A mi nyelvünk का  हिन्दी अनुवाद पढ़ें -


A mi nyelvünk - हमारी भाषा  


 सुन्दर  ग्रीक   के लिए ईश्वरयी विपदा ,  रोमन विराटता 

फ़्रांसिसी लालित्य ,जर्मन जोश औ हेस्पारियन गरमाहट 

तुम सबको मेरी सुन्दर भाषा से ईर्ष्या है 

और तुम्हें  उससे कोई ईर्ष्या नहीं होती ? 

होमर और विर्जिल की भाषा 

ग़र यूरोप के दूसरे इलाकों में मिले तो ,

बेहतरीन  ईश्वरयी बाँसुरी पाषाण हो गयी क्या ? 

वह चरमराहट नहीं गर्जन है , ज़रूरत पड़ने पर दौड़ती है 

जैसे कि आदमी अपने लक्ष्य की ओर

राह में टूटती नहीं , अपितु दौड़ते-कूदते , फ़िसलते हुए 

पसरती है गर्माते स्तनों पर 

आह भरने को अधरों पर ठहरा गहरा  दुःख 

और सुनो ! पोलिश और इतालवियों 

तुमसे बेहतर कराहता है हमारा प्रेम 

ज़ंजीरें खनखनाती हैं , सिरहाने खड़ा है वक़्त 

ओर हम खड़ें हैं तुम सबके बीच। 



कवि -  Kazinczy Ferenc (1759-1831)


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस


हंगेरियन क्षणिकाओं का हिन्दी अनुवाद


Kazinczy Ferenc ने   १९वी शताब्दी के आरम्भ में हंगेरियन भाषा और हंगेरियन साहित्य के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके अथक प्रयासों से ही १८४४ में हंगेरियन भाषा हंगरी राष्ट्र की राष्ट्र भाषा बनी। Kazinczy  Ferenc कवि के साथ साथ लेखक और अनुवादक भी थे। हंगेरियन भाषा से सम्बंधित उनकी कुछ क्षणिकाओं  का  हिन्दी अनुवाद पढ़ें -



A nagy titok - बड़ा रहस्य 


अगर ठीक और बढ़िया होने के   बीच छुपे रहस्य को नहीं समझते

तो बस खेती-बाड़ी करो और बलिदान को दूसरों के लिए छोड़ दो 


A Kész irók - पूर्ण लेखक


लूले -लंगड़े हो कर भी नाचते हो ,लिखते हो पर  भाषा से अज्ञान  

पंख   तो   तुम्हारे हैं    ही नहीं , बस चुप   रहो और  भरो  उड़ान 


Misoxenia - परदेसियों  से नफ़रत

सुख नहीं चाहिए गर  उसमे मानवता औ वतनपरस्ती न हो 

मेरे लिए मानवता बस , बुदा और पैश्त  मेरे असली घर हों  


Irói érdem - लेखकीय मान्यताएँ 


कहो कौन हो तुम ? अब नहीं कहूँगा , तुम से परिचित हूँ 

मेरे लिए खाली बकवास किसी बकवास से कम नहीं है 

बढ़िया वाइन में रंग ,   ज़ायका और तपिश होनी चाहिए 

उस्ताद के कलाम में रस ,ज़ायका और आग होनी चाहिए 



कवि -  Kazinczy Ferenc (1759-1831)


अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस 

Saturday, November 28, 2020

हंगेरियन लतीफ़े -Pingvin , Taxiban , Bánat


 हंगेरियन लतीफ़े


Pingvin - पैंग्विन 


सोमवार :

- इस पैंग्विन के साथ क्या कर रहें हो ?

- सड़क पर मिल गयी थी , मैं भी तुम से यही पूछने जा रहा था कि क्या करूँ इसका ?

- क्या बेहूदा सवाल है , चिड़ियाघर ले जाओ इसे। 


मंगलवार :


-  पैंग्विन अभी भी तुम्हारे साथ ही है ? चिड़ियाघर नहीं ले कर गए ?

- कल चिड़ियाघर ही ले गया था।  आज हम दोनों फ़िल्म  देखने जा रहें हैं। 



Taxiban -टैक्सी में 


सवारी - मैंने ठीक से गिनती की है , आप अभी तक सात बार रेड लाइट सिग्नल तोड़ चुके हैं। अब सिग्नल हरा है ,अब  क्यों रुके हो ?


ड्राइवर -  पागल नहीं हूँ मैं , चैराहे के दूसरी तरफ़ से मेरे साथी लोग आ रहें हैं। 



 Bánat - पछतावा  :


- क्या हुआ तुम्हें , इतने दुखी क्यों हो ?


- अरे  क्या बताऊँ ,कल शाम मेरे एक सहकर्मी  ने इतनी शराब पी ली कि नशे में केलेति रेलवे स्टेशन ही बेच डाला। 


- ये सरासर पागलपन है , पर इसके लिए तुम क्यों परेशान हो रहें हो ?


- क्यों कि मैंने ही उसे ख़रीदा था। 



अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

Monday, November 16, 2020

कीर्तिशेष सर्वेश चंदौसवी और उनका निसाब




 उस्तादों के उस्ताद  कीर्तिशेष सर्वेश चंदौसवी से मेरी पहली मुलाक़ात शायद ३५ वर्ष पूर्व दिल्ली में ही हुई थी।  लगभग ५ फुट ५ इंच का क़द , फ़िक्र में डूबे लेकिन लबों पर सदा मुस्कराहट , उनकी गर्मजोशी आज भी याद है।  जनाब सर्वेश चंदौसवी अक्सर परिचय साहित्य परिषद् की महाना नशिस्तों में रूसी सांस्कृतिक केंद्र में आते और अपनी पुरज़ोर  आवाज़ में ग़ज़ल और गीत पढ़तें। अपने काव्य पाठ के दौरान उन्हें  किसी तरह का दख़ल पसंद नहीं था लेकिन हर अच्छे शे'र पर खुल कर  दा'द ज़रूर देते। चंदौसी शहर में जन्मे सर्वेश चंदौसवी विज्ञान  के विद्यार्थी रहे लेकिन शाइरी  उनके ख़ून में बसती थी।  ग़ज़ल जैसी मुश्किल विधा पर उनको महारत हासिल थी। उनके गुरु ईश्वर और प्रकृति थे ,उन्होंने ख़ूब मेहनत  कर शाइरी का इल्म हासिल किया और हिंदी व उर्दू साहित्य संसार में अपनी अलग पहचान स्थापित करी। किन्ही पारिवारिक कारणों से उनकी पुस्तकों  का प्रकाशन काफ़ी देर से हुआ।  जब  २०१४ में उर्दू शाइरी पर उनकी १४ किताबें  एक साथ प्रकाशित हुई तो साहित्यिक जगत हतप्रभ हो गया। इसी सिलसिले में २०१५ में १५ किताबें  ,२०१६ में १६ किताबें  , २०१७ में १७ किताबें  ,२०१८ में १८ किताबें  ,२०१९ में १९ किताबें  उनके जीवन में ही प्रकाशित हो गयी लेकिन इस सिलसले की अंतिम कड़ी यानी २०२० में २० किताबों के प्रकाशन का स्वप्न   टूट गया और हमने  एक बड़े शाइर को खो दिया।  उनके शागिर्द उनके इस अधूरे स्वप्न को पूरा करने में लगे हैं और आशा हैं कि २०२० के अंत से पहले ही उनकी २० किताबें प्रकाशित हो जाएँगी। 

                                   उनके द्वारा रचित कुल ११९ किताबें हिन्दी और उर्दू साहित्य जगत  में एक मिसाल बन चुकी हैं। ग़ज़ल के अलावा उन्होंने क़तआत ,रुबाई ,तसलीस , दोहा ,कहानी विधा में भी लेखन किया।  अपनी हर ग़ज़ल की पुस्तक  में उन्होंने ग़ज़ल के व्याकरण को अत्यंत  सरल शब्दों में व्यक्त किया जोकि हर ग़ज़लकार के लिए किसी ख़ज़ाने से कम नहीं , विशेषरूप से नव ग़ज़लकारों के लिए ये पुस्तकें अत्यंत मददगार साबित हो चुकी हैं।  अपनी पुस्तक " फ़ने उरूज़ नस्ले नौ और मैं " के ज़रीये उन्होंने नयी पीढ़ी तक ग़ज़ल के उरूज़ को पहुँचाने का प्रयास किया। 

मैं उनका शागिर्द तो नहीं था लेकिन अच्छा दोस्त ज़रूर था।  जब कभी भी मुझे किसी लफ़्ज़ के बारे में कुछ पूछना होता तो मैं बेझिझक  किसी भी वक़्त उनसे फ़ोन करके पूछ लेता था , यक़ीनन सर्वेश चंदौसवी हिन्दी , उर्दू ज़बान और ग़ज़ल के उरूज़ के चलते-फिरते इनसाइक्लोपीडिया  थे। हिन्दी और उर्दू ज़बान पर उनकी गहरी पैठ थी और उनका हाफ़िज़ा भी क़ाबिले तारीफ़ था। 


मेरी उनसे आख़िरी मुलाक़ात बैंगलोर में कवि मित्र  श्री कमल राजपूत 'कमल ' के घर पर हुई थी , जहाँ वे कमल राजपूत के निमंत्रण पर तीन  दिनों के लिए बैंगलोर आये हुए थे।  दोपहर का भोजन हमने साथ मिलकर खाया और उसी दिन शाम की ट्रैन से उनकी दिल्ली की वापसी थी। 

बैंगलोर की उनकी एक और यादगार यात्रा का ज़िक्र भी यहाँ ज़रूरी है जब सर्वेश जी अपने कवि मित्रों और शागीर्दों के साथ बैंगलोर , मैसूर और ऊटी घूमने के लिए आये थे।  इस अवसर पर बैंगलोर के जिनेश्वर सभागार में,  पुस्तकम एवं जैन समय के संयुक्त तत्वावधान में १३ अप्रैल २०१९ को जश्ने ग़ज़ल - कुल हिन्द मुशायरे का आयोजन किया गया। इस यादगार  मुशायरे की सदारत   बैंगलोर के नामवर उस्ताद  शाइर जनाब गुफ़रान अमजद ने की और सर्वेश चंदौसवी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। मुशायरे में देश के कई नामवर शाइरों ने शिरकत फ़रमाई जिनमें सर्वश्री मनोज अबोध , अनिल वर्मा 'मीत ',अरसल बनारसी , विजय स्वर्णकार , असजद बनारसी , ज्ञान चंद मर्मज्ञ ,मोहसिन अख़्तर मोहसिन, नरेश शांडिल्य , माधुरी स्वर्णकार , रूबी मोहंती , शशि कान्त , सुधा दीक्षित , डॉ शशि मंगल, अकरमुल्ला बेग़ 'अकरम ', हामिद अंसारी , गरिमा , शेख़ हबीब , तैयब अज़ीज़, प्रमोद शर्मा 'असर ', इन्दुकांत आंगिरस    के नाम उल्लेख्नीय हैं। 

वैसे तो उनके साथ मेरी अनेक यादे जुडी हैं लेकिन दो वर्ष पहले सर्वेश जी मेरे निमंत्रण पर बैंगलोर आये थे और एक हफ़्ता मेरे साथ ही रहे थें। आख़िरी दिन इत्तफ़ाक़ से मेरा बावर्ची  नहीं आया था।  इससे पहले कि मैं कुछ और व्यवस्था करता सर्वेश जी ने इसरार किया कि आज का भोजन वो पकाएँगे।  उस दिन उन्होंने भिंडी की सब्ज़ी और पूरी बनाई , यक़ीन मानिये इतना लज़ीज़ खाना पहले कभी नहीं खाया था।  मैंने उनसे कहा कि उनके खाना बनाने की बात दोस्तों से साझा करूँगा तो बोले - " इस  बात पे कोई यक़ीन ही नहीं करेगा "। इस एक हफ़्ते में उनसे अंतरंग बाते भी हुई और मुझे मालूम पड़ा कि शाइरी के अलावा भी आप अनेक हुनर जानते थे। 

शेख़ इब्राहिम ज़ौक़  का शे'र ज़हन में कौंध गया -


क़िस्मत से ही मजबूर हूँ ऐ ज़ौक़ वगरना

हर फ़न में हूँ मैं ताक़ मुझे क्या नहीं आता


यह अफ़सोस की बात हैं कि हिन्दी और उर्दू साहित्यिक दुनिया में उनका विरोध करने वालों की कमी न थी। उनके साहित्यिक योगदान  के हिसाब  से उन्हें मान -सम्मान नहीं मिल पाया लेकिन उन्होंने किसी से हार नहीं मानी और अदब का दीप निरंतर जलाते रहे।  आख़िरकार वो दौर भी आया जब साहित्यिक दुनिया को उनके अदब का लोहा मानना पड़ा। इस सिलसिले में हफ़ीज़ जालंधरी का यह शे'र याद आ गया -


' हफ़ीज़ ' अहल -ए-ज़बाँ कब मानते थे 

  बड़े    ज़ोरों से     मनवाया     गया हूँ 



सर्वेश जी बहुत खुद्दार इंसान थे , बनावट और दिखावे से कोसो दूर। उनका मानना था कि जो लोग दूसरों के काँधों पर चढ़ कर तरक्की करते हैं वो ख़ुद बहुत पिछड़े हुए होते हैं। उन्होंने कभी किसी सम्मान को पाने के लिए किस तरह का  जोड़ -तोड़ नहीं किया , उनका मानना था कि जिसके पास हुनर का मोती है ,समुन्दर उनके पास ख़ुद चल कर आते हैं।  उनका यह शे'र देखे - 


क़लम   का 'सर्वेश' जो धनी है 

वो कब किसी से ख़िताब माँगे ?



राज़े - हस्ती है  सर्वेश क्या 

तीन हर्फ़ी 'अजल ' आदमी 


सर्वेश जी  राज़े-हस्ती की हक़ीक़त से बख़ूबी वाकिफ़ थे। सारी ज़िंदगी अदब के ज़रीये इस दुनिया की ख़िदमत करते रहे और ख़िदमत करते करते एक दिन इस दुनिया को अलविदा कह गए। हिंदी और उर्दू साहित्य संसार उनके साहित्यिक योगदान को कभी भुला नहीं पायेगा। उनके शागीर्दों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त हैं जिनमें सर्वश्री विजय स्वर्णकार , अनिल वर्मा " मीत " और प्रमोद शर्मा " असर " के नाम उल्लेखनीय  हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि उनके शागिर्द उनके द्वारा जलाई गयी अदब की मशाल को कभी बुझने नहीं देंगेऔर अदबी दुनिया में उनका नाम रौशन करेंगे।

यक़ीनन ऐसे फ़नकार सदियों में आते हैं जो इस दुनिया से जाने के बाद भी लोगो  के दिलो - दिमाग़  से कभी नहीं निकल पाते।इंशा अल्लाह  उनकी आखिरी ख़्वाइश ज़रूर पूरी होगी -


'सर्वेश ' मेरी आख़िरी ख़्वाइश यही है बस 

पा जाएं मेरे   शे'र    निसाबों की    ज़िंदगी 




जन्म - १ जुलाई ' १९४९ , चंदौसी -उत्तर प्रदेश 

निधन - २5 मई ' २०२० - दिल्ली 



NOTE:

सर्वेश जी के शागिर्द विजय स्वर्णकार और अनिल मीत को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया । 

यह भी एक संयोग ही है कि जनाब सर्वेश चंदौसवी और राजगोपाल सिंह, दोनों की जन्म तिथि १ जुलाई है। 

Tuesday, November 10, 2020

कीर्तिशेष डॉ अर्चना त्रिपाठी और उनके ठहाके



 कीर्तिशेष डॉ अर्चना त्रिपाठी से मेरी पहली मुलाक़ात शायद परिचय साहित्य परिषद् की एक गोष्ठी  में ही हुई थी , अत्यंत सहज ,सरल , नम्र ,  मितभाषी, साहित्य की मर्मज्ञ एक ऐसी  विदुषी थी जिनके मुख पर सदैव एक सहज मुस्कान बिखरी रहती थी। अर्चना त्रिपाठी एक ज़िंदादिल इंसान थी और उनके ठहाकों को कौन भुला सकता है।  हर महीने उनसे मिलने एक दो बार उनके घर चला ही जाता था और कालांतर में उनके पति डॉ वेद प्रकाश मेरे अच्छे मित्र भी बन गए। साहित्य और साहित्यकारों पर अक्सर हमारी चर्चाएं होती और बीच बीच में अर्चना जी के ठहाके। उन्हें ग़ज़ल सुनने का भी बहुत शौक़ था ,अक्सर बेगम अख़्तर की आवाज़ और मीर तक़ी मीर की ग़ज़लें उनके घर में धीमी धीमी आँच के साथ  गूँजती रहती। एक स्त्री होने के नाते वह स्त्री के दुःख दर्द को बेहतर समझ सकती थी और स्त्री विमर्श पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा, उन्ही के शब्दों में -

 "आधुनिक नारी या समकालीन स्त्री के चिंतन का विषय है - स्त्री उसका जीवन और उस जीवन की समस्याएँ। कहने वाले कह सकते है कि वह अपने को समेट रही है केवल अपने जीवन में।  समाज के वृहतर मूल्यों से वह कट रही है।  लेकिन क्या अपनी ओर से आँख मींच कर दुनिया देखी जा सकती है ? तर्क दिए जाते हैं कि ज्ञान को अलग संवर्ग में बाँट कर चर्चा नहीं करनी चाहिए।  स्त्री के मूल्य ओर पुरुष के मूल्य कोई अलग थोड़े ही हैं। फिर भी कोई यह कैसे भूल जाये कि प्रगति के महावृतान्त लिखते वक़्त स्त्री की  भूमिका नगण्य रही। सार्वभौमिक ,तर्कशील  ओर बुद्धिपरायण व्यक्ति ही वास्तव में सत्ता का आधार है ओर बार बार अनिवार्यतः अपनी सारी निष्पक्षता के बावजूद वह पुरुष ही होता है। स्त्री वहाँ हाशिये पर ही है।  स्त्री करे तो क्या करे। इस पितृसत्तात्मक श्रेणीकृत  समाज में अपना स्थान कहाँ बनाये।  यहाँ  यह ध्यान रखना चाहिए कि तकलीफ़ खतरनाक चीज़ है। अतः स्त्री से यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वह अनंत काल तक अंधेरे कोनों में मुहँ लपेटे पड़ी रहेगी।  न्यूटन ने गति का जो तीसरा नियम दिया , वह प्रगति पर भी उतना ही लागू है जितना सामन्य गति पर।  स्प्रिंग तत्व एक सीमा के बाद दबने नहीं देता .  जितनी ज़ोर से स्प्रिंग दबता है उतनी ही ज़ोर से उछलता भी है।  "


अर्चना त्रिपाठी ने एक लम्बे अर्से तक केंद्रीय हिंदी निदेशालय ,दिल्ली में "  सहायक निदेशक " के पद पर कार्य किया और कुछ वर्षों तक " भाषा " पत्रिका का सम्पादन भी किया। एक अधिकारी एवं  साहित्यकार होने के साथ साथ अर्चना त्रिपाठी एक ज़िम्मेदार गृहणी भी थी , अपने दोनों बेटों की पढ़ाई को लेकर हमेशा चिंतित रहती ओर उनको नियमित रूप से पढ़ाया करती थी। लेकिन पढाई के साथ साथ उन्हें इस बात का दुःख भी था कि महानगर दिल्ली में रहते हुए उनके अपने बचपन जैसी उन्मुक्तता अब उनके बच्चो को नहीं मिल पा रही है ,  इसी सिलसले की उनकी कविता की यह पंक्तियाँ  देखें  - 


महानगर ओर बच्चा 


मेरे बच्चों 

नहीं दे पा रहीं मैं तुम्हें

बचपन की उन्मुक्तताएँ 

वो तितली , वो कोयल 

वो कमल   भरे जलाशय 

बैलगाड़ियाँ , नदी , पुआल ,

हर छुट्टी में गावँ , रिश्तेदार 

ठन्डे पानी के कुँए , कुओं में ख़रबूज़े ,तरबूज़ ओर आम 

राधेश्याम रामायण वो हँसी , ठिठोली -

आँधी के आते ही दौड़ना बग़ीचों में 

वो टपकों को बीनना , गिनना ओर बताना 

जैसे जीता हो एक पूरा का पूरा कारगिल 


यहाँ इस महानगर में 

मेर पास तुम्हें देने को है छोटा-सा फ़्लैट

सुबह शाम कभी कभी थोड़ा-सा पार्क  

महीने दो महीने में अप्पूघर ओर मैकडोनाल्ड 

मैकडोनाल्ड की सिंथेटिक क्रीम जैसे सिंथेटिक रिश्ते 


मेरे वंशज , मेरी भावी पीढ़ी , मेरे बच्चों 

हो सके तो मुझे माफ़ कर देना



मैं जब तक दिल्ली में रहता था  उनसे मुलाक़ाते होती रहती थी लेकिन बैंगलोर आने के बाद यह सिलसिला टूट गया था।  मेरी उनसे आख़िरी  मुलाक़ात उनकी मृत्यु से कुछ महीने पहले उनके घर पर ही हुई थी।  दोपहर का वक़्त था , वो घर पर अकेली थी , बहुत ही शांत ओर बुझी बुझी और  उस दिन उन्होंने कोई ठहाका नहीं लगाया। कुछ महीनों के बाद ख़बर   मिली कि अर्चना त्रिपाठी इस दुनिया में अब नहीं रही , उनके ठहाके भी उनके साथ ही चले गए लेकिन  शायद नहीं ....  जिन्होंने भी अर्चना त्रिपाठी के ठहाके सुने हैं , वो उनको आज भी महसूस कर सकते हैं।


अर्चना त्रिपाठी  की  आवाज़ ओर उनका नाम , हंगेरियन अन्वेषक Sándor Kőrösi Csoma के जीवन पर आधारित हंगेरियन डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म Az Élet  Vendége में भी पढ़ा-सुना  जा सकता है। 



प्रकाशित पुस्तकें -


शब्द बोलेंगें - कविता संग्रह 

काली मशाल - अफ़्रीकी कविताओं का  अनुवाद 

सुखिया सब संसार है - कविता संग्रह 

नई आर्थिक नीति ओर अपराध - शोध ग्रन्थ 

गीतपंखी - वाल्ट विटमैन के सांग ऑफ़ माइसेल्फ का अनुवाद 

देवदूत - ख़लील जिब्रान के प्रोफेट का काव्यानुवाद 

लल्लेश्वरी -  शोध ग्रन्थ 

हिंदी साहित्य  में  जीवनी लेखन ओर आवारा मसीहा - शोध ग्रन्थ 



पुरस्कार ओर  सम्मान -


१९८७ - पंडित हंस कुमार तिवारी सम्मान 

१९८९ - डॉ आंबेडकर फ़ेलोशिप 

१९९२ - संस्कृति विभाग  सीनियर आर्टिस्ट ,फ़ेलोशिप से मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा सम्मानित 

१९९८ - पंडित गोविन्द वल्लभ पंत सम्मान

२००० - राष्ट्रीय हिंदी सेवा सहस्त्राब्दी सम्मान 

 




जन्म - ५ मार्च ' १९५९, ग्राम बेल्हूपुर , ज़िला -इटावा , उत्तर प्रदेश 

निधन - २७ जून ' २०१७  , दिल्ली  



NOTE - उनके सुपुत्र श्री अन्वय को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया। 


Friday, October 30, 2020

लघु कथा - तोता - मैना और वट्सप



लघु कथा -  तोता - मैना और व्हाट्सप्प 

            एक बार एक तोते को एक मैना से प्रेम हो गया।  तोता रसिक कवि था सो मैना के प्रेम में रोज़  नयी नयी प्रेम कवितायें  लिखता और मैना  के दिल को लुभाता।  मैना  के लिए प्रेम का आसमान नया नया था लेकिन ज़मीन जानी पहचानी थी। तोता ,मैना से मिलने के लिए बेक़रार था , आखिर एक दिन प्रेम गली में उसकी मुलाक़ात मैना से हो गयी। 


 हमे आप से  कुछ बात करनी है - तोते ने शर्माते हुए कहा। 


- हाँ , हाँ , कहिये ?


- आप बहुत सुन्दर हैं , मेरी कविताओं से भी सुन्दर। 


- जी , यह तो मैं जानती हूँ। 


-  हमे आप से और बात करनी हैं। 


- जी कहिये ?


- आप बहुत शोख़ हैं। 


- जी , शुक्रिया , पर यह भी मैं  जानती हूँ। 


- नहीं , नहीं , हमे आप से कुछ और बात कहनी है। 


- जी बताये 


- वो... वो बात हम यहाँ नहीं कह सकते, कही और चले ?


- कहाँ , चाँद के पार ?


- नहीं ,चाँद के पार नहीं  , वट्सप  पर चलते हैं । 




लेखक - इन्दुकांत  आंगिरस 




Tuesday, October 27, 2020

चिराग़ - ए - दैर , ग़ालिब और बनारस


 

मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी  फ़ारसी मसनवी   चिराग़ - ए - दैर में  प्राचीन शहर बनारस के सांस्कृतिक सौंदर्य का बड़ी ख़ूबसूरती से उजागर किया है। अपनी कलकत्ता यात्रा के दौरान ग़ालिब ने कुछ वक़्त बनारस में गुज़ारा  और बनारस की फ़िज़ा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने १०८ शे'रो की मस्नवी  चिराग़ - ए - दैर की रचना कर दी। बनारस की आत्मा  को ग़ालिब ने इस मसनवी  में कुछ इस तरह से ब्यान किया है -


कि हर कस काँ दरां गुलशन बमीरद

दिगर पैवन्द जिस्माने --- न     गीरद


अर्थात जो काशी में  देह  त्यागता है , वह जन्म - मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है। उसे दोबारा जिस्मानी शरीर नहीं मिलता। इसी भाव का एक और शे'र देखें -

चमन सरमाया -ए - उम्मीद गर्दद 

ब मुर्दन ज़िन्दा -ए जावेद    गर्दद


अर्थात बनारस का चमन उसकी उम्मीदों का सरमाया बन चुका है और इस शहर में व्यक्ति मर कर भी अमर हो  जाता है। बनारस की मस्त और फ़क़ीराना तबीयत को उन्होंने कुछ यूँ पेश  किया है -


सवादश पाए - तख़्ते- बुतपरस्ताँ

सरापा बेश ज़ियारतगाहे - मस्ताँ


गंगा के पानी में नहाती सुंदरियों से पानी के जिस्म में हलचल हो जाती है और ऐसा लगता है मानो पानी में मछलियां किलोल कर रही हैं।सीने में सैकड़ों दिल मछलियों की मानिंद तड़प उठते हैं।    इस अद्भुत भाव को ग़ालिब के इस शे'र में देखें -

फ़ताद : शोरिशे - दर - क़ालिबे - आब

ज़े  माही सद  दिलश   दर सीन: बेताब 


              ग़ालिब को अपने तुर्क होने का बहुत गर्व था लेकिन उन्हें हिन्दुस्तान की मिट्टी से भी बहुत प्रेम और लगाव था। हिन्दुस्तान के इस प्रेम के कारण ही उन्होंने बनारस को अपनी साँसों में महसूस किया और अदबी दुनिया को चिराग़ - ए - दैर के उपहार से नवाज़ा। हिंदुस्तान के प्रति उनके प्रेम को उनके इस मिसरे में देखें -

" हिन्द दर फ़स्ले - ख़िज़ा नीज़ बहारें - दारद " यानी हिन्दुस्तान में पतझड़ के मौसिम में भी वसंत रहता है " 


आपको शहर बनारस पर अनेक भाषाओं  में अनेक किताबें मिल जाएँगी लेकिन इसमें कोई दोराह नहीं कि बनारस पर लिखी किताबों में ग़ालिब द्वारा रचित फ़ारसी मसनवी  चिराग़ - ए - दैर एक विशिस्ट स्थान रखती है।  ग़ालिब को हिन्दू धर्म कि आस्थओं की भी जानकारी थी शायद इसीलिए उन्होंने इस मस्नवी में १०८ शेर पिरोए। हिन्दू धर्म में ईश्वर का जाप करने वाली  माला  में १०८ मनके होते हैं। 

Friday, October 23, 2020

लघु कथा - आश्चर्य



आश्चर्य 


धरती पर एक लम्बा वक़्त गुज़ार कर जब नारद मुनि वापिस ब्रह्मलोक  में लौटे तो प्रभु ने उनसे पूछा -


- कहो , नारद मुनि , इस बार आपकी धरती यात्रा कैसी रही ?


-  अति उत्तम ,प्रभु  , इस बार तो मुझे हास्य  कवियों से मिलने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ 

    और ऐसे ऐसे कवियों को सुना कि मन आश्चर्य से भर गया। 


- अच्छा , तो हमे भी अपने श्रेष्टतर  तीन आश्चर्यों  से अवगत कराये। 


- जी प्रभु 


पहला आश्चर्य - एक हास्य कवि पति द्वारा अपनी पत्नी की प्रशंसा में लिखा प्रेम गीत। 


दूसरा आश्चर्य  -हास्य  कवि पति के मुख से प्रेम गीत सुनकर पत्नी का लजा जाना।  


तीसरा आश्चर्य पति-पत्नी के इस प्रेम को देखकर शेष कवियों द्वारा उनकी प्रशंसा करना। 


अद्भुत,अद्भुत  निश्चय ही तुम्हारे तीनों आश्चर्य किसी आश्चर्य से कम नहीं- प्रभु ने मुस्कराते हुए नारद मुनि से कहा।


नारद मुनि , हरी ॐ ,हरी ॐ कहते हुए आगे बढ़ गए और सबकी  निगाहें ' हरी ॐ ' की ओर उठ गयीं । 

 



लेखक - इन्दुकांत  आंगिरस  

Friday, October 2, 2020

कीर्तिशेष तिलक राज सेठ "तलब "








हीरे बहुत हैं तू कोई    पत्थर तलाश कर 

बदलेगा जिससे तेरा मुक़द्दर तलाश कर 


पत्थर की तलाश करने वाले कीर्तिशेष तिलक राज सेठ "तलब " से मेरी पहली मुलाक़ात इंदिरा नगर , बैंगलोर में उनके घर पर ही हुई थी।  लगभग पाँच फुट का क़द ,गौर वर्ण , उन्नत ललाट पर सलीके से कढ़े हुए लम्बे बाल , कुरता -पायजामा और कुर्ते के जेब में चमचमाता क़लम। तलब साहिब ने अपनी मेहनत के पत्थर से हीरों को तराशा और अपना मुक़द्दर ख़ुद बनाया। तलब साहिब अपने घर के आँगन में ही हुस्न - ए -तलब की   महाना नशिस्तों  का आयोजन करते थे जिसक संचालन हमेशा जनाब मोहिउद्दीन ज़फ़र  करते थे।  माइक की देख-रेख श्री ओम जी करते थे जोकि ख़ुद तो शाइर नहीं थे लेकिन शाइरी का शौक़ रखते थे। इन नशिस्तों में अक्सर २५-३० शाइरों की हाज़री होती थी और यही पर मुझे बैंगलोर के कई नामवर शाइरों  से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।  तलब साहिब एक अच्छे शाइर तो थे ही , साथ में एक बेहतरीन चित्रकार भी थे। घर की बैठक में  उनकी कई ख़ूबसूरत पेंटिंग्स भी देखने  को मिली। आप बहुत ही धीमी आवाज़ में बात करते थे और कभी कभी तो ये गुमान होता था कि उन्होंने कुछ कहा तो है पर उनके लब खुले भी हैं कि नहीं। 


तलब साहिब ने बरसों तक फ़िल्म इंडस्ट्री में बतौर पब्लिसिटी डिज़ाइनर काम किया लेकिन बाद में ख़ुद को शाइरी और चित्रकारी से जोड़ लिया। उन्हें ज़िंदगी का एक लम्बा तजुर्बा हासिल था जिसकी झलक हमें उनके क़लाम में देखने को मिल सकती है।  उनकी ग़ज़लों में फ़लसफ़ा और रूहानियत भी मिलती है ,उनका यह शे'र देखे -


मौजूद है  वो    सामने  तेरे  तू   ग़ौर कर 

क़तरे  में भी कभी तू समन्दर तलाश कर 


क़तरे में समंदर को तलाश करने वाले इस शाइर को शाइरी का इस कदर शौक़ था कि हर महीने अपने घर पर नशिस्तों का आयोजन करते थे ,फ़ोन करके शाइरों को बुलाते थें और मुशायरे के बाद जमकर सबकी  ख़ातिरदारी भी करते थें। इन नशिस्तों में एक दिलचस्प बात यह भी थी कि मुशायरे के बाद संगीत की महफ़िल सजती थी जिसमे अक्सर मशहूर गायक श्री हरेकृष्ण पाहवा  उर्दू ग़ज़लें गा कर सुनाते थें।  उर्दू शाइरी के इतिहास  में जनाब तिलक राज सेठ "तलब " का नाम दर्ज़ होगा या नहीं यह तो मैं नहीं कह सकता लेकिन बैंगलोर की अदबी संस्थाओं का जब भी ज़िक्र होगा तो  तलब साहिब की अदबी बज़्म - हुस्न - ए -तलब हमेशा याद करी जायेगी। 


रेशम के    बिस्तरे पे न   तू करवटें बदल 

आ जाये जिसपे नींद वो पत्थर तलाश कर 


आख़िर तलब साहिब को वो पत्थर मिल  ही गया जिसकी उन्हें बरसों से तलाश थी और उसी पत्थर का सिरहाना लगा वो गहरी नींद में सो गए। 


प्रकाशित पुस्तक -  हुस्न - ए -तलब  ( उर्दू में ग़ज़ल संग्रह )

          " तस्सुवरात " नाम से तलब साहिब की बीस ग़ज़लों की एक CD  एल्बम भी मन्ज़रे आम पर आ चुकी है जिसमे   जनाब  मुनीर अहमद जामी साहिब द्वारा लिखे तब्सिरे को जनाब ज़फर मोहिउद्दीन और मोहतरमा शाइस्ता यूसुफ़  की आवाज़ में सुना जा सकता है। 

 CD  एल्बम






जन्म- २५ मई ' १९३२ ,अमृतसर 

निधन - १३ सितम्बर ' २०१३  , बैंगलोर 



NOTE : उनके सुपुत्र श्री राज सेठ को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया । 

Tuesday, September 22, 2020

हिंदवी बनाम दक्खिनी

 

तुर्क हिंदुस्तानियम  मन हिंदवी    गोयम जवाब 

शकर मिस्री न दारम कज़ अरब  गोयम सुख़न 


अमीर खुसरो की मातृभाषा हिंदवी थी और उन्हें इस बात का गर्व था , इसीलिए उन्होंने उपरोक्त शे'र  में फ़ारसी में कुछ यूँ कहा है -  " मैं हिंदुस्तानी  तुर्क हूँ और हिंदवी ज़बान  में जवाब देता हूँ। मेरे पास मिस्री की शकर नहीं है कि मैं अरबी भाषा  में बात करूँ "अमीर खुसरो ने अपने ग्रन्थ " ख़ालिक बारी " में कई बार हिंदवी और हिन्दी  लफ़्ज़ का प्रयोग किया  है।  अमीर खुसरो ने पहली बार इस भाषा को हिंदवी  कहा। 

वास्तव  में हिंदवी दिल्ली  और  उसके आस-पास के इलाकों में बोली जाने वाली ज़बान थी। इसलिए यह कहा जा सकता  है  कि हिन्दी के लिए सबसे प्रचलित नाम हिंदवी ही है। इसे हिन्दुस्तान की भाषा होने के कारण हिंदुस्तानी  नाम भी दिया गया। जिस जिस प्रदेश में यह भाषा गयी वहाँ वहॉँ उसने अपनी अलग पहचान बना ली ,जब यह दक्खिन में पहुँची तो दकनी  या  दक्खिनी के नाम से जानी जाने लगी। जिस समय खड़ी बोली , उत्तर भारत में सिर्फ बोल-चाल की  भाषा थी उस समय दक्षिण में इस भाषा में विपुल साहित्य की  रचना हो रही  थी। डॉ उदय नारायण तिवारी के शब्दों में - दक्खिनी हिन्दी दक्षिण में ले जाई  गयी दिल्ली की बोली है जो  बाद में अपने साहित्यिक रूप में दिल्ली में आकर फिर प्रतिष्ठित हो गयी। "


दक्खिनी वास्तव में हिन्दी का एक रूप है। मुल्ला वजही अपने ग्रंथ 'सबरस' में लिखते हैं -

हिन्दुस्तान में हिन्दी ज़बान सो  इस लताफ़त

इस छन्दा सो नज़्म हौर नस्र लाकर गुला कर यो नै बोल्या 


सनअती ने अपनी मसनवी क़िस्सा बेनज़ीर में दक्खिनी भाषा को संस्कृत और फ़ारसी की तुलना में अधिक सरल बताया है -

जिसे  फ़ारसी का न कुछ ग्यान है 

तो दखिनी ज़बां उसको आसान है 

सो इसमें सहंस्कृत का है   मुराद

किया इसते आसानगी का सुवाद 


यूँ तो दक्खिनी हिन्दी का अधिकाँश साहित्य फ़ारसी में लिखा गया लेकिन फ़ारसी शब्दों का उच्चारण भी हिन्दी की प्रकृति के अनुसार किया जाता रहा है। उर्दू में प्रियतम को पुल्लिंग रूप  में चित्रित करने की परम्परा रही है लेकिन दक्खिनी में प्रियतम को स्त्रीलिंग रूप में प्रयोग किया है। बक़ौल मुहम्मद क़ुली क़ुतुब शाह -


चंचल छबीली छंद भरी रफ़्तार पकड़ी हो रविश 

सारी रविशां छोड़कर ओ नार पकड़ी हो रविश 

सब मज़हबां की    भेस ले बातां हो इससूं  बेटने 

दिल देती नहीं है मुंजकूं  दिलदार पकड़ी हो रविश 


Sunday, September 20, 2020

तीन वरदान - A három kivánság ( हंगेरियन लोक कथा का हिन्दी अनुवाद )


 A három kivánság



  Egyszer volt, hol nem volt, hetedhét országon is túl volt, még az Óperenciás-tengeren is túl, volt egy szegény ember s a felesége. Fiatalok voltak mind a ketten, szerették is egymást, de a nagy szegénység miatt sokszor összeperlekedtek.   Egyszer egy este az asszony tüzet rak. Gondolja magában, mire az ura hazajön, főz valami vacsorát. Még a víz jóformán fel sem forrott, jön haza az ember, s mondja az asszonynak nagy örömmel: - Hej, feleség, ha tudnád, mi történt! Vége a nagy szegénységnek, lesz ezután mindenünk, amit szemünk-szánk kíván.   - Ugyan ne tréfáljon kend - mondta az asszony -, talán bizony kincset talált?   - Meghiszem azt! Hallgass csak ide. Amint jövök ki az erdőből, mit látok az út közepén? Belerekedt a sárba egy kis aranyos kocsi, a kocsi előtt négy szép fekete kutya befogva. A kocsiban olyan szép asszony ült, amilyet világéletemben nem láttam. Biztosan tündér lehetett. Mondja nekem: “Te jó ember, segíts ki a sárból, bizony nem bánod meg.” Gondoltam magamban, hogy bizony jólesnék, ha segítene a szegénységünkön, és segítettem, hogy a kutyák kihúzzák a sárból. Kérdi az asszony, hogy házas vagyok-e. Mondom neki, hogy igen. Kérdi, hogy gazdagok vagyunk-e. Mondom neki, hogy bizony szegények vagyunk, mint a templom egere. Azt mondja: “No, ezen segíthetünk. Mondd meg a feleségednek, hogy kívánjon három dolgot, teljesülni fog a kívánsága.” Azzal elment, mint a szél.   - Ugyan rászedte kendet!   - Majd meglátjuk. Próbálj csak valamit kívánni, édes feleségem!   Erre az asszony hamarjában kimondta:   - Bárcsak volna egy kolbászunk. Ezen a jó parázson hamar megsülne.   Alig mondta ki, már le is szállt a kéményből egy lábas, benne akkora kolbász, hogy akár kertet lehetett volna keríteni vele.   - Látod, hogy igazam volt - mondta a szegény ember -, hanem most már valami okosabbat kívánjunk. Két tinót, két lovat, egy malacot...   Közben a szegény ember elővette a pipáját, volt még egy kicsi dohánya, megtömte. Benyúl a tűzbe, hogy parazsat tegyen a pipájára, de olyan ügyetlenül talált benyúlni, hogy a lábast a kolbásszal feldöntötte.   - Az istenért, a kolbász! Mit csinál kend? Bár az orrára nőtt volna kendnek! - kiáltott ijedten a felesége, s ki akarta kapni a kolbászt a tűzből, de bizony az akkor már az ember orrán lógott le egészen a lába ujjáig.   - Látod, bolond, oda a második kívánság. Vegyük le!   Próbálja az asszony, de bizony a kolbász egészen odanőtt.   - Hát bizony ezt le kell vágni. Egy kicsit az orrából is lecsippentünk, nem olyan nagy baj az!   - De azt nem engedem!   - Bizony ha nem, élete végéig így fog sétálni a kolbásszal.   - Dehogy fogok, a világ minden kincséért sem! Tudod mit, asszony, van még hátra egy kívánság, kívánd, hogy a kolbász menjen vissza a lábosba.   - Hát a tinó meg a ló meg a malac akkor hol marad?   - Már hiába, feleség, én ilyen bajusszal nem járok. Kívánd hamar, hogy a kolbász menjen vissza a lábosba.   Mit volt mit tenni, a szegény asszonynak csak azt kellett kívánni, hogy a kolbász essék le az ura orráról. Megmosták, megsütötték, s jóízűen az utolsó falatig megették. Evés közben szépen megbékültek, s elhatározták, hogy többet nem pörölnek, hanem inkább dolgoznak szorgalmasan. Jobban is ment dolguk, idővel tinót is, lovat is, malacot is szereztek, mert szorgalmasak és takarékosak voltak.     szerk. Kovács ÁgnesIcinke-picinke - Móra Ferenc KönyvkiadóBudapest - 1972





A három kivánság - तीन वरदान -


प्राचीन समय की बात है दूर बहुत दूर , कही सात समुन्दर पार  ,एक गावँ में एक ग़रीब पति-पत्नी रहते थें। दोनों जवान थें और एक दूसरे से बहुत प्यार करते थें लेकिन ग़रीबी के कारण आपस में झगड़ते भी बहुत थें।  

एक शाम पत्नी ने भोजन पकाने के लिए चूल्हा जलाया।  वह सोच रही थी कि पति के घर आने से पहले वह कुछ भोजन पका ले।  आग पर रखा पानी अभी गरम भी नहीं हुआ था कि उसका पति घर आ गया। पति ने ख़ुशी से नाचते हुए अपनी पत्नी से कहा - " काश   तुम्हें पता होता कि क्या हो गया है ! हमारी  गरीबी खत्म हो गई है, हमें वो  सब कुछ मिलेगा जो हमारी आंखें और मुंह चाहेंगे । । "

" फालतू मज़ाक मत करो , तुम्हें हीरे -जवाहारात मिल गए हैं क्या ? " पत्नी ने पूछा। 

" मुझ पर विश्वास करो और मेरी बात ध्यान से सुनो। आज जब मैं जंगल से बाहर आ रहा था , जानती हो मैंने बीच रास्ते में क्या देखा ?  वहाँ मिट्टी वाली दलदल में एक सोने की बग्घी फँसी हुई थी , बग्घी को चार शानदार काले कुत्तें खींच रहे थें।बग्घी में एक बहुत सुन्दर औरत बैठी थी उसके जैसी मैंने आज तक दुनिया में नहीं देखी थी। ज़रूर  कोई परी रही होगी। उस औरत ने मुझ से कहा - ' तुम भले आदमी लगते हो ,इस दलदल से निकलने में हमारी मदद करो,यक़ीन मानो तुम्हे पछतावा नहीं होगा '।"मैंने मन में सोचा कि यह अच्छा होगा यदि वह  हमारी गरीबी में मदद करेगी  और मैंने कुत्तों को उसे कीचड़ से बाहर निकालने में मदद की।

उसने मुझ से पूछा कि क्या मैं शादी - शुदा हूँ।  मैंने उसे बतया कि ' हाँ '। उसने मुझ से फिर पूछा कि क्या हम अमीर हैं। मैंने उसे बताया कि हम चर्च के चूहों की तरह ग़रीब हैं। तब उसने कहा - " हम इसमें तुम्हारी मदद करेंगे। अपनी पत्नी से कहो कि वो तीन चीज़े मांगे और उसकी तीनों इच्छाएं पूर्ण होंगी। "  उसके बाद वह हवा की तरह उड़ गयी। अब तुम जल्दी से  कुछ माँगों। - तुम इस पर अपना कपड़ा डाल दो!   - हम देखेंगे। मेरी प्यारी बीवी , अब तुम कुछ मांगों !   इस पर महिला ने तुरंत कहा:-"  काश हमारे पास सॉसेज होता तो  वह इन गरम कोयलों पर जल्दी भुन जाती  । "  जैसे ही उसने यह कहा, चिमनी से एक पैर इतना बड़ा सॉसेज लेकर नीचे आया  उससे एक बगीचे की बाड़ तक बनाई जा सकती थी  । " देखा तुमने !, मैं सही था," गरीब आदमी ने कहा, लेकिन आओ कुछ बढ़िया चीज़े मांगते हैं । दो स्टीयर, दो घोड़े, एक सुअर... इतने में, बेचारे आदमी ने अपनी चिलम निकाली, और उसे  तम्बाकू के  एक  छोटे  टुकड़े से  भर दिया। वह अपने पाइप को कोयलों से जलाने  लिए आग के नज़दीक  गया , लेकिन इतनी अनाड़ीपन से पहुंचा कि उसका पैर सॉसेज से टकरा गया।

" देखा तुमने !, मैं सही था," गरीब आदमी ने कहा, लेकिन आओ कुछ बढ़िया चीज़े मांगते हैं । दो स्टीयर, दो घोड़े, एक सुअर... इतने में, बेचारे आदमी ने अपनी चिलम निकाली, और उसे  तम्बाकू के  एक  छोटे  टुकड़े से  भर दिया। वह अपने पाइप को कोयलों से जलाने  लिए आग के नज़दीक  गया , लेकिन इतनी अनाड़ीपन से पहुंचा कि उसका पैर सॉसेज से टकरा गया। यह देख कर पत्नी ज़ोर से चीख़ी -" यह क्या किया तुमने ,इससे अच्छा तो सॉसेज तुम्हारी नाक पर उग जाती और सॉसेज को आग से बहार निकालना चाहा लेकिन तब तक 
सॉसेज आदमी की नाक पर चिपक कर उसके पैरो की उँगलियों तक लटक रही थी। 

" देखा  तुमने मूर्ख औरत , तुम्हारा दूसरा वरदान भी बेकार गया , अब हटाओ इसे " - पति ज़ोर से चीख़ा। 

-बीवी ने कोशिश करी , लेकिन सॉसेज यक़ीनन नाक पर उग आयी थी ।   ठीक है, इसे काट देना चाहिए। हमने भी नाक से थोड़ी चुटकी ली, इतनी बड़ी बात नहीं है!   - लेकिन मैं इसकी अनुमति नहीं दूँगा!   - बेशक, अगर मंज़ूर नहीं तो जीवन भर इसी  सॉसेज के साथ घूमो ।   - मैं ऐसा नहीं कर सकता , दुनिया की सारी दौलत मिल जाने पर भी नहीं ! तुम्हें पता है , अभी तुम्हारे पास एक वरदान हैं , वरदान मानगो कि  सॉसेज वापिस उसी पैर मैं चली जाये। 

- तो फ़िर गाय ,घोड़े , कुत्तों का क्या होगा ?

- अब सब बेकार है।  मैं इतनी बड़ी मूँछ लगा कर नहीं घूम सकता , जल्दी से वरदान माँगों कि सॉसेज वापिस पैर मैं चली जाये । 


क्या होना था और क्या हो गया , बेचारी किसान की पत्नी इसके अलावा और क्या माँग सकती थी कि सॉसेज उसके पति की नाक से गिर जाये। 

उन्होंने सॉसेज को धोया ,पकाया और स्वाद लेकर आख़िर तक खाया। कुछ सालों में उनमे समझौता हो गया और फ़िर वे कभी नहीं लड़ें। 

खाना खाते समय, उनमें अच्छी तरह मेल-मिलाप हो गया और उन्होंने फैसला किया कि वे अब झगड़ेंगे  नहीं, बल्कि लगन से काम करेंगे। उन्होंने मेहनत से  काम किया, समय के साथ उन्होंने एक स्टीयर, एक घोड़ा और एक सुअर हासिल कर लिया, क्योंकि वे मेहनती और मितव्ययी थे।


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

Saturday, September 19, 2020

इश्क़ के सात मक़ाम और इंसान

 

आदम को बनाकर ख़ुदा ऐसी ग़लती कर बैठा जिसका सुधार वो आज तक नहीं  कर पाया , ऊपर से इश्क़ की बीमारी।  इंसान पूरी ज़िंदगी अपनी दो भूख मिटाने में लगा देता है - एक पेट की आग और दूसरी इश्क़ की आग उसे कभी चैन से नहीं बैठने देती। फिल्म डेढ़ इश्क़िया में इश्क़ के सात मक़ाम का ज़िक्र कुछ यूँ हुआ है -

दिलकशी 

उन्स 

मोहब्बत 

अक़ीदत 

इबादत 

जुनून

मौत 


उर्दू शाइरी में आपको इश्क़ पर हज़ारों शे'र मिल जाएँगे , हक़ीक़त  में अगर दुनिया में इश्क़ नहीं होता तो कुछ शाइर कभी शाइर नहीं बन पाते।  अगर इश्क़ नहीं होता तो ये दुनिया कभी की  रसातल में चली जाती। हमारी  दुनिया में इश्क़ है और अच्छी मितदार में है तभी तो कोरोना के चलते भी ये दुनिया अभी मिटी नहीं और मिटेगी भी नहीं। इश्क़ में इंसान दीवाना हो जाता है ,उसकी अक़्ल काम करना बंद कर देती है ,तभी तो अकबर इलाहाबादी ने कहा -

इश्क़  नाज़ुक    मिज़ाज है बेहद 

अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता


इश्क़ में सिर्फ़ अक़्ल ही  काम करना बंद नहीं करती बल्कि हाथ - पाँव भी काम करना बंद कर देते हैं और आदमी निकम्मा बन जाता है , बक़ौल मिर्ज़ा ग़ालिब -


इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया 

वर्ना   हम भी आदमी   थे  काम के 


लेकिन इश्क़ करना भी सब के बस की बात नहीं , इश्क़ फ़रमाने के लिए एक आशिक़ का जिगर चाहिए। इश्क़ की राह बहुत पुरख़तर होती है। कैसी कैसी मुश्किलों से गुज़रना पड़ता है , बक़ौल जिगर मुरादाबादी -


ये इश्क़ नहीं आसाँ   इतना ही समझ लीजे

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है 


और इस आग के दरिया  को पार करने के लिए किस फ़ौलादी सीने की नहीं बल्कि प्रेम में डूबे एक मासूम  दिल की ज़रूरत होती है जो आजकल ढूंडने से भी नहीं मिलता। सच्चा प्रेम ही इंसान को मजबूत बनाता है और उसे इस बेशरम दुनिया से लड़ने की ताकत देता है। 

कमजोर दिल वाले कभी मोहब्बत नहीं कर सकते , बक़ौल मीर तक़ी मीर -


इश्क़ इक 'मीर ' भारी   पत्थर है 

कब ये तुझ ना- तवाँ से उठता है 



अगर आपने अभी तक इश्क़ नहीं किया है तो ज़रूर करें  और अगर आपका दिल कमजोर है तो भी इश्क़ करें क्योंकि इश्क़ करने से ही दिल मजबूत बनेगा और इस बेशरम दुनिया से आप लड़ पाएँगे । 





Friday, September 18, 2020

ई -पत्रिकाओं का संसार - " राष्ट्रीय चेतना " ई -पत्रिका

 

आज से कुछ वर्षों पहले तक किसी ने कल्पना नहीं की थी कि एक दिन एक  क्लिक पर हमें ई -पत्रिकाएं और ई-पुस्तकें पढ़ने के लिए उपलब्ध हो जाएँगी।  टेक्नोलॉजी के विस्तार के साथ ही यह संभव हो पाया है कि आज हम न केवल भारत में प्रकाशित अपितु विश्व के किसी भी कोने  से प्रकाशित  ई -पत्रिकाएं और ई-पुस्तकें घर बैठे पढ़ सकते हैं। आज सम्पूर्ण विश्व में कोरोना के चलते इन पत्रिकाओं  की महत्ता और भी बढ़ गयी है। ई -पत्रिकाएं और ई-पुस्तकों के बढ़ते प्रचलन का  एक कारण  यह भी है कि प्रिंट पत्रिका की तुलना में ई -पत्रिकाएं और ई-पुस्तकों  के प्रकाशन में कम खर्च होता है , दूसरे इलेट्रॉनिक रूप से इनका संग्रह पाठक को कभी भी उपलब्ध हो सकता है। 

पिछले दिनों ( ६ सितम्बर '२०२० ) बैंगलोर में " राष्ट्रीय चेतना "  ई -पत्रिका  का वर्चुअल लोकार्पण प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ इस्पाक अली के कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ। इस अवसर पर विशिष्ट  अतिथि , डॉ अरुण कुमार गुप्ता ने अपने वक्तव्य में समाज एवं राष्ट्र के उत्थान के लिए  शिक्षकों के महत्वपूर्ण योगदान की सराहना करी।  डॉ मैथिली पी. राव ने शोध पत्रिकाओं के आंकड़ों का ज़िक्र करते हुए बताया कि भारत में विदेशों की तुलना में बहुत कम शोध पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं। इस अवसर पर,  डॉ देवकीनंदन शर्मा , डॉ टी जी प्रभाशंकर 'प्रेमी',डॉ विमला एवं डॉ मृदुला चौहान को " राष्ट्रीय चेतना शिक्षक सम्मान २०२० " से सम्मानित किया गया। 

साहित्य , कला और संस्कृति को समर्पित राष्ट्रीय चेतना ई -पत्रिका के प्रबंध  सम्पादक डॉ अरविन्द कुमार गुप्ता ने पत्रिका के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए यह विश्वास दिलाया कि राष्ट्रीय चेतना ई -पत्रिका में प्रकाशित सामग्री स्तरयी होगी। इस अवसर पर एक काव्य संध्या का भी आयोजन किया गया जिसमे सर्वश्री ज्ञानचंद मर्मज्ञ , निरुपम निरंजन , कृष्ण कुमार शर्मा , इन्दुकांत आंगिरस एवं डॉ मंजू गुप्ता के नाम उल्लेखनयी हैं। 


हिन्दीतर  प्रदेश बैंगलोर से प्रकाशित  " राष्ट्रीय चेतना "  ई -पत्रिका का प्रयास यक़ीनन प्रशंसनीय है पर सवाल यह उठता है कि जब पहले से ही बहुत सारी ई -पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है तो फिर एक और क्यों ? वास्तव में शोध पत्रिकाएं इसीलिए होती है कि हम सहित्य का गहन अध्ययन कर सके और उसके ज़रीये ख़ुद को और इस दुनिया को और ख़ूबसूरत बना सके।  वैसे भी इल्म बाँटने से बढ़ता है और बढ़ते बढ़ते इतना विशाल हो जाता है कि एक शून्य में सिमट कर रह जाता है। बक़ौल फ़िरदौस गयावी -


इल्म की इब्तिदा है हंगामा 

इल्म की इंतिहा है ख़ामोशी


मुझे यक़ीन है कि  राष्ट्रीय चेतना के हंगामें , ख़ामोशी में नहीं सिमटेंगे और इसके  अदब का दीपक इस दुनिया के अँधेरों को मिटाने में ज़रूर कामयाब होगा। अदब के इस सफ़र पर आगे बढ़ते हुए जब कभी भी  क़दम डगमगाए तो जगन्नाथ आज़ाद का यह शे'र  ज़रूर पढ़ें -


इब्तिदा ये थी कि मैं था और दा'वा इल्म का 

इंतिहा ये है कि इस दा'वे पे  शरमाए  बहुत    




NOTE :  राष्ट्रीय चेतना "  ई -पत्रिका  का  लिंक - http://www.rashtriyachetna.com/




Thursday, September 17, 2020

कीर्तिशेष प्रेमचंद कोठारी " आनंद " और उनका रचना संसार



 

कीर्तिशेष प्रेमचंद कोठारी " आनंद "  , बैंगलोर के साहित्य साधक मंच की महाना काव्य गोष्ठियों में निरंतर शिरकत फ़रमाते थे। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात इसी पटल पर हुई थी।  लगभग पाँच फुट दो इंच का क़द , गौर वर्ण , पके हुए बाल ,गले में कमानीवाला चश्मा और कुर्ते की जेब  में  चमचमाता एक क़लम । प्रेमचंद कोठारी  बहुत ही विनम्र , सौम्य , शांत  , ख़ुशदिल और ज़िंदादिल   इंसान थे।  काव्य गोष्ठियों में अक्सर अपने सुरीले स्वर में फ़िल्मी धुनों की तर्ज पर आधारित आध्यात्मिक गीतों की प्रस्तुति करते थे। 

लेकिन बाद में इनका रुझान क्षणिकाओं और हाइकू विधा की तरफ़ हो गया। उनके अपने शब्दों में - " काव्य की चर्चा लम्बी नहीं होती। एक  ही वाक्य में उसकी समाप्ति हो जाती  है।  अतः सदा से मेरा ध्यान संक्षेप  की ओर रहा है।  बात  संक्षेप में हो ओर मीठी भी हो।  कहते है ( Short and Sweet  ) , रचना में कटुता न हो लेकिन प्रचलित सामाजिक  ,आध्यात्मिक , राजनैतिक एवं पारिवारिक कुरीतियों एवं बुराइयों पर प्रहार करते समय मैं उग्र भी बन जाता हूँ , यही मेरी कमजोरी है किन्तु कड़वी दवा से ही निदान संभव है। "


वास्तव में प्रेमचंद कोठारी  जिस कमजोरी की बात कर रहे हैं वो उनकी कमजोरी नहीं बल्कि ताकत है।  अपनी रचनाओं  द्वारा उन्होंने सामजिक कुरीतियों को मिटाने का भरसक प्रयास किया है। पेशे से तो आप साड़ियों  के व्यापारी थे लेकिन तन-मन-धन से समाज सेवा में लगे रहते थे।  मैं दो -तीन बार उनकी दुकान पर भी गया। एक बार उन्होंने मुझे भारतीय नारी पर एक अद्भुत गीत सुनाया जिसमे एक कन्या का जीवन ओर विवाह के बाद ससुराल में उसके जीवन  चरित्र का अत्यंत मार्मिक वर्णन था , अफ़सोस कि उनकी किसी भी प्रकाशित पुस्तक  में मुझे वो गीत नहीं मिला।  मेरे विचार से वह गीत उनकी सर्वोत्तम कृति है। एक और दिलचस्प बात उनकी पुस्तकों  के बारे में यह है कि उनकी किसी भी पुस्तक पर मूल्य के स्थान पर  सहयोग राशि लिखा रहता है और सहयोग राशि के आगे लिखा होता है -जो भी दिल कहे।आप अक्सर साहित्यिक मित्रों को अपनी पुस्तकें  मुफ़्त बाँटते थे।    

प्रेमचंद कोठारी , जीवन भर प्रेम के अबूझे रहस्यों को सुलझाने में लगे रहे।  प्रेम विषय पर उन्होंने सूत्र शैली में अनेक रचनाएँ कहीं।  बानगी के तौर पर चंद सूत्र शैली में लिखी रचनाएँ  देखें -


तू अगर तू होना चाहता है प्रेम 

तो तू बीच से हट जा 


तू किसे खोजने जा रहा है प्रेम 

तूने मुझे खोया कहाँ है ?


प्रेम का दीवाना बन प्रेम 

वो तेरा दीवाना बन जायेगा 


यहाँ कोई मालिक नहीं है प्रेम 

सारा संसार मन  का ग़ुलाम है  


जगत से प्रेम सम्बन्ध रख प्रेम 

पर याद रख , प्रेम बंधन न बने 


यहाँ आने जाने वाले सब पराये हैं प्रेम 

इन्हें अपना मानने की भूल मत करना 


उनकी रचनाओं में प्रेम के साथ साथ रहस्यवाद ओर दर्शन भी देखने को मिलता है।  उनकी क्षणिकाएँ पाठक के मन पर गहरा असर छोड़ती है। जन्म ओर मृत्य के घेरों को तोड़ती उनकी रचनाएँ पाठक को  एक दूसरे लोक में ले जाती हैं जहाँ सबका सब कुछ है ओर किसी का कुछ भी नहीं। 

जीवन ओर मृत्यु पर उनकी यह क्षणिका देखें -


यह साँसों का सफ़र

रुक जायेगा 

चलते चलते 

जैसे बुझ जाता है 

दीपक 

जलते जलते 


ऐसे ही एक दिन अदब का यह दीपक भी बुझ गया लेकिन मुझे विश्वास है उनके साहित्य के प्रकाश से इस दुनिया के अँधेरे में कुछ तो कमी आयी होगी। 


प्रकाशित पुस्तकें -

कुछ कुछ में सब कुछ - ११ लघु कृतियाँ 

प्रेम से प्रेम की बातें - सूत्र शैली में रचित कविताएँ

हाइकू ख़ज़ाना - हाइकू विधा में रचित कविताएँ 




जन्म - १२ फ़रवरी ' १९४१ , जालसू कलां -नागौर 

निधन - १६ जनवरी ' २०२० , बैंगलोर 



NOTE : सहयोग के लिए उनके पुत्र श्री विनोद का शुक्रिया । 

Wednesday, September 16, 2020

आम के आम ,गुठलियों के दाम


असर ये तेरे अन्फास -ए मसीहाई  का हैं "अकबर "

इलाहाबाद से    लंगड़ा चला     लाहौर  तक पहुँचा 


अकबर इलाहाबादी के उपरोक्त शे'र में एक लंगड़े आम के सफ़र का ज़िक्र है।   यूँ तो बहुत से फल हम रोज़ खाते हैं लेकिन आम को फलों का राजा कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी।  भारत में आमों की बहुत-सी किस्मे पाई जाती हैं जिनमे पहाड़ी ,रूमानी ,बादामी ,चौसा अल्फोंजा,लंगड़ा और दशहरी आमों की किस्मे विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं। 


मिर्ज़ा ग़ालिब को भी आम बहुत प्रिय थे। एक बार मिर्ज़ा ग़ालिब अपने चंद दोस्तों के साथ बैठ कर आमों का लुत्फ़ उठा रहे थे, तभी उस गली में एक गधा आ गया।  उस गधे ने एक आम के छिलके को सूँघा और आगे बढ़ गया।  यह देख कर मिर्ज़ा ग़ालिब के एक दोस्त ने उनसे फ़रमाया -

 "देखिये  मिर्ज़ा , आम तो गधें भी नहीं खाते "। 

मिर्ज़ा ग़ालिब का हाज़िर जवाबी में जवाब नहीं था , उन्होंने फ़ौरन जुमला कसा -

जी हाँ , गधें ही आम नहीं खाते"।  उनके इस जवाब पर दोस्तों ने ज़ोरदार ठहाके लगाए। 


आमों को लेकर चंद मशहूर मुहावरे भी देखें -


आम के आम ,गुठलियों के दाम 


आम खायें , गुठलियों को न देखें  


आम का आचार और आम पापड़ किसने नहीं खाया होगा।  आम के ज़रीये औरत की जिन्सी खूबसूरती को ब्यान करा जाता रहा है। बक़ौल सागर ख़य्यामी -


आम तेरी ये   ख़ुशनसीबी है 

वार्ना लंगड़ों पे कौन मरता है 


Sunday, September 13, 2020

हिन्दी और हिन्दी दिवस


हिन्दी दिवस फ़िर आ गया और फ़िर हर तरफ़ हिन्दी भाषा से सम्बंधित कार्यक्रम आयोजित होने लगें हैं।  यह तो सर्वविदित है कि १४ सितम्बर भारत में हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है , लेकिन प्रश्न  यह उठता है कि हमे हिन्दी दिवस मनाने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है ? भारत पर २०० वर्ष तक राज करने के बाद अँगरेज़ तो वापिस चले गए लेकिन अँगरेज़ी यही छोड़ गए।  जब हिन्दी भाषा को राज भाषा का दरजा दिया गया तो भारत  की दूसरी भाषाओं के प्रतिनिधियों ने इसका विरोध किया और फलस्वरूप अँगरेज़ी को भी राज  भाषा का दरजा देना पड़ा।  इसी लिए किस भी सरकारी दफ़्तर में सभी काग़ज़ात  हिन्दी और  अँगरेज़ी भाषा में लिखे जाते हैं , मतलब जिसको हिन्दी समझ में न आये वो अँगरेज़ी में पढ़ ले और जिसको अँगरेज़ी समझ में न आये वो हिन्दी में पढ़ ले।शायद इसीलिए आजकल अँगरेज़ी भाषा पहली कक्षा से ही पढाई जाती है और अनेक  स्कूलों में तो स्थिति  यह है कि हिन्दी भाषा  अँगरेज़ी के माध्यम से सिखाई जाती है। 

आज विश्व में हिन्दी तीसरे स्थान पर सबसे अधिक बोले जाने वाली भाषा है लेकिन इसको अभी तक UNO  से मान्यता नहीं मिली है। वास्तव  में कोई भी भाषा  या संस्कृति जब तक दूसरी भाषाओँ और संस्कृतियों के साथ आदान- प्रदान नहीं करती तब तक उसका विकास संभव नहीं।  भाषा एक बहती हुई नदी की तरह होती है , अगर वह अपनी ऐंठ में राह में मिलते कंकरों को अपने साथ नहीं लेगी तो एक दिन सूख जायेगी। 

हिन्दी भाषा में आज भी दूसरी भाषाओं के बहुत से शब्द हैं , जिन्हें  हिन्दी से अब कोई चाह कर भी अलग नहीं कर सकता। हिन्दी के लिए यह एक शुभ संकेत है और इसीलिए हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार दिनोदिन बढ़ता जा रहा है।  

हर भाषा में अपना एक अलग मिठास और रचाव होता है, उसकी तुलना दूसरी भाषा से नहीं करनी चाहिए।  वास्तव  में किसी भी भाषा को सीखने के लिए पहले उससे प्रेम करना पड़ता हैं।   

भाषा  के सम्बन्ध में मलिक मोहम्मद जायसी का यह दोहा देखें -

तुर्की , अरबी , हिंदवी भाषा जेती आहि

जा में मारग प्रेम का, सबै सराहैं   ताहि 


इसलिए भाषा से पहले प्रेम आ जाता है।  हिन्दी सीखने का यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि हम दूसरी भाषाओं से बैर रखे।  भाषा का सम्प्रेषण होना ज़रूरी है , अगर सुनने वाले को अँगरेज़ी नहीं आती तो उसके सामने अँगरेज़ी बोलने से क्या लाभ।  हमारा मुख्य उद्देश्य सम्प्रेषण होना चाहिए , इस सिलसिले में बूअली कलंदर का ये शे'र देखें -


मैं इसको दर हिन्दी ज़ुबाँ इस वास्ते कहने लगा 

जो फ़ारसी समजे नहीं , समजे इसे ख़ुश होकर 

Friday, September 11, 2020

फिर छिड़ी रात बात फूलों की


 

फिर छिड़ी रात बात फूलों की

रात है या    बरात फूलों की

फूल के हार   फूल के गजरे

शाम फूलों की रात फूलों की


मख़दूम मोहिउद्दीन के उपरोक्त अशआर में फूलों में ढ़लते मिसरों से यह क़ायनात भी खिल उठेगी। फूलों का ज़िक्र छिड़ जाये तो हर दर्द मुस्कराने लगता है। उर्दू शाइरी में फूलों पर हज़ारों शे'र मिल जायेंगे। हर फूल की रंगत अलग होती है और उसकी ख़ुश्बू भी और  हर फूल आशिक़ों के दिल की तरह हज़ार रस्ते रखता है। कोई अपने महबूब को फूलों का नज़राना पेश करता है तो किसी का  महबूब ही फूल की मानिंद होता है। अक्सर किसी पुरानी किताब के पन्नों में कोई सूखा हुआ फूल या फूल की पंखुड़ी मिल जाए तो दिल में एक हूक-सी उठती है , किसी की मुहब्बत की दास्ताँ ताज़ा हो जाती है। सूखे हुए फूलों में नमी छाने लगती है और अहमद फ़राज़ का यह शे'र ज़हन में उभर जाता है -

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले

जिस     तरह    सूखे हुए    फूल     किताबों में मिले



हमारे देश में प्रेमी द्वारा प्रेमिका को फूलों का तोहफ़ा देने का प्रचलन इतना अधिक नहीं लेकिन विदेशों में इसका प्रचलन बहुत है। अपने बुदापैश्त के प्रवास के दौरान इसका अनुभव किया , वहाँ प्रेमी द्वारा प्रेमिका को दिया जाने वाला फूलों का  तोहफ़ा ही सबसे अधिक क़ीमती होता है। इसी सिलसिले में शकेब जलाली का यह शे'र देखें -


आज भी शायद कोई फूलों का तोहफ़ा भेज दे

तितलियाँ मंडरा रही हैं काँच के गुल -दान पर



अनेक शाइरों ने औरत की ख़बसूरती को बयाँ करने के लिए फूलों का ही सहारा लिया। मीर तक़ी मीर का यह ख़ूबसूरत शे'र देखे -



नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये

पंखुरी       इक  गुलाब   की   सी है



भारतीय संस्कृति में भी फूलों की बहुत महत्ता है और अनेक अवसरों पर फूलों का प्रयोग किया जाता है। जीवन और मरण , ख़ुशी और ग़म ,मंदिर हो या मस्जिद लगभग हर अवसर एवं जगह पर फूलों की ज़रूरत पड़ती है। किस भी व्यक्ति का सम्मान भी फूलों से ही किया जाता है , विशेषरूप से राज नेताओं का सम्मान। इसलिए हम कह सकते हैं कि राजनीति भी फूलों से अछूती नहीं लेकिन फूलों के इन सम्मानों के पीछे भी एक राजनीति छुपी होती हैं। फूलों की सियासत के बारे में शकील बदायुनी का यह शे'र देखें -

काँटों से गुज़र जाता हूँ दामन बचा कर

फूलों की सियासत से मैं बेगाना नहीं हूँ


रोज़ करोड़ों फूल अपनी अपनी डालियों से टूटकर इधर-उधर बिखर जाते  हैं। कोई फूल देवता पर चढ़ाया जाता हैं तो कोई किसी की मज़ार पर लेकिन फूलों से उनकी अभिलाषा के बारे में कोई नहीं पूछता। लेकिन जब प्रसिद्द साहित्यकार माखन लाल चतुर्वेदी ने फूलों से उनकी अभिलाषा पूछी तो जवाब कुछ यूँ आया -



चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊं

चाह नहीं प्रेमी माला में बिंध, प्यारी को ललचाऊँ

चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरी डाला जाऊँ

चाह नहीं देवों के सर पर चढ़ भाग्य  पर इतराऊं

मुझे तोड़ लेना बनमाली उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढाने जिस पथ जाये वीर अनेक



जब तक ये दुनिया रहेगी फूलों के सिलसिले कभी खत्म न होंगे।फूल अपने रंगों और ख़ुश्बू से इस दुनिया को हमेशा सजाते संवारते रहेंगे।जब तक यह दुनिया रहेगी फूलों का खिलना भी बंद न होगा ,बक़ौल मख़दूम मोहिउद्दीन -



फूल खिलते रहेंगे दुनिया में

रोज़ निकलेगी बात फूलों की