मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी फ़ारसी मसनवी चिराग़ - ए - दैर में प्राचीन शहर बनारस के सांस्कृतिक सौंदर्य का बड़ी ख़ूबसूरती से उजागर किया है। अपनी कलकत्ता यात्रा के दौरान ग़ालिब ने कुछ वक़्त बनारस में गुज़ारा और बनारस की फ़िज़ा से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने १०८ शे'रो की मस्नवी चिराग़ - ए - दैर की रचना कर दी। बनारस की आत्मा को ग़ालिब ने इस मसनवी में कुछ इस तरह से ब्यान किया है -
कि हर कस काँ दरां गुलशन बमीरद
दिगर पैवन्द जिस्माने --- न गीरद
अर्थात जो काशी में देह त्यागता है , वह जन्म - मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है। उसे दोबारा जिस्मानी शरीर नहीं मिलता। इसी भाव का एक और शे'र देखें -
चमन सरमाया -ए - उम्मीद गर्दद
ब मुर्दन ज़िन्दा -ए जावेद गर्दद
अर्थात बनारस का चमन उसकी उम्मीदों का सरमाया बन चुका है और इस शहर में व्यक्ति मर कर भी अमर हो जाता है। बनारस की मस्त और फ़क़ीराना तबीयत को उन्होंने कुछ यूँ पेश किया है -
सवादश पाए - तख़्ते- बुतपरस्ताँ
सरापा बेश ज़ियारतगाहे - मस्ताँ
गंगा के पानी में नहाती सुंदरियों से पानी के जिस्म में हलचल हो जाती है और ऐसा लगता है मानो पानी में मछलियां किलोल कर रही हैं।सीने में सैकड़ों दिल मछलियों की मानिंद तड़प उठते हैं। इस अद्भुत भाव को ग़ालिब के इस शे'र में देखें -
फ़ताद : शोरिशे - दर - क़ालिबे - आब
ज़े माही सद दिलश दर सीन: बेताब
ग़ालिब को अपने तुर्क होने का बहुत गर्व था लेकिन उन्हें हिन्दुस्तान की मिट्टी से भी बहुत प्रेम और लगाव था। हिन्दुस्तान के इस प्रेम के कारण ही उन्होंने बनारस को अपनी साँसों में महसूस किया और अदबी दुनिया को चिराग़ - ए - दैर के उपहार से नवाज़ा। हिंदुस्तान के प्रति उनके प्रेम को उनके इस मिसरे में देखें -
" हिन्द दर फ़स्ले - ख़िज़ा नीज़ बहारें - दारद " यानी हिन्दुस्तान में पतझड़ के मौसिम में भी वसंत रहता है "
आपको शहर बनारस पर अनेक भाषाओं में अनेक किताबें मिल जाएँगी लेकिन इसमें कोई दोराह नहीं कि बनारस पर लिखी किताबों में ग़ालिब द्वारा रचित फ़ारसी मसनवी चिराग़ - ए - दैर एक विशिस्ट स्थान रखती है। ग़ालिब को हिन्दू धर्म कि आस्थओं की भी जानकारी थी शायद इसीलिए उन्होंने इस मस्नवी में १०८ शेर पिरोए। हिन्दू धर्म में ईश्वर का जाप करने वाली माला में १०८ मनके होते हैं।
बढ़िया जानकारी
ReplyDeleteबढ़िया जानकारी
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