कीर्तिशेष डॉ अर्चना त्रिपाठी से मेरी पहली मुलाक़ात शायद परिचय साहित्य परिषद् की एक गोष्ठी में ही हुई थी , अत्यंत सहज ,सरल , नम्र , मितभाषी, साहित्य की मर्मज्ञ एक ऐसी विदुषी थी जिनके मुख पर सदैव एक सहज मुस्कान बिखरी रहती थी। अर्चना त्रिपाठी एक ज़िंदादिल इंसान थी और उनके ठहाकों को कौन भुला सकता है। हर महीने उनसे मिलने एक दो बार उनके घर चला ही जाता था और कालांतर में उनके पति डॉ वेद प्रकाश मेरे अच्छे मित्र भी बन गए। साहित्य और साहित्यकारों पर अक्सर हमारी चर्चाएं होती और बीच बीच में अर्चना जी के ठहाके। उन्हें ग़ज़ल सुनने का भी बहुत शौक़ था ,अक्सर बेगम अख़्तर की आवाज़ और मीर तक़ी मीर की ग़ज़लें उनके घर में धीमी धीमी आँच के साथ गूँजती रहती। एक स्त्री होने के नाते वह स्त्री के दुःख दर्द को बेहतर समझ सकती थी और स्त्री विमर्श पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा, उन्ही के शब्दों में -
"आधुनिक नारी या समकालीन स्त्री के चिंतन का विषय है - स्त्री उसका जीवन और उस जीवन की समस्याएँ। कहने वाले कह सकते है कि वह अपने को समेट रही है केवल अपने जीवन में। समाज के वृहतर मूल्यों से वह कट रही है। लेकिन क्या अपनी ओर से आँख मींच कर दुनिया देखी जा सकती है ? तर्क दिए जाते हैं कि ज्ञान को अलग संवर्ग में बाँट कर चर्चा नहीं करनी चाहिए। स्त्री के मूल्य ओर पुरुष के मूल्य कोई अलग थोड़े ही हैं। फिर भी कोई यह कैसे भूल जाये कि प्रगति के महावृतान्त लिखते वक़्त स्त्री की भूमिका नगण्य रही। सार्वभौमिक ,तर्कशील ओर बुद्धिपरायण व्यक्ति ही वास्तव में सत्ता का आधार है ओर बार बार अनिवार्यतः अपनी सारी निष्पक्षता के बावजूद वह पुरुष ही होता है। स्त्री वहाँ हाशिये पर ही है। स्त्री करे तो क्या करे। इस पितृसत्तात्मक श्रेणीकृत समाज में अपना स्थान कहाँ बनाये। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि तकलीफ़ खतरनाक चीज़ है। अतः स्त्री से यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वह अनंत काल तक अंधेरे कोनों में मुहँ लपेटे पड़ी रहेगी। न्यूटन ने गति का जो तीसरा नियम दिया , वह प्रगति पर भी उतना ही लागू है जितना सामन्य गति पर। स्प्रिंग तत्व एक सीमा के बाद दबने नहीं देता . जितनी ज़ोर से स्प्रिंग दबता है उतनी ही ज़ोर से उछलता भी है। "
अर्चना त्रिपाठी ने एक लम्बे अर्से तक केंद्रीय हिंदी निदेशालय ,दिल्ली में " सहायक निदेशक " के पद पर कार्य किया और कुछ वर्षों तक " भाषा " पत्रिका का सम्पादन भी किया। एक अधिकारी एवं साहित्यकार होने के साथ साथ अर्चना त्रिपाठी एक ज़िम्मेदार गृहणी भी थी , अपने दोनों बेटों की पढ़ाई को लेकर हमेशा चिंतित रहती ओर उनको नियमित रूप से पढ़ाया करती थी। लेकिन पढाई के साथ साथ उन्हें इस बात का दुःख भी था कि महानगर दिल्ली में रहते हुए उनके अपने बचपन जैसी उन्मुक्तता अब उनके बच्चो को नहीं मिल पा रही है , इसी सिलसले की उनकी कविता की यह पंक्तियाँ देखें -
महानगर ओर बच्चा
मेरे बच्चों
नहीं दे पा रहीं मैं तुम्हें
बचपन की उन्मुक्तताएँ
वो तितली , वो कोयल
वो कमल भरे जलाशय
बैलगाड़ियाँ , नदी , पुआल ,
हर छुट्टी में गावँ , रिश्तेदार
ठन्डे पानी के कुँए , कुओं में ख़रबूज़े ,तरबूज़ ओर आम
राधेश्याम रामायण वो हँसी , ठिठोली -
आँधी के आते ही दौड़ना बग़ीचों में
वो टपकों को बीनना , गिनना ओर बताना
जैसे जीता हो एक पूरा का पूरा कारगिल
यहाँ इस महानगर में
मेर पास तुम्हें देने को है छोटा-सा फ़्लैट
सुबह शाम कभी कभी थोड़ा-सा पार्क
महीने दो महीने में अप्पूघर ओर मैकडोनाल्ड
मैकडोनाल्ड की सिंथेटिक क्रीम जैसे सिंथेटिक रिश्ते
मेरे वंशज , मेरी भावी पीढ़ी , मेरे बच्चों
हो सके तो मुझे माफ़ कर देना ।
मैं जब तक दिल्ली में रहता था उनसे मुलाक़ाते होती रहती थी लेकिन बैंगलोर आने के बाद यह सिलसिला टूट गया था। मेरी उनसे आख़िरी मुलाक़ात उनकी मृत्यु से कुछ महीने पहले उनके घर पर ही हुई थी। दोपहर का वक़्त था , वो घर पर अकेली थी , बहुत ही शांत ओर बुझी बुझी और उस दिन उन्होंने कोई ठहाका नहीं लगाया। कुछ महीनों के बाद ख़बर मिली कि अर्चना त्रिपाठी इस दुनिया में अब नहीं रही , उनके ठहाके भी उनके साथ ही चले गए लेकिन शायद नहीं .... जिन्होंने भी अर्चना त्रिपाठी के ठहाके सुने हैं , वो उनको आज भी महसूस कर सकते हैं।
अर्चना त्रिपाठी की आवाज़ ओर उनका नाम , हंगेरियन अन्वेषक Sándor Kőrösi Csoma के जीवन पर आधारित हंगेरियन डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म Az Élet Vendége में भी पढ़ा-सुना जा सकता है।
प्रकाशित पुस्तकें -
शब्द बोलेंगें - कविता संग्रह
काली मशाल - अफ़्रीकी कविताओं का अनुवाद
सुखिया सब संसार है - कविता संग्रह
नई आर्थिक नीति ओर अपराध - शोध ग्रन्थ
गीतपंखी - वाल्ट विटमैन के सांग ऑफ़ माइसेल्फ का अनुवाद
देवदूत - ख़लील जिब्रान के प्रोफेट का काव्यानुवाद
लल्लेश्वरी - शोध ग्रन्थ
हिंदी साहित्य में जीवनी लेखन ओर आवारा मसीहा - शोध ग्रन्थ
पुरस्कार ओर सम्मान -
१९८७ - पंडित हंस कुमार तिवारी सम्मान
१९८९ - डॉ आंबेडकर फ़ेलोशिप
१९९२ - संस्कृति विभाग सीनियर आर्टिस्ट ,फ़ेलोशिप से मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा सम्मानित
१९९८ - पंडित गोविन्द वल्लभ पंत सम्मान
२००० - राष्ट्रीय हिंदी सेवा सहस्त्राब्दी सम्मान
जन्म - ५ मार्च ' १९५९, ग्राम बेल्हूपुर , ज़िला -इटावा , उत्तर प्रदेश
निधन - २७ जून ' २०१७ , दिल्ली
NOTE - उनके सुपुत्र श्री अन्वय को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया।
No comments:
Post a Comment