तुर्क हिंदुस्तानियम मन हिंदवी गोयम जवाब
शकर मिस्री न दारम कज़ अरब गोयम सुख़न
अमीर खुसरो की मातृभाषा हिंदवी थी और उन्हें इस बात का गर्व था , इसीलिए उन्होंने उपरोक्त शे'र में फ़ारसी में कुछ यूँ कहा है - " मैं हिंदुस्तानी तुर्क हूँ और हिंदवी ज़बान में जवाब देता हूँ। मेरे पास मिस्री की शकर नहीं है कि मैं अरबी भाषा में बात करूँ "। अमीर खुसरो ने अपने ग्रन्थ " ख़ालिक बारी " में कई बार हिंदवी और हिन्दी लफ़्ज़ का प्रयोग किया है। अमीर खुसरो ने पहली बार इस भाषा को हिंदवी कहा।
वास्तव में हिंदवी, दिल्ली और उसके आस-पास के इलाकों में बोली जाने वाली ज़बान थी। इसलिए यह कहा जा सकता है कि हिन्दी के लिए सबसे प्रचलित नाम हिंदवी ही है। इसे हिन्दुस्तान की भाषा होने के कारण हिंदुस्तानी नाम भी दिया गया। जिस जिस प्रदेश में यह भाषा गयी वहाँ वहॉँ उसने अपनी अलग पहचान बना ली ,जब यह दक्खिन में पहुँची तो दकनी या दक्खिनी के नाम से जानी जाने लगी। जिस समय खड़ी बोली , उत्तर भारत में सिर्फ बोल-चाल की भाषा थी उस समय दक्षिण में इस भाषा में विपुल साहित्य की रचना हो रही थी। डॉ उदय नारायण तिवारी के शब्दों में - दक्खिनी हिन्दी दक्षिण में ले जाई गयी दिल्ली की बोली है जो बाद में अपने साहित्यिक रूप में दिल्ली में आकर फिर प्रतिष्ठित हो गयी। "
दक्खिनी वास्तव में हिन्दी का एक रूप है। मुल्ला वजही अपने ग्रंथ 'सबरस' में लिखते हैं -
हिन्दुस्तान में हिन्दी ज़बान सो इस लताफ़त
इस छन्दा सो नज़्म हौर नस्र लाकर गुला कर यो नै बोल्या
सनअती ने अपनी मसनवी क़िस्सा बेनज़ीर में दक्खिनी भाषा को संस्कृत और फ़ारसी की तुलना में अधिक सरल बताया है -
जिसे फ़ारसी का न कुछ ग्यान है
तो दखिनी ज़बां उसको आसान है
सो इसमें सहंस्कृत का है मुराद
किया इसते आसानगी का सुवाद
यूँ तो दक्खिनी हिन्दी का अधिकाँश साहित्य फ़ारसी में लिखा गया लेकिन फ़ारसी शब्दों का उच्चारण भी हिन्दी की प्रकृति के अनुसार किया जाता रहा है। उर्दू में प्रियतम को पुल्लिंग रूप में चित्रित करने की परम्परा रही है लेकिन दक्खिनी में प्रियतम को स्त्रीलिंग रूप में प्रयोग किया है। बक़ौल मुहम्मद क़ुली क़ुतुब शाह -
चंचल छबीली छंद भरी रफ़्तार पकड़ी हो रविश
सारी रविशां छोड़कर ओ नार पकड़ी हो रविश
सब मज़हबां की भेस ले बातां हो इससूं बेटने
दिल देती नहीं है मुंजकूं दिलदार पकड़ी हो रविश
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