उस्तादों के उस्ताद कीर्तिशेष सर्वेश चंदौसवी से मेरी पहली मुलाक़ात शायद ३५ वर्ष पूर्व दिल्ली में ही हुई थी। लगभग ५ फुट ५ इंच का क़द , फ़िक्र में डूबे लेकिन लबों पर सदा मुस्कराहट , उनकी गर्मजोशी आज भी याद है। जनाब सर्वेश चंदौसवी अक्सर परिचय साहित्य परिषद् की महाना नशिस्तों में रूसी सांस्कृतिक केंद्र में आते और अपनी पुरज़ोर आवाज़ में ग़ज़ल और गीत पढ़तें। अपने काव्य पाठ के दौरान उन्हें किसी तरह का दख़ल पसंद नहीं था लेकिन हर अच्छे शे'र पर खुल कर दा'द ज़रूर देते। चंदौसी शहर में जन्मे सर्वेश चंदौसवी विज्ञान के विद्यार्थी रहे लेकिन शाइरी उनके ख़ून में बसती थी। ग़ज़ल जैसी मुश्किल विधा पर उनको महारत हासिल थी। उनके गुरु ईश्वर और प्रकृति थे ,उन्होंने ख़ूब मेहनत कर शाइरी का इल्म हासिल किया और हिंदी व उर्दू साहित्य संसार में अपनी अलग पहचान स्थापित करी। किन्ही पारिवारिक कारणों से उनकी पुस्तकों का प्रकाशन काफ़ी देर से हुआ। जब २०१४ में उर्दू शाइरी पर उनकी १४ किताबें एक साथ प्रकाशित हुई तो साहित्यिक जगत हतप्रभ हो गया। इसी सिलसिले में २०१५ में १५ किताबें ,२०१६ में १६ किताबें , २०१७ में १७ किताबें ,२०१८ में १८ किताबें ,२०१९ में १९ किताबें उनके जीवन में ही प्रकाशित हो गयी लेकिन इस सिलसले की अंतिम कड़ी यानी २०२० में २० किताबों के प्रकाशन का स्वप्न टूट गया और हमने एक बड़े शाइर को खो दिया। उनके शागिर्द उनके इस अधूरे स्वप्न को पूरा करने में लगे हैं और आशा हैं कि २०२० के अंत से पहले ही उनकी २० किताबें प्रकाशित हो जाएँगी।
उनके द्वारा रचित कुल ११९ किताबें हिन्दी और उर्दू साहित्य जगत में एक मिसाल बन चुकी हैं। ग़ज़ल के अलावा उन्होंने क़तआत ,रुबाई ,तसलीस , दोहा ,कहानी विधा में भी लेखन किया। अपनी हर ग़ज़ल की पुस्तक में उन्होंने ग़ज़ल के व्याकरण को अत्यंत सरल शब्दों में व्यक्त किया जोकि हर ग़ज़लकार के लिए किसी ख़ज़ाने से कम नहीं , विशेषरूप से नव ग़ज़लकारों के लिए ये पुस्तकें अत्यंत मददगार साबित हो चुकी हैं। अपनी पुस्तक " फ़ने उरूज़ नस्ले नौ और मैं " के ज़रीये उन्होंने नयी पीढ़ी तक ग़ज़ल के उरूज़ को पहुँचाने का प्रयास किया।
मैं उनका शागिर्द तो नहीं था लेकिन अच्छा दोस्त ज़रूर था। जब कभी भी मुझे किसी लफ़्ज़ के बारे में कुछ पूछना होता तो मैं बेझिझक किसी भी वक़्त उनसे फ़ोन करके पूछ लेता था , यक़ीनन सर्वेश चंदौसवी हिन्दी , उर्दू ज़बान और ग़ज़ल के उरूज़ के चलते-फिरते इनसाइक्लोपीडिया थे। हिन्दी और उर्दू ज़बान पर उनकी गहरी पैठ थी और उनका हाफ़िज़ा भी क़ाबिले तारीफ़ था।
मेरी उनसे आख़िरी मुलाक़ात बैंगलोर में कवि मित्र श्री कमल राजपूत 'कमल ' के घर पर हुई थी , जहाँ वे कमल राजपूत के निमंत्रण पर तीन दिनों के लिए बैंगलोर आये हुए थे। दोपहर का भोजन हमने साथ मिलकर खाया और उसी दिन शाम की ट्रैन से उनकी दिल्ली की वापसी थी।
बैंगलोर की उनकी एक और यादगार यात्रा का ज़िक्र भी यहाँ ज़रूरी है जब सर्वेश जी अपने कवि मित्रों और शागीर्दों के साथ बैंगलोर , मैसूर और ऊटी घूमने के लिए आये थे। इस अवसर पर बैंगलोर के जिनेश्वर सभागार में, पुस्तकम एवं जैन समय के संयुक्त तत्वावधान में १३ अप्रैल २०१९ को जश्ने ग़ज़ल - कुल हिन्द मुशायरे का आयोजन किया गया। इस यादगार मुशायरे की सदारत बैंगलोर के नामवर उस्ताद शाइर जनाब गुफ़रान अमजद ने की और सर्वेश चंदौसवी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। मुशायरे में देश के कई नामवर शाइरों ने शिरकत फ़रमाई जिनमें सर्वश्री मनोज अबोध , अनिल वर्मा 'मीत ',अरसल बनारसी , विजय स्वर्णकार , असजद बनारसी , ज्ञान चंद मर्मज्ञ ,मोहसिन अख़्तर मोहसिन, नरेश शांडिल्य , माधुरी स्वर्णकार , रूबी मोहंती , शशि कान्त , सुधा दीक्षित , डॉ शशि मंगल, अकरमुल्ला बेग़ 'अकरम ', हामिद अंसारी , गरिमा , शेख़ हबीब , तैयब अज़ीज़, प्रमोद शर्मा 'असर ', इन्दुकांत आंगिरस के नाम उल्लेख्नीय हैं।
वैसे तो उनके साथ मेरी अनेक यादे जुडी हैं लेकिन दो वर्ष पहले सर्वेश जी मेरे निमंत्रण पर बैंगलोर आये थे और एक हफ़्ता मेरे साथ ही रहे थें। आख़िरी दिन इत्तफ़ाक़ से मेरा बावर्ची नहीं आया था। इससे पहले कि मैं कुछ और व्यवस्था करता सर्वेश जी ने इसरार किया कि आज का भोजन वो पकाएँगे। उस दिन उन्होंने भिंडी की सब्ज़ी और पूरी बनाई , यक़ीन मानिये इतना लज़ीज़ खाना पहले कभी नहीं खाया था। मैंने उनसे कहा कि उनके खाना बनाने की बात दोस्तों से साझा करूँगा तो बोले - " इस बात पे कोई यक़ीन ही नहीं करेगा "। इस एक हफ़्ते में उनसे अंतरंग बाते भी हुई और मुझे मालूम पड़ा कि शाइरी के अलावा भी आप अनेक हुनर जानते थे।
शेख़ इब्राहिम ज़ौक़ का शे'र ज़हन में कौंध गया -
क़िस्मत से ही मजबूर हूँ ऐ ज़ौक़ वगरना
हर फ़न में हूँ मैं ताक़ मुझे क्या नहीं आता
यह अफ़सोस की बात हैं कि हिन्दी और उर्दू साहित्यिक दुनिया में उनका विरोध करने वालों की कमी न थी। उनके साहित्यिक योगदान के हिसाब से उन्हें मान -सम्मान नहीं मिल पाया लेकिन उन्होंने किसी से हार नहीं मानी और अदब का दीप निरंतर जलाते रहे। आख़िरकार वो दौर भी आया जब साहित्यिक दुनिया को उनके अदब का लोहा मानना पड़ा। इस सिलसिले में हफ़ीज़ जालंधरी का यह शे'र याद आ गया -
' हफ़ीज़ ' अहल -ए-ज़बाँ कब मानते थे
बड़े ज़ोरों से मनवाया गया हूँ
सर्वेश जी बहुत खुद्दार इंसान थे , बनावट और दिखावे से कोसो दूर। उनका मानना था कि जो लोग दूसरों के काँधों पर चढ़ कर तरक्की करते हैं वो ख़ुद बहुत पिछड़े हुए होते हैं। उन्होंने कभी किसी सम्मान को पाने के लिए किस तरह का जोड़ -तोड़ नहीं किया , उनका मानना था कि जिसके पास हुनर का मोती है ,समुन्दर उनके पास ख़ुद चल कर आते हैं। उनका यह शे'र देखे -
क़लम का 'सर्वेश' जो धनी है
वो कब किसी से ख़िताब माँगे ?
राज़े - हस्ती है सर्वेश क्या
तीन हर्फ़ी 'अजल ' आदमी
सर्वेश जी राज़े-हस्ती की हक़ीक़त से बख़ूबी वाकिफ़ थे। सारी ज़िंदगी अदब के ज़रीये इस दुनिया की ख़िदमत करते रहे और ख़िदमत करते करते एक दिन इस दुनिया को अलविदा कह गए। हिंदी और उर्दू साहित्य संसार उनके साहित्यिक योगदान को कभी भुला नहीं पायेगा। उनके शागीर्दों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त हैं जिनमें सर्वश्री विजय स्वर्णकार , अनिल वर्मा " मीत " और प्रमोद शर्मा " असर " के नाम उल्लेखनीय हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि उनके शागिर्द उनके द्वारा जलाई गयी अदब की मशाल को कभी बुझने नहीं देंगेऔर अदबी दुनिया में उनका नाम रौशन करेंगे।
यक़ीनन ऐसे फ़नकार सदियों में आते हैं जो इस दुनिया से जाने के बाद भी लोगो के दिलो - दिमाग़ से कभी नहीं निकल पाते।इंशा अल्लाह उनकी आखिरी ख़्वाइश ज़रूर पूरी होगी -
'सर्वेश ' मेरी आख़िरी ख़्वाइश यही है बस
पा जाएं मेरे शे'र निसाबों की ज़िंदगी
जन्म - १ जुलाई ' १९४९ , चंदौसी -उत्तर प्रदेश
निधन - २5 मई ' २०२० - दिल्ली
NOTE:
सर्वेश जी के शागिर्द विजय स्वर्णकार और अनिल मीत को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया ।
बहुत अच्छा खूबसूरत लेख सर्वेश जी के बारे में रोचक जानकारी दी, अफसोस अब उनकी यादें ही रह ंं
ReplyDeleteगयीं हैं। मुझे उनके साथ बहुत बार काव्य पाठ का अवसर मिला था, सर्वेश जी की स्मृति को सादर नमन।