Kaffka Margit ( 1880 - 1918 )
Emberke - छुटका पहलवान
( मुझ पर खुलता दरवाज़ा )
माँ , यहाँ हो तुम ? आदतन दबे पावँ चली आई हो
तुम्हारे बेटे का अभिवादन कौन करेगा ? भूल गई हो
अँधेरे में चमकती आँखें ? अग्निष्ठिका के पास, देखूँ उधर
मिल गयी , उल्लू हो तुम , जलती तुम्हारी हथेलियाँ इधर
लग जाऊँ गले ? कोई प्रेम से पूछे तो सिर्फ़ गूंगे जवाब नहीं देते
-तुम्हीं ने कहा था कि उल्लू की आँखें अँधेरे में चमकती हैं
इसीलिए नाराज़ हो क्या ? आख़िर कब बोलोगी प्यारी माँ
देखो! मैंने पूरी कॉफ़ी पी डाली , चाहो तो पूछ लो बाई से
नहाते वक़्त रोया भी नहीं , सब बटन भी लगाएँ हैं ठीक से
गले से "क " का उच्चारण भी सीख गया ," क " से कुत्ता, कॉफ़ी
ठीक हैं न , क्योंकि मैं हूँ तुम्हारा इकलौता समझदार बेटा
स्नोवाइट की तस्वीर बनाई , पर इसके पैर ताबूत में पसरते नहीं
बड़े हो कर तुम्हारी तरह बनाऊँगा अक्षर , और तुम्हारी तरह
मिलेंगे मुझे भी बहुत पैसे , और तब रोज़ लाऊँगा मैं
कार , तलवार और पासा ,लेकिन तुम्हारे लिए यह सब नहीं, बल्कि
लाऊँगा केक ,किताब और दस्ताने , जैसे स्नोवाइट के लिए लायें बौने
और घोड़ा औ बन्दूक अपने लिए , तुम आज कुछ नहीं लाई मेरे लिए ?
सिर्फ़ मज़ाक में पूछता हूँ , नहीं लाई फ़िर भी तुमसे प्रेम करता हूँ
सिर्फ़ गंदे बच्चें माँगतें हैं हर रोज़ कुछ न कुछ
आज वो बर्फ़ वाली कविता सुनाओ , बर्फ़ गुलगुलो का आँचल
क्या हुआ हैं माँ तुम्हें ? फ़िर पहले की तरह उदास हो तुम ?
तुम्हें किसी ने दुखी किया है क्या ? मैं डंडे से मारूँगा उसे
जानती हो, पिछले साल मेरी लाल गेंद भी छीन ली थी
उस गुंडे ने सड़क पर , लेकिन तब मैं सिर्फ़ एक छोकरा था
पर अब गुरुगुंटाल हूँ मैं , ठोकूँगा ख़ूब उसे गर मिल गया तो
माँ , तुम्हें चूमा नहीं अभी तक ,उदास मत हो ,अपना मुखड़ा दो
इधर झुको .. नहीं झुक सकती, जानती हो, महाआलसी हो तुम
ठीक है , कुर्सी पर चढ़ कर आता हूँ , आह.. बहुत भारी है कुर्सी
यहाँ .. दुखता है माथा ?अभी भगाता हूँ दर्द ,चूमता हूँ उधर ही
पुच्च ..एक बार और , तीन बार.. और एक बोनस
देखो ! अब तुम बिलकुल ठीक हो गयी हो
ठीक है न मेरी प्यारी माँ , मुश्किल काम था
पर कोई बात नहीं
लेकिन अब तो तुम मेरे साथ खेलो माँ !
कवियत्री - Kaffka Margit
जन्म - 10th June ' 1880 , Nagykároly
निधन - 1s December ' 1918 , Budapest
अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस
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