मैंने २१ जुलाई २०२० अदबीयात्रा के इसी ब्लॉग पर सैर-ए-गुलफरोशां या'नी फूल वालों की सैर के बारे में एक पुरानी नज़्म का उल्लेख किया था। सैर-ए-गुलफरोशां की शरुआत हिन्दुस्तान के सम्राट मुग़ल बादशाह अकबर शाह ll ( द्वितीय ) के समय में १८१२ में हुई थी। अकबर शाह ll ( द्वितीय) अपने बड़े बेटे सिराजुद्दीन ज़फर से ख़फ़ा थे और अपने छोटे बेटे मिर्ज़ा जहांगीर को अपना वारिस बनाना चाहते थे लेकिन अँग्रेज़ों को यह बात नापसंद थी। एक दिन मिर्ज़ा जहांगीर ने ब्रिटिश रेजिडेंट पर गोली चला दी ,क़िस्मत से वह तो बच गए लेकिन इस कारनामे के लिए मिर्ज़ा जहांगीर को इलाहाबाद भेज दिया गया था। मिर्ज़ा जहांगीर की माँ मुमताज़ महल बेगम ने मन्नत मांगी कि जब उनका बेटा इलाहाबाद से रिहा कर दिया जायेगा तो वह महरौली में स्तिथ ख़्वाज़ा बख़्तियार' काकी " की दरगाह पर फूलों की चादर चढ़ायेंगी । कुछ सालों बाद मिर्ज़ा जहांगीर, इलाहाबाद से रिहा कर दिए गए तो अपने वायदे के अनुसार मुमताज़ महल बेगम ने ख़्वाज़ा बख़्तियार ' काकी " की दरगाह पर फूलों की चादर चढ़ाई। मुग़ल बादशाह सभी धर्मों का आदर करते थे इसीलिए इस अवसर पर महरौली में स्थित योगमाया मंदिर में भी फूलों का पंखा चढ़ाया गया।
१८१२ में शरू हुए इस पहले सैर-ए-गुलफरोशां के पर्व पर युवराज सिराजुद्दीन ज़फ़र ( बहादुर शाह ज़फ़र ) ने फूलों का पंखा पेश कर यह कहा था -
नूर -ए-अलताफ़-ओ - करम की है यह
सब उसके झलक
कि वो ज़ाहिर है मलिक और बातिन में मलक
इस तमाशे की न क्यों धूम हो अफ़लाक तलक
आफ़ताबी से ख़जिल जिसके हैं खुरशीद मलक
यह बना उस शह-ए -अकबर की बदौलत पंखा
शायक इस सैर के सब आज हैं बादीद-ए -दिल
वाकई सैर है ये देखने ही के क़ाबिल
चश्म-ए -अंजुम हो न इस सैर पर क्यूँकर माइल
सैर ये देखें है वो बेगम वाला मंज़िल
जिसके दीवा का रखे माह से निस्बत पंखा
रंग का जोश है माही से जिबस माह तलक
डूबे हैं अंग में मदहोश से आगाह तलक
आज रंगीन हैं रैयत से लगा शाह तलक
ज़ाफरोज़ार हैं इक बाम से दरगाह तलक
देखने आई है इस रंग से ख़लकत पंखा।
इस पहली फूल वालों की सैर को देखने पूरी दिल्ली उमड़ पड़ी थी और सात दिनों तक महरौली में जश्न मनाया गया था।
इंदु जी, 1812 में अकबर महान की सल्तनत नहीं थी । इतिहास के इस पेज को थोड़ा देखने की आवश्यकता होगी । अतीत को झांकने के लिए यह आलेख अच्छा बन पड़ा है, बधाई
ReplyDeleteयहाँ अकबर नहीं अपितु अकबर शाह द्वितीय का ज़िक्र है।
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