Saturday, August 22, 2020

कीर्तिशेष पंडित रमानाथ अवस्थी - गीतकारों को पैदा करने वाला गीतकार

 मैं  गीत लुटाता  हूँ उन   लोगों पर 

दुनिया में  जिनका कोई आधार नहीं 


निराधार लोगों पर गीत लुटाने वाले कीर्तिशेष पंडित रमानाथ अवस्थी एक ऐसे गीतकार थे जिनके गीत  सुनकर उन कवियों में भी गीत लिखने की उत्कंठा जाग उठती थी जिन्होंने पहले गीत नहीं लिखे थें। मुझे भी गीत लिखने की प्रेरणा पंडित रमानाथ अवस्थी के गीत सुनने से ही मिली, निश्चय  ही मेरे जैसे कुछ और कवि भी होंगे जिन्हें गीत लिखने की प्रेरणा रमानाथ अवस्थी के  गीतों से मिली होगी । पंडित रमानाथ अवस्थी के गीतों का जादू कई दशकों तक हिन्दी के साहित्यिक मंचों और कवि -सम्मेलनों में देखने को मिलता है। मैंने कई कवि-सम्मेलनों में उनके गीत सुने , श्रोता  अक्सर उनको सुनने के लिए देर रात तक कवि-सम्मेलनों में बैठे रहते थें।  उनके व्यक्तित्व की तरह ही उनके गीत भी सहज और सरल भाषा में होते हैं , कही कोई बनावट नहीं , शब्दों का कोई चमत्कार नहीं , कोई ग़ैरज़रूरी बिम्ब नहीं , आत्मा से निकले गीत सीधे  आत्मा में उतर जाते हैं। जितनी तन्मयता से  पंडित रमानाथ अवस्थी  कवि-सम्मेलनों में अपने ख़ास तरन्नुम में गीत गाते थे , उतनी ही तन्मयता से श्रोता उन्हें सुनते थें।  उनके गीत पढ़ते समय एक मूक सन्नाटा बिखर  जाता था और सबकी  रूहों में धीरे धीरे गीत ऐसे डूबने लगता था जैसे समंदर में डूबता सूरज। 

मेरी कभी उनसे व्यक्तिगत बातचीत तो नहीं हुई लेकिन जीवन में दो अवसर ऐसे आये जब वो मेरे बिलकुल करीब  खड़े थे।  एक बार आकाशवाणी दिल्ली के बस स्टॉप पर - कुरता, पायजामा और खादी की जैकेट , नीची नज़र और होठों पर किसी गीत के बंद जैसे अपनी ही धुन में कोई योगी।  एक बार मन में आया कि उनसे कुछ बात करूँ लेकिन गीत में डूबे उस व्यक्ति को परेशान करने  की हिम्मत नहीं जुटा सका।  दूसरा वाक़या आकाशवाणी के वार्षिक उत्सव में आयोजित कवि-सम्मेलन का है। यहाँ  पंडित रमानाथ अवस्थी जी ने यह गीत सुनाया था :


मेरे पंख कट गए हैं , वरना मैं  गगन को गाता

मेरा वश कही जो चलता तेरे सामने न आता 


वह जो नाव डूबनी हैं , मैं उसी को खे रहा हूँ 

तुम्हें डूबने से  पहले  ,    एक भेद दे रहा हूँ 


मेरे पास कुछ नहीं हैं ,  जो तुमसे मैं छिपाता

मेरे पंख कट गए हैं  , वरना मैं  गगन को जाता 


कुछ देर बाद मैं ऑडोटोरियम के वाशरूम से यह गीत गुनगुनाते हुए निकल रहा था और पंडित रमानाथ अवस्थी जी उधर जा रहे थे। उन्हें सामने पाते ही मैंने  हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और उन्होंने  मुस्करा कर मेरे अभिवादन का जवाब दिया। मेरा दुर्भाग्य  ही समझिये कि उनसे कभी बातचीत करने का अवसर नहीं मिला। 

गगन को गाने वाले इस गीतकार को दुनिया वालों ने 'गीत ऋषि ' की उपाधि से नवाज़ा। इतने सरल शब्दों में गीत लिखने का दुष्कर कार्य उनके सिवा और कौन कर सकता है। सरल लिखना अत्यंत कठिन होता है और मुझे लगता है गीत जैसी नाज़ुक विधा पर लिखने  के लिए एक गीतकार की आत्मा चाहिए। 

               बाद में  आपका उपरोक्त गीत जब उनकी पुस्तक में  पढ़ा तो पाया कि उसमे गीत के मुखड़े की  दूसरी पंक्ति -'मेरा वश कही जो चलता तेरे सामने न आता ' ,नदारद थी। मेरे ख़्याल से यह पंक्ति ग़लती से नहीं छूटी होगी अपितु पंडित जी ने इसे स्वयं गीत से निकाल दिया होगा , शायद  इस पंक्ति में  उन्हें अना का एहसास हुआ होगा जोकि उनमे कभी थी ही नहीं , हाँ स्वाभिमान में कोई कमी न थी। 

पंडित रमानाथ अवस्थी भगवान हनुमान जी के अनन्य भक्त थे और दिल्ली के कनॉट प्लेस में  स्थित  बाला जी के प्राचीन मंदिर में हर मंगलवार को जाते थे।  ज़रूर बाला जी भी उनकी भक्ति से प्रसन्न होंगे तभी तो उसी मंदिर की सीढ़ियों पर उनके प्राण पखेरूँ  उड़ गए थे। 

ऐसे गीतकार सदियों में पैदा होते हैं या यूँ कहूँ कि माँ सरस्वती के अवतार में इस धरती पर आते हैं। 

उनके एक दूसरे गीत की दो पंक्तियाँ देखे :


मेरी रचना के अर्थ बहुत से हैं , जो भी तुमसे लग जाए लगा लेना 

मधुवन में सोये गीत हज़ारों हैं , जो भी तुमसे जग जाए जगा लेना 



इनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ - सुमन-सौरभ , आग और पराग ,राख़ और शहनाई , बंद न करना द्वार 



जन्म - १९२६ , फतेहपुर , उत्तर प्रदेश 

निधन - २९ जून ' २००२ ,दिल्ली 


1 comment:

  1. अति सुंदर।मुझे लगता है,ऐसे ही महान कवि और साहित्यकारों की प्रेरणा से ही आपकी लेखनी को इतनी धार मिली है।आपकी इस तरह इन महान कवियों और साहित्यकारों को याद करके,उनके प्रति आपकी सच्ची लगन एवं श्रद्धा झलकती है।ये एक अच्छा प्रयास है,जिससे जनमानस में भी चेतना का सृजन होगा।

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