ऐलिज़ाबेथ ब्रूनर - कला और क़लम
हंगरी और भारत की संस्कृति और कला के आदान - प्रदान का इतिहास काफी पुराना हैं। इस सिलसिले में हंगेरियन माँ -बेटी ऐलिज़ाबेथ शाश ब्रूनर और उनकी पुत्री ऐलिज़ाबेथ ब्रूनर के नाम उल्लेखनीय हैं। ऐलिज़ाबेथ ब्रूनर का जन्म १९१० में हंगरी के एक शहर नाज्यकनिज़ा में हुआ जहाँ आज भी उनका एक संग्राहलय हैं । यह मेरा सौभाग्य है कि अपने हंगरी प्रवास के दौरान मुझे यह संग्राहलय देखने का अवसर मिला। सं १९३० में गुरुवर रविंद्रनाथ टैगोर के निमंत्रण पर दोनों माँ - बेटी भारत आये। लम्बे सफ़र की कठिनाइयों को झेलते हुए जब शांतिनिकेतन पहुँचे तो दोनों की हालत काफी खस्ता थी। भारत में रहते हुए एलिज़ाबेथ ब्रूनर ने सैकड़ो चित्र बनाये जिनमे महात्मा गाँधी , रविंद्रनाथ टैगोर और दलाई लामा के पोट्रेट्स अत्यंत लोकप्रिय हुए। एक बार उनके चित्रों की प्रदर्शनी हंगेरियन संस्कृति केंद्र के प्रांगण में लगी थी , यही उनको पहली और आख़िरी बार देखा था। व्हील चेयर पर बैठी थी , चंद बाते हंगेरियन भाषा में करी तो बहुत ख़ुश हो गयी थी लेकिन उनकी टेढ़ी - मेढ़ी उँगलियाँ देख कर मैं उदास हो गया था। गठिया रोग से पीड़ित होने के कारण उनकी उँगलियाँ मुड़ गयी थी। उनकी इसी पीड़ा से मेरा दिल कराह उठा और फूट पड़ी यह कविता -
ऐलिज़ाबेथ ब्रूनर के नाम
यही कहीं नाज्यकनिज़ा की गलियों में
पली -बढ़ी होगी ऐलिज़ाबेथ ब्रूनर
यही कही सीखा होगा उसने घुटनिया चलना
माँ की ऊँगली पकड़ घूमना - फिरना
माँ के सपनों में दस्तक देता था एक स्वप्न अक्सर
दूर कोई बुलाता था उन्हें क्षितिज के उस पार
फिर निकल पड़ें दोनों , दूना की लहरों को छोड़
बुदा की पहाड़ियों के दूसरी ओर
माँ निकल पड़ी अनजान नगर को पकड़ बेटी की ऊँगली
लिए आँखों में तस्वीर पैशत की धुँधली धुँधली
माँ -बेटी का एक उदर था, खाये कौन रहे फिर भूखा
होठों की मुस्कानों में दर्द दबा था रुखा -सूखा
रंगों के इस जीवन में ,जीवन यूँ भी बदरंग हुआ
बंजारों की मानिंद रहीं घूमती, लंका ,लंदन,इटली ,सिसली
लेकिन रास न आया कोई ठौर, दस्तक देती पूरब की भोर
द्वारे आ पहुंची टैगोर ,
एक शाम के धुँधलके में , माँ का जीवन रीत गया
रीत गया हाँ ,बीत गया
हे परमेश्वर ! हे नाथ ! ऐलिज़ाबेथ हुई अनाथ
रच डाली फिर उसने सुन्दर सुन्दर रचनाएँ
कर डाली चित्रित मानव मन की पीड़ाएँ
चित्रित करते करते पीड़ा , ख़ुद ही बन बैठी पीड़ा
बेबस लाचार मुड़ी -तुड़ी उँगलियों से फिसलती तूलिकाएँ
अब इन बेबस लाचार उँगलियों के चित्र कोई बनाएँ
तो जीवन फिर मुस्कुराएँ ,
करता हूँ आमंत्रित संसार के कलाकारों को
करों चित्रित इन मुड़ी-तुड़ी उँगलियों को
आसान नहीं दर्द को तराशना और चित्र में ढालना
क्योंकि सिर्फ़
मृत्यु के पास ही ऐसी तूलिकाएँ हैं , ऐसे रंग हैं
जिनसे तराशा जा सकता है दर्द
और फिर उस दर्द को
सहजता से ढाला जा सकता है
एक चित्र में
एक उदास चित्र में
एक बेरंग चित्र में
एक सफ़ेद चित्र में।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
NOTE : ऐलिज़ाबेथ ब्रूनर : जन्म - १९१० / निधन -२००१
बहुत सुन्दर कविता में, आपने एक महान कलाकार को उसकी बेशकीमती कलाकारी और उसकी अस्वस्थता को दर्शाया है।बहुत बढ़िया लगा।
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