Friday, August 14, 2020

जशने आज़ादी और ज़ब्तशुदा नज़्में

 

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है  

 देखना है ज़ोर कितना बाज़ुएँ  क़ातिल में है 


         बिस्मिल अज़ीमाबादी  का  दिलों को झकझोर देने वाला यह शे'र  आज भी बदन के  रोंगटें खड़े कर देता है। हक़ीक़त में ये शे'र  बिस्मिल अज़ीमाबादी  का है लेकिन शहीद रामप्रसाद बिस्मिल का नाम इस शे'र के साथ ऐसा जुड़ा कि करोडो लोग आज भी इस शे'र को रामप्रसाद बिस्मिल का ही समझते है।  वास्तव में बिस्मिल अज़ीमाबादी का ये शे'र रामप्रसाद बिस्मिल को बहुत पसंद था और इसी से प्रेरित होकर उन्होंने अपना उपनाम भी ' बिस्मिल ' रखा।  वो इस ग़ज़ल को अक्सर गुनगुनाया करते थे और शहीद होते वक़्त भी इसी ग़ज़ल को गुनगुना रहे थे।  ख़ैर शाइर कोई भी हो लेकिन इस शे'र ने जन- जन में क्रांति भर दी थी।  हर हिन्दोस्तानी के लबों  पर ये शे'र मुखरित हो उठा था। इस शे'र कि सबसे बड़ी ख़ूबसूरती यह है  कि आज भी ये बोलने और सुनने वालो के रोंगटे खड़े कर देता है। 

  

आज़ादी की लड़ाई में ऐसे बहुत से क्रांतिकारी  थे जिन्होंने शमशीर के साथ साथ क़लम से भी आज़ादी की लड़ाई लड़ी। इस सिलसिले में अँगरेज़ी  सरकार द्वारा ऐसे अनेक क़लमकारों को  बाग़ी क़रार देकर जेल में ठूँस दिया जाता था। यह तो सर्वविदित है कि विश्व में जितनी भी क्रांतियाँ आई हैं वो कविता से ही प्रेरित हैं , इसीलिए अँगरेज़ी सरकार को भी शमशीर से अधिक क़लम से डर लगता था।  शमशीर को काटा जा सकता हैं लेकिन क़लम को नहीं।  अँगरेज़ी की मशहूर कहावत - Pen is mightier than sword    कौन नहीं जानता।

 हर हर महादेव , वन्दे मातरम  जैसे आज़ादी की अलख जलाने वाले नारे गली गली में गूँज रहे थे। इन नारों को तो ब्रिटिश सरकार कभी  ज़ब्त नहीं कर पाई लेकिन  क्रांतिकारी  विचारों वाली हर किताब को सरकार द्वारा ज़ब्त कर लिया  जाता था और उसकी उपलब्ध प्रतियों को जला दिया जाता था।  ऐसी ही चंद ज़ब्तशुदा नज़्मों के  कुछ बंद देखें -


देश सेवा का  ही बहता है लहू नस नस में 

अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ कि गढ़ की क़समें

सरफ़रोशी की  अदा  होती हैं   यूँ ही रस्में

भाई  खंज़र से गले मिलते है सब आपस में 

बहने तैयार चिताओं पे हैं जल जाने को 

- रामप्रसाद बिस्मिल 


फ्रीडम नहीं धमकियों से मिलेगी 

ये नेमत तो क़ुर्बानियों  से मिलेगी 

बला से अगर जान जाती है जाये 

मगर आँच आने वतन पर न आये 


-सरदार नौबहार सिंह 'साबिर '


वतन को आज़ाद कराने के लिए हर कोई बेताब था और इसी सिलसिले में  अँग्रेज़ी हक़ूमत इन क्रांतिकारियों को जेल मैं ठूँस रही थी।  जेल जो कि चोरों और बदकारों का ठिकाना था अब एक इज़्ज़त पाने की जगह बन गयी थी। अली जव्वाद ज़ैदी की ये पंक्तियाँ देखें -

मुल्क में एक तूफ़ान बपा था 

जयकारों का शोर मचा था 

जेल में हिन्दुस्तान भरा था 

था एक वो भी ज़माना पियारे


इसी सिलसिले में जनाब बृजनारायण चकबस्त  की नज़्म का ये बंद भी देखें -

सुनो गोशे दिल से ज़रा ये तराने 

अनोखे निराले है जंगी फ़साने 

कही शोरे मातम कही शादियाने 

इसी तरह करते रहेंगे ज़माने 

करो थोड़ी हिम्मत न ढूँढों बहाने 

चलो जेलखाने ,चलो जेलखाने 


पंजाब हत्याकांड में  निर्मम हत्याओं पर लिखी गयी किसी शाइर की  ये पंक्तियाँ देखें - 

बाग़े   जालियां में   निहत्थों पर चलाई गोलियाँ

पेट के बल भी रेंगाया  ज़ुल्म  की हद पार की

हम ग़रीबों पर किये जिसने सितम  बेइंतिहा 

याद भूलेगी नहीं उस डायरे बदकार की  


 ग़ुलामी का वो दौर अख़बार वालों कि लिए भी काफी मुश्किल था।  उन पर हमेशा सरकार की कड़ी नज़र रहती थी और अँगरेज़ी हक़ूमत की कोशिश थी कि ज़्यादा से ज़्यादा अख़बार बंद हो जाये।  इसी सिलसिले में  बृजनारायण चकबस्त  की नज़्म का ये बंद देखें -

अंदर की तलाशी कभी बाहर की तलाशी 

ले लेते हैं हर रोज़ वो दफ़्तर की तलाशी 

रहती हैं एडिटर पे नज़र उनकी हमेशा 

बैठक की तलाशी है कभी घर की तलाशी 

अख़बार को वो चाहते हैं बंद करा दे 

मालिक की तलाशी , कभी नौकर की तलाशी 


आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह का नाम विशेष उल्लेखनीय है। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए  उन्हें राजगुरु और सुखदेव के साथ फाँसी दे दी गयी थी।कुंवर प्रतापचन्द्र आज़ाद द्वारा  भगत सिंह के लिए लिखी गयी ये पंक्तिया देखें - 

होती थी मीटिंग असेंबली में जिस दम फैंका बम

इस केस में पकड़ा गया दीवाना भगत सिंह 

देता था लाल परचा वो लाहौर के थानों में 

हो जाओ होशियार ,ये कहता था भगत सिंह


भगत सिंह ,राजगुरु और सुखदेव की फाँसी से सम्पूर्ण देश में शोक की लहर दौड़ गयी थी। हर शख़्स इन शहीदों की क़ुरबानी से बेदार हो गया था और आज़ादी पाने के लिए मर मिटने को तैयार था। इन शहीदों की फाँसी से पीड़ित होकर  सरदार नौबहार सिंह 'साबिर '  ने लिखा -

लबे दम भी न खोली ज़ालिमों ने हथकड़ी मेरी 

तमन्ना थी कि करता मैं  लिपटकर पियार फाँसी से 

नज़र आएंगे हरसू शमए आज़ादी के परवानें

हज़ारों  मुर्दा दिल हो जायेंगे बेदार फाँसी से


आख़िरकार १५ अगस्त १९४७ को भारत आज़ाद हो गया लेकिन पाकिस्तान के बँटवारे  की क़ीमत चुका कर ।  आज़ादी के तत्काल बाद साम्प्रदायिक दंगों में लाखों लोगों को जान -माल का नुक्सान हुआ।  ख़ैर कोई बात नहीं आज हम एक आज़ाद मुल्क  में रह रहे है लेकिन पीड़ा इस बात की है कि पिछले ७५ वर्षों में भी हम मिलकर उस दीवार को नहीं गिरा पाए जो कभी बननी ही नहीं चाहिए  थी। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 




2 comments:

  1. बहुत सुन्दर लिख रहे हो,इंदु कांत।तुम्हारी कलम भी अब बहुत कुछ बोलने लगी है।बहुत सुन्दर।प्रभु आपकी कलम को और तराशने की हिम्मत अदा कर।जिन्दाबाद।

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  2. बहुत ख़ूब भाई, आज़ादी की वर्षगांठ के अवसर पर अत्यन्त सामयिक चिन्तन! आज आपके ब्लॉग को सपत्नीक पढ़ा, दोनों को बहुत अच्छा लगा। आपकी क़लम की निरंतरता को अनेकानेक साधुवाद!

    सदा ही आपका प्रशंसक
    जितेन्द्र मेहता

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