Sunday, August 2, 2020

इश्क़ का सिक्का - मुन्नवर सरहदी

नज़र आती  हैं जब भी कॉलेज की हसीनाएं 
मैं  अपने  इश्क़ का सिक्का उछाल देता  हूँ 
ख़ुदा  का  शुक्र है सब हिन्दी  पढ़ने वाली हैं  
मैं   उर्दू   बोल के     हसरत निकाल लेता हूँ 



        उर्दू बोल के हसरत निकालने वाले  शाइर  जनाब मुन्नवर सरहदी साहब तंज़ो - मज़ाह  की शाइरी करते थे। 
मुन्नवर साहब बहुत ही सहज ,मेहनती ,मिलनसार और ज़िंदादिल इंसान थे। हल्क़ा ए  तिश्नगाने अदब की नशिस्तों में उनसे मुलाक़ात  हुई थी और बाद में आप परिचय साहित्य परिषद् की महाना  नशिस्तों में भी शिरकत फ़रमाने लगे थे।  मेरी अक्सर उनसे शाइरी पर गुफ़्तगू होती  थी।  जब मैंने उनसे ग़ज़ल  के उरूज़ के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने मुझे सलाह दी कि मुझे आहंग में ग़ज़ल कहनी चाहिए।  ऐसा करने से ग़ज़ल किसी न किस बहर
के क़रीब पहुंच जाती हैं और उसके बाद अगर कही वज़न ग़लत रह गया हो तो उसे ठीक कर लिया जाये।  उनका मानना  था कि हमे कम से कम पाँच हज़ार शे'र याद होने चाहिए और जब वो शे'र हमारे ज़हन में बैठ जायेंगे तो ग़ज़ल  के मिसरे वज़न में निकलेंगे। ग़ज़ल के उरूज़ को समझने के लिए यह एक सरल राह है जोकि नए ग़ज़ल कहने वालों के लिए किसी हद तक मददगार साबित हो सकती  है लेकिन यह तो तय है कि ग़ज़ल अगर बहर में नहीं है तो वह ग़ज़ल नहीं हो सकती। 

मुन्नवर साहब ग़ज़लें भी कहते थे लेकिन मूल रूप  से  आप नज़्म के शाइर  थे। नज़्म के अलावा आप क़त्आत और सेहरे भी कहते थे।एक ज़माना था जब शादियों में आजकल की  तरह  DJ  नहीं बल्कि सेहरे पढ़ने का रिवाज़ था।  मुन्नवर साहब ने अपनी ज़िंदगी में सैकड़ों  सेहरे पढ़े और मुशायरों में उनकी तंज़ो - मज़ाह  कि शाइरी श्रोताओं पर हमेशा एक ख़ुशनुमां  असर छोड़ जाती थी।आपकी मातृभाषा सिरायकी  थी और आप सिरायकी ज़बान की नशिस्तों में भी शिरकत फ़रमाते थे । मुन्नवर साहब को किताबे पढ़ने का बहुत शौक़ था और आप पुरानी दिल्ली की दिल्ली पब्लिक  लाइब्रेरी  से नियमित रूप से उर्दू की किताबे लाकर पढ़ते थे। 

पेशे से दिल्ली महानगर टेलीफ़ोन विभाग में कार्य करते थे।  रिटायर होने के बाद अपने सुपुत्र की स्पोर्ट्स की दुकान में उनकी मदद करते थे। आप एक कुशल घड़ीसाज़ भी थे।  उनके पोते ने उनके जीवन काल में उनकी चंद नज़्मों की एक छोटी-सी पुस्तिका ' पहली किरण ' नाम से प्रकाशित करवाई थी लेकिन अफ़सोस कि उनके जीवन काल में  उनकी कोई मुक़म्मल किताब प्रकाशित नहीं हो पाई । कितनी बड़ी विडंबना है कि कोई शाइर ज़िंदगी भर लिखता है  और उसका क़लाम भी अवाम तक नहीं पहुँच पाता। 



शादी तो की थी हमने भी जीदार की तरह 
लटकें   हुए हैं   तार पे   सलवार की तरह
कहने को घर है अस्ल में चौकी पुलिस की 
बेलन  लिए खड़ी   है   हवलदार की तरह   




NOTE : उन्होंने मेरे प्रथम काव्य संग्रह ' शहर और जंगल ' के लिए भूमिका भी लिखी थी । 

              उनके शागिर्द जनाब नाशाद देहलवी के सहयोग के लिए उनका शुक्रिया अदा करता हूँ। 

2 comments:

  1. वाह वाह,क्या बात है।मुनव्वर सरहदी साहब की शायरी।बहुत बढ़िया,इंदु कांत जी।बहुत गहरे में कूद कर ला रहे हो,ऐसे नगीने।

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  2. बहुत ही सुंदर रचना

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