उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते है 'दाग़'
हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है
उर्दू ज़बाँ को लोग लश्करी ज़बाँ भी कहते है क्योंकि फ़ारसी ज़बान से निकली उर्दू ज़बान सैनिकों की ज़बान थी और बाद में पूरे हिंदुस्तान में हिन्दुस्तानी ज़बान के नाम से जानी जाने लगी । किसी भी भाषा की उन्नति में उस ज़बान के साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान होता है। उर्दू ज़बान और साहित्य के प्रचार - प्रसार के लिए यूँ तो उर्दू अकादमी अपना काम बख़ूबी कर रही है लेकिन कई ग़ैरसरकारी संस्थाएं भी उर्दू ज़बान और उर्दू अदब को निरंतर आगे बढ़ाने के काम में लगीं हैं। इसी सिलसिले में उर्दू की संस्था बज़्मे-उर्दू , बैंगलोर एक महत्वपूर्ण कड़ी है। बज़्मे उर्दू ,बैंगलोर की स्थापना १० नवंबर २००७ को बैंगलोर में हुई। इसके अध्यक्ष जनाब अकरमउल्ला बेग 'अकरम' है और सचिव मशहूर शाइर जनाब गुफ़रान अमजद है। बज़्मे-उर्दू की महाना नशिस्ते तो नहीं होती लेकिन अक्सर ऐजाज़ी अदबी कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता है ,जिनमे उर्दू अदब के साहित्यकारों को विभिन्न अवार्डों से नवाज़ा जाता है । अब तक बज़्मे-उर्दू ८० से ज़्यादा अदबी कार्यक्रम आयोजित कर चुकी है जिनमे से कई कुल हिन्द मुशायरों का आयोजन क़ाबिले तारीफ़ है।
बज़्मे-उर्दू द्वारा आयोजित नशिस्तों और मुशायरों में हिन्दुस्तान और विदेशों के अनेक नामवर शाइर शिरकत फ़रमा चुके हैं । इन शाइरों की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है लेकिन चंद मोतबर शाइरों के नाम देखें -
डॉ बदरुद्दीन ,डॉ क्रिस्टोफर ली ,डॉ ज़ुबेर फ़ारूक़ , प्रो इल्यास शौक़ी , शमीम अब्बास ,इमरान रिफ़्त , अज़्म शाकिरी , शाद फ़िदाईं ,फरहत एहसास , प्रो मुश्ताक़ सदफ़ , अज़रा नक़वी ,अंजुम हापुड़ी ,ज़मीर हापुड़ी ,प्रो रउफ ख़ैर ,मोहसिन जलगांवी , सरदार सलीम ,रशीद ज़ारिब ,हसन काज़मी , ताहिर नक़्क़ाश, ज़हीर अंसारी ,सूफियान क़ाज़ी , डॉ क़मर सरूर , सलीम अंसारी ,मन्नन फ़राज़ , डॉ याक़ूब यावर ,राशिद बनारसी , अज़ीज़ बनारसी , ज़िया बनारसी , अरसल बनारसी, असजद बनारसी ,शाद अब्बासी बनारसी ,कबीर अजमल ,ख़ालिद जमाल , आलम बनारसी , डॉ शाद मशरिक़ी , नसीम निख़त ,मेहमूद शाहिद ,ज्ञानचंद मर्मज्ञ , इन्दुकान्त असर , असद ऐजाज़ , फ़ैयाज़ शकेब , रियाज़ ख़ुमार, अफ़सर अज़ीज़ी , सरदार आयाग़ , डॉ नज़ीर चिश्ती,डॉ सुनील पंवार ,असद रिज़वी ,सुलेमान ख़ुमार , हसन अली हसन , शैख़ हबीब ,मुबीन मुन्नवर , खलील मॉमून , शफ़ीक़ आबिदी ,मुहिब कौसर आदि
उर्दू ज़बान में एक ख़ास तरह की मिठास देखने को मिलती है और इसमें कोई शक नहीं कि उर्दू अदब ने ही , विशेषरूप से उर्दू ग़ज़ल ने आज भी उर्दू भाषा को ज़िंदा रखा हुआ है। उर्दू ज़बान को क़ायम रखने में उर्दू की संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है , विशेषरूप से इन संस्थाओं द्वारा समय समय पर आयोजित नशिस्ते और मुशायरें अवाम में उर्दू भाषा के प्रति दिलचस्पी और लगाव बनाये रखते हैं। अगर आप को भी शाइरी का शौक़ है तो उर्दू ज़बान ज़रूर सीखे लेकिन बक़ौल दाग़ देहलवी -
नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो
कि आती है उर्दू ज़बाँ आते आते
शाइरी के शौक़ की वज्ह से मैंने भी उर्दू ज़बान सीखी ,थोड़ी-बहुत उर्दू लिख-पढ़ लेता हूँ लेकिन मश्क़ अभी ज़ारी है।
NOTE :
बज़्मे-उर्दू - बैंगलोर के सेक्रेटरी जनाब गुफ़रान अमजद साहब को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया।
भाई इंदुकांत जी,आप बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं ।
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