Monday, August 31, 2020

Dr Strelkova Gyuzel Vladimirovna - रूसी - हिन्दी विदुषी



 जिस तरह किताबें  सिर्फ़ उनकी नहीं होती जो उन्हें ख़रीदतें हैं अपितु किताबें  होती हैं उनकी जो उन्हें पढ़तें हैं,  उसी तरह  भाषा भी सिर्फ़ उनकी नहीं होती जो अपनी माँ के पेट से सीख कर आते हैं अपितु होती है उनकी भी जो उस भाषा को पहले सीखते हैं और फिर उसी को ओढ़ते-बिछाते हैं।  हिन्दी भाषा और साहित्य को भारतीय लेखकों और साहित्यकारों ने तो समृद्ध  किया ही हैं  लेकिन इस दिशा में विदेशी लेखकों और साहित्यकारों के अतुलनीय योगदान को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता , विशेषरूप से विदेशी भाषाओं से हिन्दी और हिन्दी से विदेशी भाषाओं में किया गया अनुवाद। इन साहित्यिक अनुवादों ने हिन्दी भाषा और साहित्य को अधिक समृद्ध किया है।आज विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों  में हिन्दी भाषा और साहित्य का पठन-पाठन ज़ारी है और कई विश्वविद्यालयों में तो विदेशी विद्वान ही हिन्दी भाषा  पढ़ा रहे हैं , उन्ही विद्वानों में से एक कड़ी है रूसी - हिन्दी  विदुषी  डॉ स्ट्रेलकोवा गुज़ेल व्लदीमीरोवना। 

वर्तमान में Dr Strelkova Gyuzel Vladimirovna  (स्ट्रेलकोवा  गुज़ेल व्लदीमीरोवना ) IAAS  MSU ( Institute of Asian & African Studies ,Moscow State University )  में हिन्दी भाषा और साहित्य की एसोसिएट  प्रोफ़ेसर है।  आप हिन्दी के साथ साथ मराठी भाषा भी पढ़ाती हैं। अनेक रूसी और अन्तरराष्ट्रीय साहित्यिक बैठकों में पेपर पढ़ चुकी हैं। आप ने के हिन्दी के कई प्रतिष्ठित लेखकों के  साहित्य का हिन्दी से रूसी  भाषा  में अनुवाद किया हैं जिनमे कृष्ण बलदेव वैद , कुँवर नारायण , मृदुला गर्ग के नाम उल्लेखनीय  हैं।  महात्मा गाँधी की १५० वी जन्मशती के अवसर पर इनके द्वारा अनूदित,  महात्मा गाँधी द्वारा रचित पुस्तकों  - हिन्द  स्वराज और अनासक्ति योग -गीता का सन्देश ,  का रूसी भाषा में अनुवाद काफी चर्चित रहा। 

आजकल आप कुँवर नारायण के कहानी संग्रह " आकारों के आस पास " एवं चंपा वैद के कविता संग्रह " स्वप्न में घर " के रूसी भाषा के अनुवाद कार्य में संलग्न हैं 

गुज़ेल से मेरी पहली मुलाक़ात दिल्ली में  स्थित  साहित्य अकादमी  के पुस्कालय में हुई थी। जब मैंने उन्हें अपना परिचय दिया और बताया कि दिल्ली के रूसी सांस्कृतिक केंद्र में हम लोग " परिचय साहित्य परिषद् " के तत्त्वावधान  में नियमित मासिक साहित्यिक कार्यक्रम करते हैं तो वह मुझसे काफ़ी मुतासिर  हो गयी।  इत्तफ़ाक से दो दिन बाद ही " चौधरी  चरण सिंह विश्वविद्यालय " मेरठ में उन्हें हिन्दी कथा साहित्य पर पेपर पढ़ना था। उन्होंने मुझसे इसरार  किया कि मैं भी उनके साथ मेरठ चलूँ और मैंने स्वीकार कर लिया। विश्वविद्यालय में  पेपर पढ़ने के बाद मैं उन्हें सरधना (मेरठ के नज़दीक एक मशहूर क़स्बा ) ले गया जहाँ एक मशहूर चर्च है जिसमे साल में दो बार  बड़े मेले लगते हैं। सरधना कस्बे से २ किलोमीटर दूर त्यागियों का गाँव जुलेड़ा  है और उस गावँ में मेरा एक परिचित परिवार भी रहता है।  मैंने  गुज़ेल से पूछा कि क्या वो गाँव देखना पसंद करेंगी और इसके लिए वह सहर्ष तैयार हो गयी।  हम लोग जुलेड़ा गाँव गये , गाँव के अधिकाँश निवासी एक फ़िरंगी को देखकर हतप्रभ थे।  हम लोग क़रीब एक घंटा वहां रुके होंगे और फिर रात तक दिल्ली लौट आये थे।  उसके बाद भी दिल्ली में ही उनसे चंद मुलाक़ाते और हुई  लेकिन बैंगलोर आ जाने के कारण  बहुत से साहित्यिक सिलसिले टूट गए ,वज्ह कुछ भी रही हो पर सिलसिले टूट गए।        

ख़ैर और क्या कहूँ , बस फ़िराक़ गोरखपुरी का यह शे'र याद आ गया -


एक मुद्दत से तेरी याद भी आई न हमें

और हम भूल गए हो तुझे ऐसा भी नहीं 


Sunday, August 30, 2020

कीर्तिशेष डॉ श्याम निर्मम - ज़िंदगी का गीतकार




तुम अमर बनो 

हम तो जन्म हैं 

बार- बार बाँहों में मृत्यु को कसेंगे 


 मृत्यु को अपनी बाँहों में बार बार कसने वाला गीतकार श्याम निर्मम के अलावा कौन हो सकता है।  जिसने अपनी तमाम उम्र ही ज़िंदगी से लड़ते लड़ते निकाल  दी हो , मौत को उसकी नहीं तो किसकी बाँहों में  सुकून  मिलेगा ?  

डॉ श्याम निर्मम से मेरी पहली मुलाक़ात शायद डॉ धनंजय सिंह के साथ ग़ाज़ियाबाद से दिल्ली जाने वाली सुबह की रेलगाड़ी मेरठ  शटल में ही हुई थी। मैं भी उन दिनों ग़ाज़ियाबाद से दिल्ली रेलगाड़ी से जाया करता था। हम तीनों का दफ़्तर दिल्ली के कनॉट  प्लेस में ही था। मैं स्टेट्समैन में काम करता था, डॉ धनंजय सिंह, कादम्बिनी में और श्याम निर्मम NDMC की पत्रिका पालिका समाचार में कार्य करते थे , इसीलिए कई बार हमारी मुलाक़ाते कनॉट प्लेस में ही होती थी। 

 पालिका समाचार में अपनी रचनाओं के प्रकाशन हेतु या पारिश्रमिक के सिलसिले में , मैं अक्सर उनके दफ़्तर भी जाया करता था।  श्याम निर्मम अत्यंत सहज,सरल, विनम्र , ख़ुशदिल और ज़िंदादिल इंसान  थे। हमेशा  मेरी जमकर ख़ातिरदारी  करते  और कभी अगर  लंच के समय वहाँ होता तो अपने घर का टिफ़िन मेरे साथ ज़रूर साझा  करते। मेरे प्रति  उनके प्रेम को आज भी हृदयतल की गहराइयों  से महसूस करता हूँ। 

डॉ श्याम निर्मम ने साहित्य की विभिन्न विधाओं में रचनाएँ कही लेकिन गीत उनकी आत्मा थी, उनके अपने शब्दों में - " कविता को सदा अपने पास  पाया और उसे लिखने पर एक परम आनंद जैसा सुख मिला।  यह सुख-क्षण ही शायद मुझे बार-बार गीत लिखने को विवश करता है और प्रेरित भी करता है। यूँ अनेक विधाओं में रचनाकर्म किया है ,पर सबसे अधिक संतुष्टि मुझे गीत लिखने पर ही हुई है।" श्याम निर्मम ने अपने गीतों में ज़िंदगी की त्रासदी को बख़ूबी उकेरा है , बानगी के लिए उनके एक नव गीत की यह पंक्तियाँ देखें -


फूलों ने वसंत आने पर गुलदस्ते बाँटे

पर जाने क्यों अपने मन में चुभे बहुत काँटे

अम्मा रोगी -

बाबू जी का चश्मा बना नहीं 

बच्चों की पिछली फ़ीसों का क़र्ज़ा चुका नहीं 


डॉ श्याम निर्मम अपने ख़ास तरन्नुम में गीत पढ़ा करते थे।  उन्होंने देश भर के अनेक कवि-सम्मेलनों में अपने गीतों का पाठ किया , कवि-सम्मेलनों के अलावा दिल्ली , लखनऊ , इलाहाबाद ,ग्वालियर , राजकोट , भोपाल , मुंबई आदि अनेक आकाशवाणी और दूरदर्शन केंद्र से अपनी रचनाओं की प्रस्तुति की। देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। देश के अनेक श्रेष्ठ रचनाकारों की पुस्तकों की भूमिका भी लिखी।  गीत विधा में उनकी गहरी पैठ थी जिसके चलते उन्होंने मूर्धन्य गीतकार पंडित वीरेंद्र मिश्र के कई गीत संग्रहों का सम्पादन भी किया। लगभग ३८ वर्षों तक पालिका समाचार से सम्बद्ध रहकर ,वही से कार्यकारी सम्पादक  के पद से सेवानिवृत हुए। 

उनके एक दूसरे नव गीत की चंद पंक्तिया देखें -

ये कैसी अनहोनी 

जीवन विष पीते बीता 

उम्र बढ़े हर रोज़ 

मगर ये अश्रु पात्र रीता


मुझे यह कहने में संकोच नहीं कि  नित जीवन विष पीने वाले इस गीतकार ने हिन्दी साहित्य को अपने मीठे गीतों से अत्यंत समृद्ध  किया है । अफ़सोस कि मृत्यु को अपनी बाँहों में कसने वाले इस गीतकार को एक दुखद दिन,मृत्यु ने ही अपनी  बाँहों में सदा सदा के लिए समेट लिया,लेकिन मर मर कर भी जीना कोई उनसे सीखे , उन्ही की  ग़ज़ल का यह शे'र देखें -

रोज़  ही   सौ    बहाने   किये 

जिस तरह जी सके हम जिये


उनकी   प्रकाशित पुस्तकें -

हाशिये पर हम - नव गीत संग्रह 

चक्रव्यूह  तोड़ते हुए  - कविता संगह 

लो मैं आ गया तथागत - गौतम बुद्ध पर केंद्रित कविता संग्रह

पंछी गुमसुम पिंजरे में - ग़ज़ल संग्रह  



वास्तविक नाम -  श्याम बिहारी कौशिक 

कवि उपनाम -   श्याम निर्मम 

जन्म - १ अगस्त ' १९५० , सिकंदराबाद ( उत्तर प्रदेश )

मृत्यु - २४ दिसंबर ' २०१२ , नई दिल्ली 


NOTE : उनके सुपुत्र श्री पराग कौशिक को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया।


Friday, August 28, 2020

सैर-ए-गुलफरोशां और फूलों वाला पंखा

 मैंने २१ जुलाई २०२० अदबीयात्रा के  इसी ब्लॉग पर सैर-ए-गुलफरोशां या'नी फूल वालों की सैर के बारे में  एक पुरानी नज़्म का उल्लेख किया था। सैर-ए-गुलफरोशां की शरुआत हिन्दुस्तान के सम्राट मुग़ल बादशाह अकबर शाह ll ( द्वितीय )  के समय  में १८१२ में हुई थी। अकबर शाह ll ( द्वितीय) अपने बड़े बेटे सिराजुद्दीन ज़फर से ख़फ़ा थे और अपने छोटे बेटे मिर्ज़ा जहांगीर को अपना वारिस बनाना  चाहते थे लेकिन अँग्रेज़ों को यह बात नापसंद थी।  एक दिन मिर्ज़ा जहांगीर ने ब्रिटिश रेजिडेंट पर गोली चला दी ,क़िस्मत से वह तो बच गए लेकिन इस कारनामे के लिए  मिर्ज़ा जहांगीर को इलाहाबाद भेज दिया गया था।  मिर्ज़ा जहांगीर  की माँ मुमताज़ महल बेगम ने मन्नत मांगी कि जब  उनका  बेटा इलाहाबाद से रिहा कर दिया जायेगा तो वह महरौली में स्तिथ ख़्वाज़ा बख़्तियार' काकी " की दरगाह पर फूलों  की चादर चढ़ायेंगी ।  कुछ सालों बाद मिर्ज़ा जहांगीर, इलाहाबाद से रिहा  कर दिए गए  तो  अपने वायदे के अनुसार मुमताज़ महल बेगम  ने ख़्वाज़ा बख़्तियार ' काकी " की दरगाह पर फूलों की चादर चढ़ाई। मुग़ल बादशाह सभी धर्मों का आदर करते थे इसीलिए इस अवसर पर महरौली में स्थित योगमाया मंदिर में भी फूलों का पंखा चढ़ाया गया। 

१८१२ में शरू हुए इस पहले सैर-ए-गुलफरोशां के पर्व पर युवराज सिराजुद्दीन ज़फ़र ( बहादुर शाह ज़फ़र ) ने  फूलों  का पंखा पेश कर यह  कहा था -


नूर -ए-अलताफ़-ओ - करम की है यह

सब उसके झलक 

कि वो ज़ाहिर है मलिक और बातिन में मलक 

इस तमाशे की न क्यों  धूम हो अफ़लाक तलक 

आफ़ताबी से ख़जिल जिसके हैं खुरशीद मलक 

यह बना उस शह-ए -अकबर की बदौलत पंखा 


शायक  इस सैर के सब आज हैं बादीद-ए -दिल 

वाकई  सैर है ये देखने ही के क़ाबिल 

चश्म-ए -अंजुम  हो न इस सैर पर क्यूँकर  माइल 


सैर ये देखें है वो बेगम वाला मंज़िल 

जिसके दीवा का रखे माह से निस्बत पंखा 


रंग का जोश है माही से जिबस माह तलक 

डूबे हैं अंग में मदहोश से आगाह तलक 

आज रंगीन हैं रैयत से लगा शाह तलक 

ज़ाफरोज़ार हैं इक बाम से दरगाह तलक 


देखने आई है इस रंग से ख़लकत पंखा। 


इस पहली फूल वालों की सैर को देखने पूरी दिल्ली उमड़ पड़ी थी और सात दिनों तक महरौली में जश्न मनाया गया था।  


Thursday, August 27, 2020

कीर्तिशेष देवराज दिनेश - मज़दूरों का मसीहा

 दिल्ली के आई टी ओ के चौराहे और Rouse   Avenue  ( अब दीनदयाल उपाध्याय   मार्ग )  के सिरे पर स्थित " आंध्रा एजुकेशन सोसाइटी हायर सेकेंडरी  स्कूल " से ही मैंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा  ग्रहण करी और इस  स्कूल से मेरी बहुत-सी यादे जुडी हैं।  यह स्कूल आज भी वही स्थित हैं, जब कभी आई टी ओ  चौराहे से गुज़रता हैं तो दूर से ही एक नज़र उसको निहार लेता हूँ।स्कूल से सटा हुआ एक गन्दा नाला  भी बहता था और स्कूल के पिछली तरफ़ के मैदान में एक पुरानी लोहे की तोप भी थी जिस पर अक्सर अपने दोस्तों के साथ बैठ कर गपशप किया करता  था।   

शायद १९७१-७२ की बात है , मैं , Rouse   Avenue  के फुटपाथ पर चल रहा था , तभी मैंने दूर से लगभग पाँच फुट वाले उस मोटे व्यक्ति को देखा , जिसकी नज़रे धरती की तरफ थी,बायें कंधे पर झूलता एक बैग था  और वह एक खास अंदाज़ में भारी क़दमों से आगे बढ़ता जा रहा था। राह में बैठा एक  भिखारी भीख की गुहार लगा रहा था , भिखारी के करीब  पहुँचते ही उस व्यक्ति ने अपनी दायी जेब से सौ रुपए का नोट निकाल भिखारी की झोली में डाल दिया था और बिना किसी प्रतिक्रिया के आगे बढ़ गया था। उनके भिखारी को पैसे देने के अंदाज़ से ऐसा लग रहा था जैसे वो अपनी जेब खाली करना चाहते है और माया के बोझ से मुक्त होना चाहते है। उन दिनों  सौ रुपए  एक रक़म होती थी। अचानक मुझे वो चेहरा जाना पहचाना-सा लगा। हाँ , वही थे देवराज दिनेश जिन्हे मैंने शायद कुछ दिन पहले ही गाँधी नगर , ग़ाज़ियाबाद  में आयोजित एक कवि-सम्मेलन में सुना था।  मैंने यही  उन्हें पहली और  आख़िरी  बार सुना था।  यहाँ  उन्होंने जो कविता सुनाई थी वह  तो मुझे अब  याद नहीं लेकिन प्रसंग कुछ इस प्रकार का था कि एक सरकारी ऑफ़िसर अपने बच्चे के जन्मदिन पर अपने मित्रो को आमंत्रित करता  है और इस अवसर पर आमंत्रित अतिथि महँगे महँगे उपहार लाते हैं जैसे कि  टेलीविज़न , फ्रीज , घड़ी   अलमारी आदि लेकिन बच्चे के लिए कोई एक खिलौना   भी नहीं लाता । उनके  एक चर्चित गीत  के कुछ बंद देखें - 


मैं मज़दूर मुझे देवों की बस्ती से क्या ?

अगणित बार धरा पर मैंने स्वर्ग बनाये 


अम्बर  पर जितने तारे ,  उतने वर्षों से 

मेरे  पुरखों  ने धरती    का रूप सँवारा

धरती को सुन्दरतम करने की ममता में 

बिता चुका है कई  पीढ़ियाँ  वंश हमारा 


और  अभी   आगे आने   वाली सदियों में 

मेरे  वंशज     धरती का     उद्धार  करेंगे 

इस प्यासी धरती के   हित में ही लाया था 

हिमगिरि चीर,सुखद गंगा की निर्मल धारा


मैंने     रेगिस्तानों    की रेती धो -धोकर  

वंध्या धरती पर भी स्वर्णिम पुष्प खिलाए


मैं मज़दूर  मुझे देवो की बस्ती से क्या 


धरा पर स्वर्ग बनाने  वाला  यह कवि विभिन्न रसायनों का   एक अद्भुत मिश्रण था।  जिस सहजता से आप प्रेम गीत लिखते थे उतनी ही सहजता से वीर रस की कवितायें भी।  इन्होने कुछ फिल्मों के लिए गीत लिखे और चंद फिल्मों में अभिनय भी किया।  कवि सम्मेलनों में अपनी पुरज़ोर आवाज़ में कविता सुनाते थे और ऐसा लगता था जैसे कोई मदारी तमाशा  दिखा  रहा हो।  श्रोता अक्सर  उनके कविता पाठ  से सम्मोहित हो जाते थे और उनकी कविता का जादू एक लम्बे अरसे तक श्रोताओं के  ज़हन और रूह में बना रहता था। कविता और गीत के अलावा देवराज दिनेश ने एकांकी भी लिखी।  उनका कविता संग्रह - गंध और पराग एवं एकांकी मानव प्रताप  पुस्तकें अत्यंत  लोकप्रिय  हुई।   

दुःख की बात है कि इतने बड़े कवि के विकी पेज पर बहुत ही कम जानकारी है और उनका कोई वीडियो भी मुझे मिल नहीं पाया। धरती पर स्वर्ग बनाने वाले ऐसे कवि फिर फिर धरती पर आते ही रहेंगे पर क्या हमारा समाज और देश उनका समुचित सम्मान कर पायेगा ?ऐसे बहुत से देश हैं जहाँ शिक्षक और कवि -लेखक  का ओहदा और इज़्ज़त राजनैतिक नेताओं और सरकारी अफ़सरों से अधिक होती है लेकिन हमारे देश में ऐसा यक़ीनन नहीं हैं, लेकिन कब तक ?



जन्म - २२' जनवरी , १९२२ - जलालपुर जट्टा ( अब पकिस्तान में )

निधन - १२' सितम्बर , १९८७ - दिल्ली 

Wednesday, August 26, 2020

एक कविता मेरी प्रेमिका जोंक के नाम - Vers a szerelmes piócáról ( हंगेरियन कविता का हिन्दी अनुवाद )

 

एक कविता मेरी प्रेमिका जोंक के नाम - Vers a szerelmes piócáról 


मेरे पास है एक बड़ी पीली प्लेट 

और प्लेट के बीचोबीच है एक सूराख़ 

सूराख़  के दूसरी ओर मेरी प्रेमिका जोंक

उसी वक़्त लपकता शीत का चाँद मेरी ओर

क्योंकि मेरे पास है एक बड़ी पीली जोंक

और जोंक के बीचोबीच है एक सूराख़ 

जिसमे समा जाते हैं हज़ारों ततैये 

अब मेरी प्लेट में सेब के पेड़ की टहनियाँ हैं

और एक काला सूराख़ 

जिस में समा जाती है बड़ी पीली प्लेट 

बीचोबीच गुनगुनाती जोंक के साथ 

मेरी प्रेमिका जोंक गाती है एक गीत -

'हज़ारों ततैये मेरे गले में 

सेब की टहनियाँ मेरे चूतड़ों में 

जलती बकरियाँ झाड़ियों में '। 


कवि - Ladik Katalin 

अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

 

 

Tuesday, August 25, 2020

पेड़ों की छाँव तले रचना पाठ - कविताई पेड़


पेड़-पौधे  हैं  बहुत बौने तुम्हारे 

रास्तों में एक भी बरगद नहीं हैं 


दुष्यंत  कुमार का उपरोक्त शे'र कॉन्क्रीट के जंगलों और मल्टीस्टोरी अपार्टमेंट्स की बालकोनियों में पनपती गमला संस्कृति पर तीखा व्यंग करता हैं। पेड़ अगर हैं तो कम से कम छाया  तो दें।  पेड़ तो आपको  अपने आस -पास भी बहुत मिल जायेंगे लेकिन वैशाली,  ग़ाज़ियाबाद   में पर्यावरण को समर्पित एक ऐसी संस्था हैं जिसका नाम ही  " पेड़ों की छाँव तले फाउंडेशन " है। पर्यावरण के अलावा इस संस्था की दिलचस्पी साहित्य में भी है। अक्टूबर २०१४ से  "पेड़ों की छाँव तले  रचना पाठ "( फाउंडेशन की ही एक कड़ी ) निरंतर मासिक काव्य गोष्ठियों   का आयोजन करती आ रही है जिसमे ग़ाज़ियाबाद  और दूसरे शहरों के कविगण शिरकत फरमाते हैं। इस संस्था के अध्यक्ष प्रतिष्ठित कवि श्री अवधेश सिंह  और प्रधान सचिव ठाकुर प्रसाद चौबे जी हैं। 

कोरोना के चलते २३ अगस्त २०२० का पेड़ों की छाँव तले  रचना पाठ की ६६ वी काव्य ( द्वितीय  ई-गोष्ठी ) वरिष्ठ साहित्यकार कन्हैया लाल खरे की अध्यक्षता में संपन्न हुई।  इस  ई-गोष्ठी में शिरकत फ़रमाने वाले कविगण सर्वश्री कन्हैया लाल खरे , विष्णु सक्सेना , अनिमेष शर्मा , मृत्युंजय साधक , डॉ सुमन साधक , मंजीत कौर मीत , पूनम कुमारी ,मनोज दिववेदी , निधिकांत पाण्डेय एवं अवधेश सिंह के नाम उल्लेखनीय हैं। 

" आज़ादी " विषय पर पढ़ी गयी चंद कविताओं के अंश देखें -


फ़हर -लहर तिरंगा कहता   हमने आज़ादी पाई है 

अब आज़ादी कश्मीर ने पाई  कली-कली हर्षाई  है 

केशर की क्यारी ने फिर से केशरी गंध महकाई है 

-कन्हैया लाल खरे


नहीं ग़ुलामी  चाहिए, दिलों में न अपवाद।

आपस में खुलकर जियें, रहे देश आज़ाद।।


बाँध कफ़न  सर पे चले ,करी जेल आबाद।

मरते दम तक ये कहा - रहे देश आज़ाद।।


जो सूली पे चढ़ गये, कर लो उनको याद।

क़ुर्बानी  मत भूलना ,  रहे देश आज़ाद ।।

-अवधेश सिंह


है शहीदों की शहादत को नमन

ऐसी बलिदानी रवायत  को नमन      

हौसला जिसमें रहे जीता है वो ही       

शौर्य की ऐसी कहावत को नमन     

 -  डॉ. अंजु सुमन साधक 


माँ के दूध के कर्ज़ें को,

सबको हम बतलाएँगे।

आओ,सीमा पर आओ

अब शत्रु मार भगाएँगे।।

फड़क-फड़क उठ जाएँ भुजाएँ,

किट-किट दाँत बजाएँगे।

तड़क-तड़क कर बिजली-सा हम,

खंज़र  को खनकाएँगे।।

डमक-डमक डम डमरू लेकर

तांडव नृत्य रचाएँगे।

तीखी तिरछी करके भौहें,

शेरों-सा गुर्राएँगे ।।

ऐसे ही शेरों की माँ तो, 

भारत माँ कहलाती है।

 -मृत्युंजय साधक


राष्ट्र पर्व पर है फ़हराता

राष्ट्रशोक पे ये झुक जाता

सैनिक गौरव कर लहराता

शहीद इसे पहन के आता

-मनोज द्विवेदी


माना कि इस रात की सुब्ह नही

पर ज़िंदगी  यूँ बे-वज्ह  नहीं

सच की ये लड़ाई है

गहरी बहुत  खाई है

हो के अब तू निडर

चलती रह अपनी डगर.....

- पूनम कुमारी


अपनी डगर पर चलने वाली संस्था " पेड़ों की छाँव तले फाउंडेशन " का  यह अदबी सफ़र यक़ीनन क़ाबिले तारीफ़ है और इस संस्था का लगाया हुआ पौधा आज एक बरगद की शक्ल ले चुका है।  पेड़ों की छाँव तले - रचना पाठ के ज़रीये  पेड़ों को कवितायें पहनाई जा  रही  हैं और अब कविताओं वाले इन पेड़ों की छाँव और भी घनी हो जाएगी , जिसमें बैठ कर थके-माँदे मुसाफ़िर अपनी थकान मिटा पाएँगे।  कविताओं वाले इन पेड़ों  का  संगीत जंगलों में दूर दूर तक फ़ैल जायेगा लेकिन बक़ौल दुष्यंत कुमार -


पत्तों से चाहते हो  बजें साज़ की तरह 

पेड़ों से आप पहले उदासी तो लीजिये  



NOTE :"पेड़ों की छाँव तले फाउंडेशन" के अघ्यक्ष श्री अवधेश सिंह का उनके सहयोग के लिए शुक्रिया। 


अधिक जानकारी के लिए देखें -https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=3335382766520529&id=100001465165698




 

Monday, August 24, 2020

सारस और लोमड़ी - το λελέκι και η αλεπού ( ग्रीक लोक कथा का हिन्दी अनुवाद )

 το λελέκι και η αλεπού -   सारस और लोमड़ी



प्राचीन समय की बात है एक सुन्दर गावँ में  एक सारस अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहता था। गावँ के बाहर लाल बालों  और टेढ़ी  पूँछ वाली एक चालाक लोमड़ी रहती थी। एक दिन जंगल में सारस और लोमड़ी की मुलाक़ात हो गयी। 

"नमस्ते सारस जी , आज आप यहाँ कैसे ? " - लोमड़ी ने पूछा। 

"मैं यहाँ जंगल में अपने बच्चों के लिए खाना लेने आया हूँ "- सारस ने जवाब दिया। 

"जब आप  यहाँ आ ही गए  हैं  तो मे्रे घर कुछ खा  कर जाइये "- लोमड़ी ने कहा। 

सारस को उसके निमंत्रण पर हैरानी हुई लेकिन अंततः वह मान गया। वह लोमड़ी के घर गया और लोमड़ी ने उसे एक प्लेट में गरम सूप परोस दिया।  तब सारस को एहसास हुआ कि लोमड़ी उसका मज़ाक बना रही है क्योंकि अपनी लम्बी चोंच से प्लेट में पड़े उस सूप को पीना लगभग असंभव था।  सारस ने सूप पीने का नाटक किया और लोमड़ी जब सारा सूप चट कर गयी तो सारस ने उससे कहा -

"सूप बहुत लज़ीज़ था , मैं चाहता हूँ कल दोपहर का लंच तुम मे्रे साथ मे्रे घर पर करों "। 

लोमड़ी ने उसका निमंत्रण स्वीकार कर लिया और सारस अपने घर को लौट गया।  वह सारे रास्ते सोचता रहा कि   लोमड़ी ने उसका मज़ाक उड़ाया है और  इसके लिए उसे सबक सीखाना चाहिए। 

अगले दिन सारस ने अपनी पत्नी को बताया कि  किस तरह लोमड़ी ने उसका मज़ाक उड़ाया था।  उसने अपनी पत्नी से स्वादिष्ट भोजन पकाने के लिए कहा और उस भोजन को कम मुहँ वाले गिलासों  में परोसने के लिए कहा। निर्धारित समय पर लोमड़ी लटकती-मटकती अपनी टेढ़ी पूँछ को घुमाती सारस के घर पहुँच गयी। उसने दरवाज़े पर दस्तक दी और पूरे सारस  परिवार ने उसका स्वागत किया। 

"कितनी बढ़िया ख़ुश्बू आ रही है , मे्रे मुहँ में  पानी आ रहा है"-लोमड़ी चहकी  ।  

डाइनिंग टेबल पर सब लोग बैठ गए तो सारस की पत्नी ने गिलासों  में  खाना परोस दिया।  सारस ने गिलास में  अपनी चोंच डाल कर खाना शुरू कर दिया लेकिन लोमड़ी अपना मुहँ तंग मुहँ वाले गिलासों में  नहीं घुसा  पाई।  भोजन समाप्त होने पर वे लोग डाइनिंग टेबल से उठ गए।  लोमड़ी भूखी  रह गयी थी लेकिन उसने बिना कुछ कहे सारस परिवार से विदा ली ।  

वापिस  जाते समय वह सारे रास्ते सोचती रही कि अगर दूसरे जानवरों को इस बारे में पता चलेगा तो उसकी बेइज़्ज़ती हो जाएगी। लोमड़ी को एहसास हो गया कि सारस ने उसकी चालाकी पकड़ ली थी। 



अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 


Sunday, August 23, 2020

बज़्मे-उर्दू , बैंगलोर - उर्दू ज़बान का क़ाफ़िला

 

उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते है 'दाग़' 

 हिन्दोस्ताँ   में  धूम   हमारी ज़बाँ   की है


उर्दू ज़बाँ को लोग लश्करी ज़बाँ भी कहते है  क्योंकि फ़ारसी ज़बान से निकली उर्दू ज़बान सैनिकों की ज़बान थी  और  बाद में पूरे हिंदुस्तान में हिन्दुस्तानी ज़बान के नाम से जानी जाने लगी ।  किसी  भी भाषा की उन्नति में उस ज़बान  के साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान होता है। उर्दू ज़बान और साहित्य के प्रचार - प्रसार के लिए यूँ तो उर्दू अकादमी अपना काम बख़ूबी कर रही है लेकिन कई ग़ैरसरकारी संस्थाएं भी उर्दू ज़बान और उर्दू अदब को निरंतर आगे बढ़ाने के काम में लगीं  हैं।  इसी सिलसिले में   उर्दू की संस्था बज़्मे-उर्दू , बैंगलोर एक महत्वपूर्ण कड़ी है। बज़्मे उर्दू ,बैंगलोर की स्थापना १० नवंबर २००७ को बैंगलोर में हुई।  इसके अध्यक्ष जनाब अकरमउल्ला बेग 'अकरम' है  और सचिव मशहूर शाइर जनाब गुफ़रान अमजद है। बज़्मे-उर्दू की महाना नशिस्ते तो नहीं होती लेकिन अक्सर ऐजाज़ी  अदबी कार्यक्रमों का आयोजन होता रहता है ,जिनमे उर्दू अदब के साहित्यकारों को विभिन्न अवार्डों से नवाज़ा जाता है । अब तक बज़्मे-उर्दू  ८० से ज़्यादा अदबी कार्यक्रम आयोजित कर चुकी है जिनमे से कई कुल हिन्द मुशायरों का आयोजन क़ाबिले तारीफ़ है। 


 बज़्मे-उर्दू द्वारा आयोजित नशिस्तों और मुशायरों में हिन्दुस्तान और विदेशों के अनेक नामवर शाइर शिरकत फ़रमा चुके  हैं ।  इन शाइरों की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है लेकिन चंद मोतबर शाइरों के नाम देखें -

डॉ बदरुद्दीन ,डॉ क्रिस्टोफर ली ,डॉ ज़ुबेर फ़ारूक़ , प्रो इल्यास शौक़ी , शमीम अब्बास ,इमरान रिफ़्त , अज़्म शाकिरी , शाद फ़िदाईं  ,फरहत एहसास , प्रो मुश्ताक़ सदफ़ , अज़रा नक़वी ,अंजुम हापुड़ी ,ज़मीर हापुड़ी ,प्रो रउफ ख़ैर ,मोहसिन जलगांवी , सरदार सलीम ,रशीद ज़ारिब  ,हसन काज़मी , ताहिर  नक़्क़ाश, ज़हीर अंसारी ,सूफियान क़ाज़ी , डॉ क़मर सरूर , सलीम अंसारी ,मन्नन फ़राज़ , डॉ याक़ूब यावर ,राशिद बनारसी , अज़ीज़ बनारसी , ज़िया बनारसी , अरसल बनारसी, असजद बनारसी ,शाद अब्बासी बनारसी ,कबीर अजमल ,ख़ालिद जमाल ,  आलम बनारसी , डॉ शाद मशरिक़ी , नसीम निख़त ,मेहमूद शाहिद ,ज्ञानचंद मर्मज्ञ , इन्दुकान्त असर , असद  ऐजाज़  , फ़ैयाज़ शकेब  , रियाज़ ख़ुमार, अफ़सर अज़ीज़ी , सरदार आयाग़   , डॉ नज़ीर चिश्ती,डॉ सुनील पंवार ,असद रिज़वी ,सुलेमान ख़ुमार , हसन अली हसन , शैख़ हबीब ,मुबीन मुन्नवर , खलील मॉमून , शफ़ीक़  आबिदी ,मुहिब कौसर आदि 


उर्दू ज़बान में एक ख़ास तरह की मिठास देखने को मिलती है और इसमें कोई शक नहीं कि उर्दू अदब ने ही , विशेषरूप से उर्दू ग़ज़ल ने  आज भी उर्दू भाषा को ज़िंदा रखा हुआ है। उर्दू ज़बान को क़ायम रखने में उर्दू की संस्थाओं की   महत्वपूर्ण भूमिका रही  है , विशेषरूप से इन संस्थाओं द्वारा समय समय पर आयोजित नशिस्ते और मुशायरें अवाम में उर्दू भाषा के प्रति दिलचस्पी और लगाव बनाये रखते हैं। अगर आप को भी शाइरी का शौक़ है तो उर्दू ज़बान ज़रूर सीखे लेकिन बक़ौल दाग़ देहलवी -

नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो 

कि आती है  उर्दू   ज़बाँ आते आते 


                     शाइरी के शौक़ की वज्ह से मैंने भी उर्दू ज़बान सीखी ,थोड़ी-बहुत उर्दू लिख-पढ़ लेता हूँ लेकिन मश्क़ अभी ज़ारी है। 


NOTE :

बज़्मे-उर्दू - बैंगलोर के सेक्रेटरी जनाब गुफ़रान अमजद साहब को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया। 

Saturday, August 22, 2020

कीर्तिशेष पंडित रमानाथ अवस्थी - गीतकारों को पैदा करने वाला गीतकार

 मैं  गीत लुटाता  हूँ उन   लोगों पर 

दुनिया में  जिनका कोई आधार नहीं 


निराधार लोगों पर गीत लुटाने वाले कीर्तिशेष पंडित रमानाथ अवस्थी एक ऐसे गीतकार थे जिनके गीत  सुनकर उन कवियों में भी गीत लिखने की उत्कंठा जाग उठती थी जिन्होंने पहले गीत नहीं लिखे थें। मुझे भी गीत लिखने की प्रेरणा पंडित रमानाथ अवस्थी के गीत सुनने से ही मिली, निश्चय  ही मेरे जैसे कुछ और कवि भी होंगे जिन्हें गीत लिखने की प्रेरणा रमानाथ अवस्थी के  गीतों से मिली होगी । पंडित रमानाथ अवस्थी के गीतों का जादू कई दशकों तक हिन्दी के साहित्यिक मंचों और कवि -सम्मेलनों में देखने को मिलता है। मैंने कई कवि-सम्मेलनों में उनके गीत सुने , श्रोता  अक्सर उनको सुनने के लिए देर रात तक कवि-सम्मेलनों में बैठे रहते थें।  उनके व्यक्तित्व की तरह ही उनके गीत भी सहज और सरल भाषा में होते हैं , कही कोई बनावट नहीं , शब्दों का कोई चमत्कार नहीं , कोई ग़ैरज़रूरी बिम्ब नहीं , आत्मा से निकले गीत सीधे  आत्मा में उतर जाते हैं। जितनी तन्मयता से  पंडित रमानाथ अवस्थी  कवि-सम्मेलनों में अपने ख़ास तरन्नुम में गीत गाते थे , उतनी ही तन्मयता से श्रोता उन्हें सुनते थें।  उनके गीत पढ़ते समय एक मूक सन्नाटा बिखर  जाता था और सबकी  रूहों में धीरे धीरे गीत ऐसे डूबने लगता था जैसे समंदर में डूबता सूरज। 

मेरी कभी उनसे व्यक्तिगत बातचीत तो नहीं हुई लेकिन जीवन में दो अवसर ऐसे आये जब वो मेरे बिलकुल करीब  खड़े थे।  एक बार आकाशवाणी दिल्ली के बस स्टॉप पर - कुरता, पायजामा और खादी की जैकेट , नीची नज़र और होठों पर किसी गीत के बंद जैसे अपनी ही धुन में कोई योगी।  एक बार मन में आया कि उनसे कुछ बात करूँ लेकिन गीत में डूबे उस व्यक्ति को परेशान करने  की हिम्मत नहीं जुटा सका।  दूसरा वाक़या आकाशवाणी के वार्षिक उत्सव में आयोजित कवि-सम्मेलन का है। यहाँ  पंडित रमानाथ अवस्थी जी ने यह गीत सुनाया था :


मेरे पंख कट गए हैं , वरना मैं  गगन को गाता

मेरा वश कही जो चलता तेरे सामने न आता 


वह जो नाव डूबनी हैं , मैं उसी को खे रहा हूँ 

तुम्हें डूबने से  पहले  ,    एक भेद दे रहा हूँ 


मेरे पास कुछ नहीं हैं ,  जो तुमसे मैं छिपाता

मेरे पंख कट गए हैं  , वरना मैं  गगन को जाता 


कुछ देर बाद मैं ऑडोटोरियम के वाशरूम से यह गीत गुनगुनाते हुए निकल रहा था और पंडित रमानाथ अवस्थी जी उधर जा रहे थे। उन्हें सामने पाते ही मैंने  हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और उन्होंने  मुस्करा कर मेरे अभिवादन का जवाब दिया। मेरा दुर्भाग्य  ही समझिये कि उनसे कभी बातचीत करने का अवसर नहीं मिला। 

गगन को गाने वाले इस गीतकार को दुनिया वालों ने 'गीत ऋषि ' की उपाधि से नवाज़ा। इतने सरल शब्दों में गीत लिखने का दुष्कर कार्य उनके सिवा और कौन कर सकता है। सरल लिखना अत्यंत कठिन होता है और मुझे लगता है गीत जैसी नाज़ुक विधा पर लिखने  के लिए एक गीतकार की आत्मा चाहिए। 

               बाद में  आपका उपरोक्त गीत जब उनकी पुस्तक में  पढ़ा तो पाया कि उसमे गीत के मुखड़े की  दूसरी पंक्ति -'मेरा वश कही जो चलता तेरे सामने न आता ' ,नदारद थी। मेरे ख़्याल से यह पंक्ति ग़लती से नहीं छूटी होगी अपितु पंडित जी ने इसे स्वयं गीत से निकाल दिया होगा , शायद  इस पंक्ति में  उन्हें अना का एहसास हुआ होगा जोकि उनमे कभी थी ही नहीं , हाँ स्वाभिमान में कोई कमी न थी। 

पंडित रमानाथ अवस्थी भगवान हनुमान जी के अनन्य भक्त थे और दिल्ली के कनॉट प्लेस में  स्थित  बाला जी के प्राचीन मंदिर में हर मंगलवार को जाते थे।  ज़रूर बाला जी भी उनकी भक्ति से प्रसन्न होंगे तभी तो उसी मंदिर की सीढ़ियों पर उनके प्राण पखेरूँ  उड़ गए थे। 

ऐसे गीतकार सदियों में पैदा होते हैं या यूँ कहूँ कि माँ सरस्वती के अवतार में इस धरती पर आते हैं। 

उनके एक दूसरे गीत की दो पंक्तियाँ देखे :


मेरी रचना के अर्थ बहुत से हैं , जो भी तुमसे लग जाए लगा लेना 

मधुवन में सोये गीत हज़ारों हैं , जो भी तुमसे जग जाए जगा लेना 



इनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ - सुमन-सौरभ , आग और पराग ,राख़ और शहनाई , बंद न करना द्वार 



जन्म - १९२६ , फतेहपुर , उत्तर प्रदेश 

निधन - २९ जून ' २००२ ,दिल्ली 


Friday, August 21, 2020

लोमड़ी और बत्तखें - A róka és a kacsák ( हंगेरियन लोक कथा का हिन्दी अनुवाद )

  A róka és a kacsák -  लोमड़ी और बत्तखें 


 एक बार एक लोमड़ी घूमते घूमते झील के किनारे आ पहुँची।  झील में बत्तखें  तैर रही थीं। 

बत्तखों को देखते ही लोमड़ी के मुहँ में पानी आ गया।  लोमड़ी सोचने लगी कि किसी  तरह एक बत्तख खाने को मिल जाये।  वह जानती थी कि बत्तखें  काफ़ी जिज्ञासु  हैं इसलिए उसने ऊँची आवाज़ में  उनसे कहा - मेरे नज़दीक आओ , मैं तुम्हें दिलचस्प कहानियाँ सुनाऊँगी। 

' हम यही से सुन रहे हैं , तुम कहानी सुनाओ ' - बत्तखों ने कहा।  

' लेकिन तुम  लोग बहुत दूर हो , मैं इतनी ज़ोर से नहीं चिल्ला सकती।  तुम में से कोई एक मेरे करीब आओ ,मैं उसे कान में कहानी सुना दूँगी और वह दूसरी बत्तखों को सुना देगी, लेकिन सिर्फ़ समझदार बत्तख को मेरे पास भेजना  क्योंकि मूर्ख  बत्तख तो रास्ते में ही कहानी भूल जाएगी। - लोमड़ी ने बत्तखों से कहा। 

                   यह सुनते ही सारी बत्तखें  झील के किनारे पर आ गयीं क्योंकि हर बत्तख अपने आपको समझदार दिखाना चाहती थीं। लोमड़ी ने सबसे नज़दीक वाली बत्तख को झपट्टा मार कर पकड़ लिया और शेष बत्तखें झट से तितर - बितर हो गयीं। 



अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

Thursday, August 20, 2020

कीर्तिशेष देवराज उपाध्याय - आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य का मनोवैज्ञानिक

 कीर्तिशेष  डॉ  देवराज उपाध्याय हिन्दी साहित्य के एक ऐसे कीर्तिमान लेखक है जिनको उनके साहित्यिक  योगदान के लिए कभी भुलाया  नहीं जा सकता , यह  अलग बात है कि इस महान लेखक के  बारे में गूगल पर भी अधिक जानकारी नहीं है।लगभग साढ़े छह फुट का क़द , इकहरा बदन और सावला रंग ।  आरा , बिहार के रहने वाले डॉ देवराज उपाध्याय मेरे पिता जी डॉ रमेश कुमार अंगिरस के अभिन्न मित्रों में से थे और उनका अक्सर हमारे घर पर आना-जाना लगा रहता था। उन्हें ब्लड कैंसर था और अपने  इलाज   के सिलसिले में उन्हें अक्सर दिल्ली आना पड़ता था। उनके साथ हमेशा उनका एक सेवक रहता जो उनसे डिक्टेशन भी लेता था । बीमारी के दौरान भी उनका साहित्यिक लेखन ज़ारी था। बधिर होने के बावज़ूद प्रोफेसर   देवराज उपाध्याय  ने विश्विद्यालयों में अध्यपान का कार्य किया। इतिहास में ऐसे शिक्षक का  शायद एकमात्र उदाहरण है। यह कहना तो मुश्किल होगा  कि उनके विद्यार्थियों का इस सिलसिले में क्या अनुभव रहा होगा लेकिन उनसे बात करना किसी  के लिए भी सहज नहीं था क्योंकि डॉ देवराज उपाध्याय पूर्ण रूप से बधिर थे। आप हमेशा एक राइटिंग पैड अपने साथ रखते थे और वार्तालाप के लिए उनसे लिख कर बात करनी पड़ती थी , लेकिन इतना ज़रूर था कि रोज़मर्रा की कोई बातचीत वो इशारों से भी समझ जाते थे। 

यह मेरा सौभाग्य ही है कि मुझे उनकी सेवा करने का अवसर मिला।  आप जब कभी भी हमारे घर ठहरते तो उनके नाश्ते और भोजन आदि की व्यवस्था मुझे ही देखनी पड़ती थी , यहाँ तक कि  मुझे उनके कमरे में उनके साथ ही सोना पड़ता था ताकि अगर उन्हें रात को किसी चीज़ की आवश्यकता पड़े तो मैं उसका ध्यान रख सकूँ। आप  मुझसे काफी स्नेह रखते  थे और कभी कभी मुझे अपने साथ बाहर भी ले जाते थे। एक बार वो मुझे अपने साथ वरिष्ठ साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार के घर दरियागंज में ले गए।  एक पुराने से मकान में शायद   दूसरी मंज़िल पर जैनेन्द्र कुमार जी ने हमारा स्वागत किया। बर्फ़ से सफ़ेद बाल , लगभग पांच फुट का क़द और गोरा रंग देखकर मैं काफी  हतप्रभ था। मुझे याद है उनकी कमर भी थोड़ी झुकी हुई थी और बहुत धीमे स्वर में बात कर रहे थे।   बातों का सिलसिला शुरू हुआ और जो कुछ  जैनेन्द्र कुमार जी पूछते, मैं उसे लिख कर डॉ देवराज उपाध्याय के सामने रख देता।  हम लोग लगभग एक घंटा वहाँ रुके होंगे। अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान डॉ देवराज उपाध्याय  ने अपने समय के अनेक शीर्षस्थ साहित्यकारों से मुलाक़ातें  की और दिल्ली यात्रा के दौरान एक बार उनकी उनकी ज़ेब भी कटी थी जिसका ज़िक्र उन्होंने अपनी एक पुस्तक में किया है।  

 

उनकी पी. एच. डी का विषय था - 'आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य और मनोविज्ञान ' जोकि १९५६ में स्वीकृत हो गयी थी , बाद में इसी पुस्तक के दूसरे संस्करण में आप ने उन कथाकारों का भी ज़िक्र किया जो पहले छूट गए थे। कथा मनोविज्ञान पर डॉ देवराज उपाध्याय का साहित्यिक योगदान अतुलनीय है। उनकी कुछ चर्चित प्रकाशित पुस्तकों के नाम देखे -

साहित्य तथा साहित्यकार 

साहित्य शास्त्र के नए प्रश्न 

साहित्य एवं शोध : कुछ समस्याएँ 

अध्धयन और अन्वेषण 

आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य और मनोविज्ञान 


डॉ देवराज उपाध्याय  ग्रंथावली भी प्रकाशित हो चुकी है। 

Tuesday, August 18, 2020

हल्क़ा-ए-तश्‍नगाने अदब -उर्दू शाइरी का सफ़रनामा

 हल्क़ा-ए-तश्‍नगाने अदब दिल्ली की एक बहुत पुरानी उर्दू अदब की संस्था है जोकि बरसों से उर्दू ज़बान और शाइरी की  ख़िदमत  करती आ रही है। इसकी स्थापना दिसंबर १९६७ में दिल्ली में ही हुई थी और तभी से यह संस्था बिना रुके हर महीने अदबी नशिस्तों का आयोजन करती आ रही है। दिलचस्प बात यह है कि ये नशिस्ते हर महीने किसी न किसी शाइर के घर पर ही होती है।  कुछ ख़ास मौकों पर यह संस्था बड़े पैमाने पर मुशायरो का आयोजन भी करती है , यूँ देखा जाये तो ये नशिस्ते भी किसी मुशायरे से कम नहीं होती। इन नशिस्तों में न सिर्फ़ दिल्ली बल्कि दिल्ली के आस-पास के शहरों के  शाइर भी शिरकत फ़रमाते  हैं। यह  संस्था इतनी पुरानी होने के बावजूद पंजीकृत नहीं है और इस सिलसिले में  संस्था के सचिव मशहूर शाइर जनाब सीमाब सुल्तानपुरी साहब फ़रमाते  है कि 'जो संस्था रजिस्टर  हो जाती है वह संस्था रजिस्टर में ही बंद हो जाती है'।

हल्क़ा-ए-तश्‍नगाने अदब की नशिस्तों में सभी धर्मों के शाइर शिरकत फ़रमाते हैं और इसकी गंगा जमुनी तहज़ीब एक मिसाल  बन चुकी हैं। हिन्दी और उर्दू ,दोनों ज़बानों के शाइर यहाँ खुल कर अपना क़लाम बढ़ते हैं। आख़िर ज़बान कोई भी हो अदब तो अदब होता हैं  और मुहब्बत की बोली ही अदब को अदब बनाती हैं ।  

जनाब हफ़ीज़ जालंधरी का शे'र याद आ गया -


'हफ़ीज़' अपनी बोली मोहब्बत की बोली

न   उर्दू     न   हिन्दी   न     हिन्दोस्तानी 



हल्क़ा-ए-तश्‍नगाने अदब , अदबी संस्था उर्दू ज़बान  तो नहीं  सिखाती लेकिन उर्दू और शाइरी का प्रचार-प्रसार ज़रूर करती हैं। इनकी नशिस्तों में नए शाइरों  की हौसलाअफ़ज़ाई की जाती हैं और पुराने  शाइरों के क़लाम सुन कर नए लिखने वाले सीखते भी हैं।  उर्दू शाइरी में तरही मिसरों पर ग़ज़ल कहने की पुरानी रवायत है।  किसी मशहूर शाइर का मिसरा दे दिया जाता है और सभी शाइर उस मिसरे पर ग़ज़ल कह कर नशिस्तों में सुनाते हैं। इस कोशिश से नए ग़ज़लकारों को नयी नयी ज़मीनों में ग़ज़ल कहने का अवसर मिलता है और इस तरह उनके क़लाम में निरंतर निखार आता रहता है।  

हल्क़ा-ए-तश्‍नगाने अदब  की नशिस्तों में शिरकत फ़रमाने वाले  चंद  मशहूर जीवित और दिवंगत  शाइरों के नाम देखे :

सागर निज़ामी , शहरयार परवाज़ , मेहदी नज़्मी ,ज़िया फ़तेहाबादी , शमीम कराहनी ,कँवल अम्बालाबी ,ऋषि पटियालवी , जगदीश जैन, नसीम काश्मीरी ,उन्वान चिश्ती ,कुमार पाशी ,जावेद वशिष्ठ, मनचंदा   बानी ,कृष्ण मोहन ,डी राज कँवल , ब्रह्मानंद जलीस ,बलराज हैरत ,हसन नईम , मोहसिन ज़ैदी ,अब्दुल फैज़ सहर,अजीज़ भगरवी ,अफजल किरतपुरी ,बसीम हैरती , काली दास गुप्ता रज़ा ,हीरा नन्द सोज़ ,ज़हीर अहमद सिद्दीक़ी , मुग्गीसुद्दीन फरहदी , कुंवर मेहन्दर सिंह बेदी सहर , मुन्नवर सरहदी ,नज़्मी सिकन्दराबादी , मख़्मूर सईदी ,सर्वेश चंदौसवी, भगवान दास एजाज़,मालिक जादा ज़ावेद, कुलदीप गौहर, रमेश तन्हा , धर्मेंदर नाथ , ओम कृष्ण राहत ,मज़हर इमाम , कमर रईस ,बकार मानवी , ज़फर मुरादाबादी ,राज  कुमारी राज़ , अनिल मीत , राजगोपाल सिंह ,ज्ञान प्रकाश विवेक ,सविता चड्ढा , सलीम शिराजी ,उर्मिल सत्यभूषण , हरे राम समीप, नाशाद देहलवी, विजय  स्वर्णकार , जाम बिजनौरी , असद रज़ा , ज़ेबा जौनपुरी , आज़िम कोहली ,राना मज़हरी ,जी  आर कँवल , साहिल अहमद ,लक्ष्मी शंकर  वाजपेयी , शान्ति अग्रवाल,शिवन लाल जलाली , समर नूरपुरी  आदि।  

हल्क़ा-ए-तश्‍नगाने अदब की नशिस्तों में दूसरे देशों के शाइर भी शिरकत फरमाते रहें हैं जिनमे डॉ वज़ीर आग़ा,डॉ अनवर सदीद ,डॉ वहीद कुरैशी ,फ़हमीदा रियाज़ ,तारिक़ महमूद,हरचरण चावला , सरवर आलम राज़ सरवर , राजकुमार क़ैस ,स्वर्ण सिंह परवाना और सतपाल भंडारी राज़ के नाम उल्लेखनीय हैं।    

हल्क़ा-ए-तश्‍नगाने अदब के सचिव जनाब सीमाब सुल्तानपुरी हमेशा इन नशिस्तों की ऑडियो रिकॉर्डिंग करते हैं  और शायद उनके पास पुरानी  रिकॉर्डिंग आज भी सुरक्षित हो। मैंने भी हल्क़ा-ए-तश्‍नगाने अदब  की  बहुत-सी नशिस्तों में शिरकत फ़रमाई है और उपरोक्त लगभग सभी शाइरों से मुलाक़ात भी हुई है। 

आज सबका क़लाम तो मुझे याद नहीं लेकिन चंद शे'र ज़रूर साझा करना चाहुँगा  :


जो चाहो सो तुम रख लो जो चाहो मुझे दे दो 

ख़ुशियाँ भी तुम्हारी हैं   ये ग़म भी तुम्हारें हैं 

- सीमाब सुल्तानपुरी 


हमने कुछ ऐसे   ख़्वाब  तो देखे 

रह गयी दुनिया जिनको तरसती

-बलराज हैरत 


मुहब्बत की  दुआएँ दे रहा हूँ 

पलट  आओ सदाएँ दे रहा हूँ 

-डी राज  कँवल 



हल्क़ा-ए-तश्‍नगाने अदब का अदबी सफ़र आज भी ज़ारी है और ५२४ वी ऑनलाइन महाना नशिस्त २३ अगस्त २०२० को होगी। 



NOTE : 

हल्क़ा-ए-तश्‍नगाने अदब के सचिव जनाब सीमाब सुल्तानपुरी का उनके सहयोग के लिए शुक्रिया

        

Monday, August 17, 2020

कीर्तिशेष तर शांदोर ( Sándor Tar ) - हंगेरियन अफ़सानानिगार


                   अपने हंगेरियन प्रवास के दौरान कई हंगेरियन कवियों और लेखकों से मिलने का अवसर मिला।  एक दिन मैं हंगेरियन पेन क्लब की वाईस प्रेजिडेंट Tóth Éva  ऐवा तोथ से  मिलने उनके दफ़्तर गया। बातों बातों में पता चला कि ऐवा तोथ एक कवियत्री भी है।  मेरी हंगेरियन  भाषा सुन कर वो काफी ख़ुश थी।  उन दिनों मैं  तर शांदोर की कहानी  Mi késztet élni  ' किस लिए जीते है हम ' का हिन्दी अनुवाद कर रहा था , जब मैंने उनसे तर शांदोर का ज़िक्र किया और उन्हें अनुवाद के बारे में बताया तो उन्होंने तत्काल   Sándor Tar तर शांदोर को फ़ोन  लगा दिया।  मैंने अपना परिचय उन्हें दिया और उनसे उनकी कहानी के अनुवाद की अनुमति मांगी। तर शांदोर ने अगले ही हफ़्ते अपना कहानी संग्रह  Lassú Teher  (बोझिल बोझ ) मेरे पास भेज दिया और साथ में एक पत्र भी जिसमे उन्होंने मुझे यह अनुमति दी कि मैं उनके सम्पूर्ण साहित्य का अनुवाद कर सकता हूँ। बाद मैं  मैंने उनकी कुछ कहानियाँ का हिन्दी अनुवाद किया। उन्होंने मुझे अपने घर आने के लिए भी आमंत्रित किया , लेकिन यह मेरा दुर्भाग्य  ही रहा जो मैं उनसे कभी व्यक्तिगत रूप से नहीं मिल सका। तर शांदोर के कई कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मानों  से नवाज़ा जा चुका है। 

 जब   २००५ मैं मुझे उनकी मृत्यु की  सूचना मिली तो उनकी आवाज़ मेरे दिल में गूँज उठी और उनको समर्पित एक कविता रच डाली , प्रस्तुत है तर शांदोर को समर्पित कविता :


तर शांदोर के नाम 


प्रिये मित्र !

काल के क्रूर हाथों ने 

तुम्हे छीन लिया 

और एक अफ़सानानिगार  का 

अफ़साना भी 

एक बुलबुले में 

सिमट कर रह गया 

तुम्हारी कहानी 

'किस लिए जीते हैं हम  '

जितनी छोटी थी 

उतनी ही बड़ी भी

ज़िंदगी से जुडी 

तुम्हारी कहानियाँ 

मैं अक्सर पढता रहा

तुम्हारे रचना संसार में

डूबता रहा ,उतरता रहा

ज़िंदगी के कितने 

अबूझे रहस्य    

तुम्हारी कहानियों में 

यूँ बिखरे पड़े हैं 

जैसे  समुन्दर  में मोती, 

उदासी में डूबी 

तुम्हारी कहानियाँ

ज़िंदगी के इतने क़रीब हैं 

कि फूटने लगतें हैं मीठे नग़मे 

और 

'किस लिए जीते हैं हम  '

कहानी की माँ

गाने लगती है एक गीत 

- 'मुरझाएँ फूलों के गीत गा रही है ज़िंदगी  '

आगे के बोल माँ को नहीं आते 

शांदोर !आगे के बोल मुझे भी नहीं आते 

शांदोर ! कब सुनाओगे तुम 

गीत के आगे के बोल ? 



जन्म - ५ अप्रैल ' १९४१ 

निधन - ३० जनवरी ' २००५  


NOTE :

     'किस लिए जीते हैं हम  ' कहानी , (Dr. Köves Margit ) डॉ कौवेश    मारगित    द्वारा सम्पादित  हंगेरियन   कहानियों के हिन्दी  अनुवाद की पुस्तक " अभिनेता की मृत्यु " में संकलित हैं।  

  

अधिक जानकारी के लिए उनका विकी पेज देखें - https://hu.wikipedia.org/wiki/Tar

Saturday, August 15, 2020

मैं दुखी नहीं करना चाहता तुम्हें - Bántani én nem akarlak हंगेरियन कविता का हिन्दी अनुवाद

Bántani én nem akarlak

 मैं दुखी नहीं करना चाहता तुम्हें


 मैं    दुखी   नहीं करना चाहता तुम्हें

अपने शब्दों का लिबास ओढ़ाता तुम्हें 

सोते हुए अक्सर  मैं निहारता  तुम्हें 

नाराज़  होता नहीं  कभी मैं तुमसे 

लेकिन दुखी तुम्हे नहीं तो करूँ किसे 

 यह मेरा गुनाह , वह तुम्हारा गुनाह 

चाहते हुए , न चाहते हुए भी, आह

मेरी मृत्यु पसरती है तुम्हारे भीतर 

तुम से जने हुए मेरे बच्चे के साथ 

मेरी मौत की तुम बनती भागीदार 

यहाँ वह सब होगा ,  सुना तुमने 

 जो हो सकता है इस दुनिया में

तुम से जुड़ा मेरा अटूट बंधन है 

एक अटल , सुखद , विशवास है 

दूर वो तारामंडल और ब्रह्माण्ड 

अक्सर दिलाते हैं तुम्हारी याद, 

याद आते हैं तुम्हारे गुनाह,पर यार   

तुम्हें नहीं तो किसे प्यार करूँ मैं।



कवि -  Kányádi Sándor

अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस 





Friday, August 14, 2020

जशने आज़ादी और ज़ब्तशुदा नज़्में

 

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है  

 देखना है ज़ोर कितना बाज़ुएँ  क़ातिल में है 


         बिस्मिल अज़ीमाबादी  का  दिलों को झकझोर देने वाला यह शे'र  आज भी बदन के  रोंगटें खड़े कर देता है। हक़ीक़त में ये शे'र  बिस्मिल अज़ीमाबादी  का है लेकिन शहीद रामप्रसाद बिस्मिल का नाम इस शे'र के साथ ऐसा जुड़ा कि करोडो लोग आज भी इस शे'र को रामप्रसाद बिस्मिल का ही समझते है।  वास्तव में बिस्मिल अज़ीमाबादी का ये शे'र रामप्रसाद बिस्मिल को बहुत पसंद था और इसी से प्रेरित होकर उन्होंने अपना उपनाम भी ' बिस्मिल ' रखा।  वो इस ग़ज़ल को अक्सर गुनगुनाया करते थे और शहीद होते वक़्त भी इसी ग़ज़ल को गुनगुना रहे थे।  ख़ैर शाइर कोई भी हो लेकिन इस शे'र ने जन- जन में क्रांति भर दी थी।  हर हिन्दोस्तानी के लबों  पर ये शे'र मुखरित हो उठा था। इस शे'र कि सबसे बड़ी ख़ूबसूरती यह है  कि आज भी ये बोलने और सुनने वालो के रोंगटे खड़े कर देता है। 

  

आज़ादी की लड़ाई में ऐसे बहुत से क्रांतिकारी  थे जिन्होंने शमशीर के साथ साथ क़लम से भी आज़ादी की लड़ाई लड़ी। इस सिलसिले में अँगरेज़ी  सरकार द्वारा ऐसे अनेक क़लमकारों को  बाग़ी क़रार देकर जेल में ठूँस दिया जाता था। यह तो सर्वविदित है कि विश्व में जितनी भी क्रांतियाँ आई हैं वो कविता से ही प्रेरित हैं , इसीलिए अँगरेज़ी सरकार को भी शमशीर से अधिक क़लम से डर लगता था।  शमशीर को काटा जा सकता हैं लेकिन क़लम को नहीं।  अँगरेज़ी की मशहूर कहावत - Pen is mightier than sword    कौन नहीं जानता।

 हर हर महादेव , वन्दे मातरम  जैसे आज़ादी की अलख जलाने वाले नारे गली गली में गूँज रहे थे। इन नारों को तो ब्रिटिश सरकार कभी  ज़ब्त नहीं कर पाई लेकिन  क्रांतिकारी  विचारों वाली हर किताब को सरकार द्वारा ज़ब्त कर लिया  जाता था और उसकी उपलब्ध प्रतियों को जला दिया जाता था।  ऐसी ही चंद ज़ब्तशुदा नज़्मों के  कुछ बंद देखें -


देश सेवा का  ही बहता है लहू नस नस में 

अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ कि गढ़ की क़समें

सरफ़रोशी की  अदा  होती हैं   यूँ ही रस्में

भाई  खंज़र से गले मिलते है सब आपस में 

बहने तैयार चिताओं पे हैं जल जाने को 

- रामप्रसाद बिस्मिल 


फ्रीडम नहीं धमकियों से मिलेगी 

ये नेमत तो क़ुर्बानियों  से मिलेगी 

बला से अगर जान जाती है जाये 

मगर आँच आने वतन पर न आये 


-सरदार नौबहार सिंह 'साबिर '


वतन को आज़ाद कराने के लिए हर कोई बेताब था और इसी सिलसिले में  अँग्रेज़ी हक़ूमत इन क्रांतिकारियों को जेल मैं ठूँस रही थी।  जेल जो कि चोरों और बदकारों का ठिकाना था अब एक इज़्ज़त पाने की जगह बन गयी थी। अली जव्वाद ज़ैदी की ये पंक्तियाँ देखें -

मुल्क में एक तूफ़ान बपा था 

जयकारों का शोर मचा था 

जेल में हिन्दुस्तान भरा था 

था एक वो भी ज़माना पियारे


इसी सिलसिले में जनाब बृजनारायण चकबस्त  की नज़्म का ये बंद भी देखें -

सुनो गोशे दिल से ज़रा ये तराने 

अनोखे निराले है जंगी फ़साने 

कही शोरे मातम कही शादियाने 

इसी तरह करते रहेंगे ज़माने 

करो थोड़ी हिम्मत न ढूँढों बहाने 

चलो जेलखाने ,चलो जेलखाने 


पंजाब हत्याकांड में  निर्मम हत्याओं पर लिखी गयी किसी शाइर की  ये पंक्तियाँ देखें - 

बाग़े   जालियां में   निहत्थों पर चलाई गोलियाँ

पेट के बल भी रेंगाया  ज़ुल्म  की हद पार की

हम ग़रीबों पर किये जिसने सितम  बेइंतिहा 

याद भूलेगी नहीं उस डायरे बदकार की  


 ग़ुलामी का वो दौर अख़बार वालों कि लिए भी काफी मुश्किल था।  उन पर हमेशा सरकार की कड़ी नज़र रहती थी और अँगरेज़ी हक़ूमत की कोशिश थी कि ज़्यादा से ज़्यादा अख़बार बंद हो जाये।  इसी सिलसिले में  बृजनारायण चकबस्त  की नज़्म का ये बंद देखें -

अंदर की तलाशी कभी बाहर की तलाशी 

ले लेते हैं हर रोज़ वो दफ़्तर की तलाशी 

रहती हैं एडिटर पे नज़र उनकी हमेशा 

बैठक की तलाशी है कभी घर की तलाशी 

अख़बार को वो चाहते हैं बंद करा दे 

मालिक की तलाशी , कभी नौकर की तलाशी 


आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह का नाम विशेष उल्लेखनीय है। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए  उन्हें राजगुरु और सुखदेव के साथ फाँसी दे दी गयी थी।कुंवर प्रतापचन्द्र आज़ाद द्वारा  भगत सिंह के लिए लिखी गयी ये पंक्तिया देखें - 

होती थी मीटिंग असेंबली में जिस दम फैंका बम

इस केस में पकड़ा गया दीवाना भगत सिंह 

देता था लाल परचा वो लाहौर के थानों में 

हो जाओ होशियार ,ये कहता था भगत सिंह


भगत सिंह ,राजगुरु और सुखदेव की फाँसी से सम्पूर्ण देश में शोक की लहर दौड़ गयी थी। हर शख़्स इन शहीदों की क़ुरबानी से बेदार हो गया था और आज़ादी पाने के लिए मर मिटने को तैयार था। इन शहीदों की फाँसी से पीड़ित होकर  सरदार नौबहार सिंह 'साबिर '  ने लिखा -

लबे दम भी न खोली ज़ालिमों ने हथकड़ी मेरी 

तमन्ना थी कि करता मैं  लिपटकर पियार फाँसी से 

नज़र आएंगे हरसू शमए आज़ादी के परवानें

हज़ारों  मुर्दा दिल हो जायेंगे बेदार फाँसी से


आख़िरकार १५ अगस्त १९४७ को भारत आज़ाद हो गया लेकिन पाकिस्तान के बँटवारे  की क़ीमत चुका कर ।  आज़ादी के तत्काल बाद साम्प्रदायिक दंगों में लाखों लोगों को जान -माल का नुक्सान हुआ।  ख़ैर कोई बात नहीं आज हम एक आज़ाद मुल्क  में रह रहे है लेकिन पीड़ा इस बात की है कि पिछले ७५ वर्षों में भी हम मिलकर उस दीवार को नहीं गिरा पाए जो कभी बननी ही नहीं चाहिए  थी। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 




Thursday, August 13, 2020

कीर्तिशेष सतीश सागर - सबका हमसफ़र




 कीर्तिशेष
 सतीश सागर सुप्रसिद्ध कवि,पत्रकार,कहानीकार,समीक्षक व प्रखर वक्ता थे।  उन्हें लगभग तीस वर्षों से भी अधिक पत्रकारिता का अनुभव था।नवजीवन ,  कैपिटल रिपोर्टर और वीर अर्जुन  अख़बार में उन्होंने रिपोर्टर और उप सम्पादक के रूप में कार्य किया।  लगभग २८ वर्षों तक हिंदुस्तान हिंदी दैनिक में  कार्य करते रहे और बाद में वरिष्ठ उप सम्पादक के पद से रिटायर  हुए।  पत्रकारिता में रहते हुए रिपोर्टिंग,सम्पादन,आलेखन आदि सभी प्रकार के कार्य किये। 

सतीश सागर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे लेकिन एक कवि के रूप उनकी एक विशिष्ट पहचान थी। सतीश सागर मूलतः व्यंग्य तथा आक्रोश के कवि हैं।उनकी कविताओं में जहाँ एक ओर सत्ता व व्यवस्था के भ्रष्ट व निर्बल बिन्दुओं का सबल व आक्रोशमय प्रतिरोध मिलता है,वहीं सामान्यजन के प्रति पक्षधरता का स्वर उच्चता के साथ मिलता है।इस क्रम में साधारण व्यक्ति के प्रति उनकी दृष्टि संवेदनात्मक तथा व्यवहार सहानुभूतिपरक रहता है। कई सम्पादित संकलनों में कविताएँ प्रकाशित।बड़ी तथा छोटी सभी पत्रिकाओं में बहुत सारी कविताएँ प्रकाशित।आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी रचनाएँ  प्रसारित।अपने पिता कीर्तिशेष  विद्यासागर वसिष्ठ की पुण्यतिथि १७ सितम्बर को  'अग्रसर ' संस्था के तत्वावधान में अपने अग्रज  डॉ सुभाष वसिष्ठ के साथ मिलकर पत्रकारिता विमर्श और काव्य गोष्ठी  का लगभग ३० वर्षों तक निरंतर आयोजन करते रहे। उनके हाथ का लिखा पीले रंग का पोस्ट कार्ड आज भी शायद घर में कही मिल जाये।  

 दिल्ली,हरियाणा,उत्तर प्रदेश,मध्यप्रदेश,बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़,महाराष्ट्र,आन्ध्र प्रदेश,पंजाब,हिमाचल प्रदेश आदि देश के लगभग सभी क्षेत्रों में आयोजित अनगिनत कवि-सम्मेलनों में सतीश सागर ने काव्य-पाठ किया था। विशेष बात यह रही उनके काव्य-पाठ में,कि,वे कवि-सम्मेलनों में वहीं  कविताएँ पढ़ते थे,जो कवि-गोष्ठियों में पढ़ते थे या जिन्हें छपने भेजते थे,जबकि बहुधा ऐसा नहीं होता।उनकी कविताएँ स्तरीय तो होती ही थीं,सम्प्रेषणीय भी होती थीं और जनता से सीधे जुड़ती भी थीं।उनकी कविताओं में उनकी पत्रकारिता की झलक भी देखने को मिलती है।  बानगी के लिए उनकी एक कविता देखें -


हालात सामान्य रहे थे


अख़बार बोले 

रेडियो ने बाँग दी 

टी.वी.ने ये शब्द कहे 

कल रात शहर के 

हालात सामान्य रहे

कहीं ख़ूनी 

सैलाब नहीं भड़का 

साम्प्रदायिक शोला 

नहीं धड़का 

बंदूकों ने

आग नहीं उगली 

कहीं लूट-खसोट 

डकैती,हत्या की 

होली नहीं जली 

सिर्फ़ दो संगीनों 

दो ख़ाकी वर्दियों ने 

मासूम झोंपड़े पर 

कहर ढाया 

सारंगी ने 

शोक गीत सुनाया 

सुबह झोंपड़े में 

अश्लील चित्र 

शराब की बोतलें 

चिथड़ा-चिथड़ा साड़ी 

और

एक औरत की लाश 

शहर को 

आवाज़ दे रहे थे 

जी हाँ 

कल रात 

शहर के हालात 

सामान्य रहे थे ।


जब तक मैं दिल्ली में रहा सतीश सागर से अक्सर मुलाक़ात होती रहती थी क्योंकि मैं अँगरेज़ी अख़बार स्टेट्समैन में काम करता था और उनका दफ़्तर मेरे दफ़्तर से केवल पाँच मिनट पैदल की दूरी पर था।  उन दिनों मैं भी हिंदी-अँगरेज़ी अख़बारों में निरंतर कुछ न कुछ लिखता रहता था। अक्सर किसी न किसी साहित्यिक कार्यक्रम की रिपोर्ट के प्रकाशन के सिलसिले में भी उनके  पास जाता था। मुझे चाय पिलाये बिना  कभी नहीं छोड़ते थे , फ़ोन करके  डॉ धनंजय सिंह और श्री महेन्दर शर्मा को भी हिंदुस्तान टाइम्स  की कैंटीन में ही बुलवा लेते और फिर वही क़िस्सागोई और गपशप।  सतीश सागर बहुत ही विनम्र ,मिलनसार ,बेफ़िक्र, ख़ुशदिल और ज़िंदादिल इंसान थे।सतीश सागर नौकरों,ड्राइवरों,चौकीदारों, दूधवालों,दुकानदारों और दूसरे ग़रीब लोगो से भी दिल खोल कर मिलते थे। उनसे की गयी मुलाक़ाते आज भी मेरे ज़हन में ताज़ा है। अफ़सोस कि दिल्ली के  इस दीवाने , दिलवाले कवि की मृत्यु दिल का दौरा पड़ने से ही हो गयी। 

उनकी दीवानगी पर अपना ही एक शे'र याद आ गया -

हर किसी के साथ हो लेता हूँ अपना जानकर 

और जो कह लो मुझे  लेकिन मैं दीवाना नहीं  



वास्तविक नाम - सतीश वसिष्ठ

उपनाम  - सतीश सागर 

जन्म - १५ अगस्त १९५५ , दिल्ली 

निधन - ४ दिसंबर २०१७, दिल्ली 



  NOTE : डॉ सुभाष वसिष्ठ को उनके  सहयोग के लिए धन्यवाद। 


Wednesday, August 12, 2020

कीर्तिशेष ऐलिज़ाबेथ ब्रूनर - कला और क़लम

 

ऐलिज़ाबेथ ब्रूनर - कला और क़लम


हंगरी और भारत की संस्कृति और कला के  आदान - प्रदान का इतिहास काफी पुराना हैं। इस सिलसिले में हंगेरियन माँ -बेटी ऐलिज़ाबेथ शाश ब्रूनर और उनकी पुत्री ऐलिज़ाबेथ ब्रूनर के नाम उल्लेखनीय हैं। ऐलिज़ाबेथ ब्रूनर का   जन्म १९१०  में हंगरी के एक शहर  नाज्यकनिज़ा में हुआ जहाँ आज भी उनका एक संग्राहलय हैं ।  यह मेरा सौभाग्य  है कि अपने हंगरी  प्रवास के दौरान मुझे यह संग्राहलय देखने का  अवसर मिला। सं १९३० में गुरुवर रविंद्रनाथ टैगोर के निमंत्रण पर दोनों माँ - बेटी भारत आये।  लम्बे सफ़र की कठिनाइयों को झेलते हुए जब शांतिनिकेतन पहुँचे तो दोनों की हालत काफी खस्ता थी।  भारत में रहते हुए एलिज़ाबेथ ब्रूनर ने सैकड़ो चित्र बनाये जिनमे महात्मा गाँधी , रविंद्रनाथ टैगोर और दलाई लामा के पोट्रेट्स अत्यंत लोकप्रिय हुए।  एक बार उनके चित्रों की प्रदर्शनी हंगेरियन संस्कृति केंद्र के प्रांगण में लगी थी , यही उनको पहली और आख़िरी बार देखा था।  व्हील चेयर पर बैठी थी , चंद बाते हंगेरियन भाषा में करी तो बहुत ख़ुश हो गयी थी लेकिन उनकी टेढ़ी - मेढ़ी उँगलियाँ देख कर मैं उदास हो गया था। गठिया रोग से पीड़ित होने के कारण उनकी उँगलियाँ मुड़ गयी थी। उनकी इसी पीड़ा से मेरा दिल कराह उठा और फूट पड़ी यह कविता -


ऐलिज़ाबेथ ब्रूनर के नाम 


यही कहीं  नाज्यकनिज़ा  की गलियों  में 

पली  -बढ़ी होगी ऐलिज़ाबेथ ब्रूनर 

यही कही सीखा होगा उसने घुटनिया चलना 

माँ की ऊँगली पकड़ घूमना - फिरना 

माँ के सपनों में  दस्तक देता था एक स्वप्न अक्सर 

दूर कोई बुलाता था उन्हें क्षितिज  के उस पार 

फिर निकल पड़ें दोनों , दूना की लहरों को छोड़ 

बुदा की पहाड़ियों के दूसरी ओर

माँ निकल पड़ी अनजान नगर को पकड़  बेटी की ऊँगली

लिए आँखों में  तस्वीर पैशत की धुँधली  धुँधली

 माँ -बेटी का   एक उदर था, खाये कौन रहे फिर भूखा

होठों  की मुस्कानों में   दर्द दबा था रुखा -सूखा 

रंगों के इस जीवन में ,जीवन यूँ भी बदरंग हुआ 

बंजारों की मानिंद रहीं  घूमती, लंका ,लंदन,इटली ,सिसली 

लेकिन रास न आया कोई ठौर, दस्तक देती पूरब की भोर 

द्वारे आ पहुंची टैगोर , 

एक शाम के धुँधलके  में ,  माँ का जीवन रीत गया 

रीत गया हाँ ,बीत गया 

हे परमेश्वर ! हे नाथ ! ऐलिज़ाबेथ हुई अनाथ 

रच डाली फिर उसने सुन्दर सुन्दर रचनाएँ 

कर डाली चित्रित मानव मन की पीड़ाएँ 

चित्रित करते करते पीड़ा , ख़ुद ही बन बैठी पीड़ा

बेबस लाचार मुड़ी -तुड़ी उँगलियों से फिसलती तूलिकाएँ

अब इन बेबस लाचार उँगलियों के चित्र कोई बनाएँ

तो जीवन फिर मुस्कुराएँ , 

करता हूँ आमंत्रित संसार के कलाकारों को 

करों चित्रित इन मुड़ी-तुड़ी उँगलियों को 

आसान नहीं दर्द को तराशना और चित्र  में  ढालना  

क्योंकि सिर्फ़ 

मृत्यु के पास ही ऐसी तूलिकाएँ हैं , ऐसे रंग हैं 

जिनसे तराशा जा सकता है दर्द  

और फिर उस दर्द को   

सहजता से ढाला  जा सकता है 

एक चित्र  में 

एक उदास चित्र  में

एक बेरंग चित्र में

एक सफ़ेद चित्र  में। 


कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


NOTE : ऐलिज़ाबेथ ब्रूनर : जन्म - १९१० /  निधन -२००१ 


 

Tuesday, August 11, 2020

कीर्तिशेष कबीर अजमल - चिराग़े शब का फ़साना


 बनारस अपने आप में एक अद्भुत शहर है।  यूँ तो बनारस तीन चीज़ों के लिए मशहूर है - बनारसी साड़ियाँ , बनारसी पान और बनारसी ठग लेकिन इस सर ज़मीन ने हिन्दुस्तान को अंतरराष्ट्रीय    ख्याति के संगीतकार और नामवर शाइर भी दिए है। इस शहर की गंगा जमुनी तहज़ीब से उभरा ऐसा ही एक अज़ीम शाइर आज अदबीयात्रा के सफ़र में अपने नक़्शे पा दर्ज़ कर रहा है।  

हवा की ज़द पे  चिराग़े शबे फ़साना था 

मगर हमे भी उसी से दिया  जलाना था 


चिराग़े शब से दिया जलाने वाले शाइर जनाब कबीर अजमल बनारस घराने के अज़ीम शाइर थे। १९६७ में बनारस में जन्मा यह शाइर अपनी अदबी फ़ितरत का ख़ुद एक ब्यान था। इन्होने बहुत कम उम्र में शे'र कहना शुरू कर दिया था और इनके उस्ताद जनाब शौक़त मज़ीद थे। इनकी  शाइरी में हिज्र  और विसाल  के कई नए पहलू देखने को मिलते हैं। उनकी ग़ज़लों की एक किताब -'मुन्तशिर लम्हों का नूर ' प्रकाशित हो चुकी है। मुशायरों में आना -जाना कम था लेकिन अदबी दुनिया में बहुत से  शाइर उन के क़लाम से परिचित थे। मुशायरों के गिरते हुए स्तर पर भी उन्होंने अपनी चिंता दर्ज़ करी है -

मेरा शाइर लतीफ़े लिख रहा है 

बहुत दुशवार   होता जा रहा हूँ 

बनारस में रहने के कारण पहले साड़ियों का काम करते थे लेकिन बाद में अपनी प्रिंटिंग प्रेस लगा ली थी।दुनियादारी निभाते रहे लेकिब शाइरी को अपनी रूह से लिपटायें रखा। उनकी शाइरी का जादू श्रोताओं के सर  चढ़ कर   बोलने लगा ,विशेष रूप से बनारस की अदबी संस्थाओं में उनका नाम बड़ी इज़्ज़त से लिया जाता रहा है।उनके चंद शे'र देखे - 


बुझती रगों में नूर बिखरता   हुआ-सा मैं

तूफ़ाने  नंगे मौज   गुज़रता  हुआ-सा मैं 


मौजे  तलब में   तैर गया था बस एक नाम 

फिर यूँ हुआ कि जी उठा मरता हुआ-सा मैं  


काश ऐसा हो पाता और  यह शाइर मरते मरते एक बार फिर से जी उठता लेकिन २९ जून २०२० मौत की गहरी नींद से नहीं उठ पाया। आप  कई सालों से कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से लड़ रहे थे।  अफ़सोस कि ५३ साल की कम उम्र में ही उन्हें इस सराये फ़ानी से गुज़रना पड़ा लेकिन उनका क़लाम आज भी हमारे बीच हैं।  यक़ीनन उनकी रूह फिर किसी शाइर का लिबास ओढ़ कर हमे कही न कही ज़रूर मिल जाएगी। 

आज फिर  मीर तक़ी मीर का शे'र याद आ गया - 

मौत एक मांदगी  का वक़्फ़ा है 

यानी, आगे  चलेंगे  दम लेकर 



वास्तविक नाम - अब्दुल कबीर 

उपनाम -           कबीर अजमल 

जन्म  -             २१ मई १९६७ 

निधन  -           २९ जून २०२० 



NOTE - उस्ताद शाइर जनाब गुफ़रान अमजद को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया।  

Monday, August 10, 2020

यह बीमार ,नशीला ,उदास रेंगता बाचका देश - Ez a beteg ,boros ,bús , lomha Bácska ( हंगेरियन कविता का हिन्दी अनुवाद )

 

Ez a beteg ,boros ,bús , lomha Bácska 

यह  बीमार ,नशीला ,उदास रेंगता बाचका देश 


सहमे- सहमे से चलते हैं छोटे  साहिब 

ज़हरीले फूल  , कंकाल - से आदमी 

मीनार से दूर गिरती हुई लपटों में 

ज़हर ले उड़ा सफ़ेद कपोलों को 

लपटों से दमकता मखमली सर्बिया 

लड़कियों के गले में भारी  आभूषण 

एक से एक ख़ूबसूरत और रक्तविहीन

एक गुलाबी पब की खिड़की से उठती 

बिगुल की भयानक बेसुरी आवाज़ 

अश्लील मदिरा उत्सव ,निस्तेज लड़खड़ाहट 

बीमार ,दुखी स्लाविक साज़ करता विलाप 

मैं काँप रहा हूँ , उनका कहना है ,वे मनाते हैं पर्व 

चीख़ उठी हैं सीटियाँ ,घर्घरा उठी हर खिड़की 

नशीली मेज़ और ख़ून से सने चाकू   

हैवान भी नशे में बदमस्त बदहाल हैं 

दरीचों से आती हैं लिपी-पुती लड़कियाँ

यह सब देख कर में मरणासन्न हो जाता हूँ  । 


कवि - कोस्तोलान्यी   दैज़ो ( Dezső Kosztolányi ) 

अनुवादक -इन्दुकांत आंगिरस 



Sunday, August 9, 2020

हिन्दी साहित्यिक पत्रिकाओं का संसार

 कोई भी देश अपनी संस्कृति ,भाषा और साहित्य को ताक पर रख कर उन्नत्ति नहीं कर सकता।  हिंदी साहित्य को पल्लवित करने में हिन्दी साहित्यिक पत्रिकाओं का अभूतपूर्व योगदान रहा है। किसी भी साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन अत्यंत कष्टप्रद होता है क्योंकि साहित्यिक पत्रिकाओं को अक्सर व्यावसायिक    विज्ञापन नहीं मिलते और यही कारण है कि आर्थिक तंगी के चलते बहुत - सी साहित्यिक पत्रिकाएँ अपनी निरंतरता नहीं रख पाती। बावज़ूद इसके इनकी लोकप्रियता में कमी नहीं आती। साहित्यिक पत्रिकाएँ जहाँ एक तरफ़ साहित्य का प्रचार  - प्रसार करती हैं  वहीं नए लेखकों को एक मंच भी प्रदान करती हैं  , यूँ देखा जाये तो अपने समय का हर छोटा - बड़ा लेखक साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होना चाहता है।जब सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता 'सरस्वती ' पत्रिका में प्रकाशित नहीं हो पाई तो उन्होंने लिखा :

पर सम्पादकगण निरानंद 

वापस कर देता पढ़ सत्त्वर 

दे एक-पंक्ति- दो में  उत्तर

लौटी लेकर रचना उदास    


इन पत्रिकाओं के प्रकाशक अक्सर कोई लेखक या कवि ही होता है जो अपनी पत्रिका को अपने बच्चे की तरह पालता है। हिन्दी  की पहली साहित्यिक पत्रिका ' सरस्वती ' का प्रकाशन १९०० में श्री चिंतामणि घोष द्वारा किया गया । १९०३ से १९२० तक  आचार्य  महावीर प्रसाद द्विवेदी इसके संपादक रहे और सरस्वती पत्रिका ने बहुत से लेखकों व कवियों को स्थापित किया। साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन का एक लम्बा इतिहास रहा है और इन पत्रिकाओं की एक लम्बी सूची भी है। देश के विभिन्न प्रांतों से प्रकाशित चंद साहित्यिक पत्रिकाओं की सूची देखे -

 दिल्ली ,  हरियाणा  और  नोएडा से प्रकाशितहंस , समग्र चेतना ,नया पथ , विषय वस्तु , आजकल , अलाव , साहित्य व्रत ,कथा संसार , उत्तरा, उदधि  मंथन, साहित्य व्रत , रस रंग, पंजाबी संस्कृति ,  कला और क़लम ,आलोचना , समकालीन भारतीय साहित्य ,इंद्रप्रस्थ भारती ,चक्रवाक, व्यंग्य,  ज्ञानोदय ,  नया ज्ञानोदय , अक्षरम संगोष्ठीआदि 

उत्तरप्रदेश  से प्रकाशित - दायित्व बोध , विमर्श , नयी कहानियाँ ,पृष्टभूमि चेतना स्रोत्र , अभिप्राय , संकल्प ,नए पुराने ,प्रसंगवश ,विश्वास , रचना संवाद , डाली के  कहार, अनुभूति ,निमित्त , कल की लिए , अक्षर पर्व , अंचल भारती ,दस्तावेज़ , विपक्ष ,उद्भावना ,आकांक्षा , निष्कर्ष ,परिवेश आदि

बिहार ,उत्तराखंड  झारखण्डऔर छत्तीसगढ़  प्रदेश  से प्रकाशितसमीक्षा ,सम्पदा ,इस बार ,संस्कृति , समीहा ,पाटिल प्रभा ,कतार ,प्रसंग , सार्थक ,बहुमत ,मुक्तिपर्व , वर्तिका , नया आलोचक ,शुद्धरत आम आदमी ,अमिधा , पंखुड़ियां,जलतरंग , संगत , कला , शिनाख़्त , राजसुमन, कारख़ाना   ,साम्य ,नागफ़नी , सम्प्रेषण , पुरुष , सापेक्ष , नई धरा आदि 

राजस्थान से प्रकाशित - चर्चा , वातायन , कविता , शेष ,सम्बोधन ,मधु माधवी , दिशा बोध ,अभिव्यक्ति ,अंतर्दृष्टि,मधुमती   आदि 

हिमाचलप्रदेश और बंगाल से प्रकाशित - आबागेश्वरी ,सरोकार , शब्द संसार,वागर्थ,समानता,क़लम  आदि  

महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश से प्रकाशित ओम भारती , सामान्य जन  सन्देश ऋतुचंद , प्राची , आरम्भ ,आंकलन , बराबर ,  समानता , दस्तक , वसुधा , उत्तर संवाद ,कहन, बहुमत,हिन्दुस्तानी ज़बान  आदि 

दक्षिण भारत से प्रकाशित - विवरण पत्रिका , हिन्दी प्रचार समाचार ,मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद् पत्रिका ,गोलकुंडा ,भारत संधान ,साहित्य साधक मंच आदि 


जो पत्रिकाएँ किसी संस्थान द्वारा प्रकाशित की जाती हैं उनकी निरंतरता तो बनी रहती है लेकिन जब कोई लेखक व्यक्तिगत रूप से किसी पत्रिका का प्रकाशन करता है तो उसकी निरंतरता बनाये रखना कठिन हो सकता है।  मैंने भी शायद १९७७ में अपने मित्र सुधीर कुशवाहा के  साथ मिलकर जोश जोश में " आकांक्षा ' नाम से मासिक साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन किया लेकिन वो पहला अंक ही  आख़िरी अंक बन कर रह गया।  उसके मुखपृष्ठ पर दक्षिण भारत की किसी मंदिर के द्वार कोष्ठ पर बनी किसी अप्सरा की मूरत और उस को सम्प्रेषित करती कीर्तिशेष रामधारी सिंह दिनकर की यह पंक्तियाँ आज भी याद हैं  :


मर्त्य  मानव की विजय का तूर्य  हूँ मैं

उर्वशी!  अपने   समय का सूर्य हूँ मैं 

अंधतम के भाल पर पावक जलाता हूँ 

बादलों के सीस पर स्यंदन चलाता हूँ 

पर न जाने बात क्या हैं 

इंद्र का आयुध पुरुष जो झेल  सकता है

सिंह से बाँहें  मिला कर खेल सकता है  

फूल के आगे वही असहाय  हो जाता

शक्ति के रहता हुए निरुपाय हो जाता 


बिद्ध  हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से 

जीत     लेती   रूपसी   नारी उसे मुस्कान से  । 



NOTE : वरिष्ठ लेखक ,सम्पादक व साहित्यकार श्री हरे राम समीप को उनके सहयोग के लिए धन्यवाद। 




Saturday, August 8, 2020

कीर्तिशेष बाबू राम पालीवाल - हिन्दी साहित्य की धरोहर


 कीर्तिशेष बाबू राम पालीवाल जी का जन्म २५ अक्टूबर १९०७ को कुर्रीकूपा गाँव , ज़िला आगरा में हुआ तो किसी को नहीं मालूम था कि एक दिन यह व्यक्ति हिन्दी भाषा के विकास में नये कीर्तिमान स्थापित करेगा।   कीर्तिशेष बाबू राम पालीवाल जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे , उन्होंने साहित्य की लगभग हर विधा में रचनाये लिखी। कविता , कहानी , नाटक , समीक्षा , बाल साहित्य ,अनुवाद आदि सभी विधाओं में उनकी गहरी पैठ थी।  उनके द्वारा रचित ' कार्यालय निर्देशिका ' पुस्तक अत्यंत लोकप्रिय हुई और भारतीय सरकार द्वारा भी उनके इस प्रयास को सराहया   गया। 

                उनका देशप्रेम भी प्रशंसनीय है।  भारत - पाकिस्तान युद्ध के दौरान ६५  बाँकुरों पर रची उनकी पुस्तक ' भारत के रणवीर बाँकुरें ' भी काफी लोकप्रिय हुई।  उनके कविता संग्रह ' चेतना ', कनक  किरण  ' और 'नारी तेरे रूप अनेक ' भी काफी चर्चा में रहे।  बाल साहित्य पर उनकी कृतियां ' पक्षियों का कवि सम्मेलन ' और 'चम -चम चमके चंदा मामा '  इस बात को साबित करती है कि साहित्य कि हर विधा में उनका दखल था।उनके चार एकांकी नाटक ' खेल खेल में ' पुस्तक में संग्रहित हैं।  १९४५ से पूर्व आप 'नीलम पालीवाल' उपनाम से लिखते थे।  

कीर्तिशेष बाबू राम पालीवाल जी  अत्यंत सहज  और सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। १९४५ से १९५१ तक इन्होने भारत सरकार  के संचार  मंत्रालय में हिन्दी अधिकारी के रूप में कार्य किया। १९६३ से १९७० तक  आप  आकाशवाणी में बृज भाषा यूनिट के निर्माता के पद पर  आसीन रहे। 

यह एक संयोग ही है कि दिल्ली के वसंत विहार में  हमारे और उनके परिवार में एक दूसरे का आना-जाना था।  उनके घर की बैठक के  शोकेस में सजी  उनकी पुस्तके मैंने दूर से ही देखी थी  और मुझे यह अंदाज़ा नहीं था कि मैं एक बड़े साहित्यकार के घर में बैठा हूँ।वास्तव में इस  परिवार से हमारी जान पहचान होने से पूर्व ही कीर्तिशेष बाबू राम पालीवाल जी इस सराये फ़ानी से गुज़र चुके थे।  एक बड़े अंतराल के बाद  जब उनकी सुपुत्री श्रीमती भारती पालीवाल के ज़रीये  उनके महान व्यक्तित्व  से परिचित हुआ तो मेरे लिए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था 

कीर्तिशेष बाबू राम पालीवाल जी अँधेरे से लड़ने वाले जीवट कवि थे , उन्हें मालूम था कि रौशनी को पाने के लिए अँधेरे का सीना चीरना पड़ता हैं।  उनकी कविताएँ सहज ही मन में उतर जाती है , बानगी के लिए एक छोटी-सी कविता देखे -

प्रकाश की रेखा 

जीवन में आई , स्नेह सुधा को भरने 

रंगों को जीवन में भर लाई ऐसे 

घन माला के अंतराल में बिजली जैसे 

और श्यामल  रजनी के ,  

अँचल में प्रकाश की रेखा 

तुम्हे उर में मैंने 

कनक किरण-सी देखा। 


एक कवि हृदय वाला कवि ही इतनी सुन्दर रचना कर सकता है।  अफ़सोस कि मेरी कभी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई और १७ नवंबर १९७८ को यह   महान कवि इस दुनिया को अलविदा कह गया लेकिन  उनकी कविताएँ  आज भी इस दुनिया में अपना प्रकाश फैला  रही हैं। 


अधिक जानकारी के लिए देखे - 

https://www.facebook.com/Paliwal-B-R-Hindi-and-Braj-Bhashas-Scholar-Writer-Poet-475377006193818/




NOTE : श्रीमती भारती पालीवाल को उनके सहयोग के लिए  धन्यवाद। 

Friday, August 7, 2020

फ़क़ीरों की बादशाहत

                     जीवन में किसी सच्चे फ़क़ीर  का मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं। आजकल  जब इंसान भी ढूंढ़ने से नहीं मिलता वहाँ किसी फ़क़ीर का मिलना नसीब की ही बात है।  मीर तक़ी 'मीर' द्वारा रचित उनकी   आत्मकथा    ' ज़िक्रे मीर ' में  एहसान उल्ला नामक एक फ़क़ीर ने सच्चे फ़क़ीरों के बारे में कुछ यूँ  कहा है -

" असल में मिलने - जुलने वाले फ़क़ीर वे हैं जो तमाम चीज़ों से इस क़दर बेपरवाह हैं कि वह किसी पेड़  के साये का बोझ भी पसंद नहीं करते।  ये वह नंगे बदन वाले फ़क़ीर हैं जिन्होंने अपनी ज़ात को ख़ुदा की  ज़ात में गुम कर दिया है। ये वह लंगोट बाँधने वाले फ़क़ीर हैं जो हर समय बुरी ख़्वाइश से लड़ते हैं। अगर मिलना है तो इन दुखी दिल फ़क़ीरों से मिलो , जो सब कुछ भूल गए हैं , जिनका सर हर वक़्त झुका रहता है , जो बहते हुए पानी की तरह साफ़ पाक़ हैं , जो इस जंगल के शेर हैं और दिल का ख़ून पीते हैं, जो सागर हैं मगर जोश नहीं मारते , जो सैलाब हैं मगर उमड़ते नहीं , जो मुहब्बत की गलियों के ख़ाकसार हैं , दीवानगी के जंगलों में फिरते रहते हैं , जिन्होंने ख़ुदी को  पा लिया , जो आवारा हैं मगर दिल के नज़दीक हैं ,जो महबूब के जलवों में खोये हैं , जो महबूब की दीवार तले सोये हैं।  वे हक़ीक़त का राज़ जानने वाले  पीरमुरीदी करने वाले हैं।  ये आवारा लोग हैं जो अपनी मंज़िल को पहुँच   चुके हैं। उनके साये से सूरज उभरता है।  अगरचा ये ज़मीन पे रहते  हैं , मगर उनकी शान आसमानों की तरह बुलंद है।  अगरचा ये तन्हाई में हैं मगर उनका नाम दूर तक मशहूर है।  ये वफ़ा और मुहब्बत के सौदाई हैं , हया और शर्म के बाग़ की अछूती कली हैं। उनका तकिया सख़्त पत्थर है उनके बग़ल में मुहब्बत का निशान है । ये पेट पर पत्थर बाँध लेते हैं  लेकिन शिकायत नहीं करते ; रोटी की लालच नहीं रखते ,अगर मज़ेदार खाना मिल जाये तो उसकी ओर देखे भी नहीं , गर्म रोटी सूखी रोटी की तरह खाते हैं।  ये अजीब सूखे हुए चेहरे के लोग हैं कि इनको बीमार कहा जाता है । इतने ग़ैरतदार हैं कि जिस पर मरते हैं उसकी तरफ़ देखते भी नहीं।  ये इतने ख़ुद्दार हैं कि जब तक महबूब के नाज़ -अदा  की तलवार न   बिछा लें वहाँ  बैठते नहीं। उस हक़ीक़ी महबूब को हर वक़्त खोजते रहते हैं जिससे उनको लगाव है।  वे ऐसे जंगजू हैं कि उन्होंने बेहतर फ़िरकों से सुलह कर लिया है । वे ऐसे कीमिया बनाने वाले हैं कि हज़ार बार मिटटी से सोना बना चुके हैं।  इस दुनिया के कारख़ाने पर  कब्ज़ा करने वाले फ़क़ीर ही हैं।  तुझे जो हासिल करना हो तो उनके पास जा  , जैसे ही दुआ के लिए हाथ उठाया सब मिल जाएगा।  फ़क़ीरों की बात करों , उनका सहारा लो ओर जहाँ तक  हो सके उनकी सोहबत में उठते - बैठते रहो क्योंकि हक़ीक़त के दरिया का रास्ता एक ताला है ओर उन लोगो की ज़बान उसकी कुंजी है।  दरिया के सीने पर जांनमाज़ बिछा देना ओर डूबने के अंदेशे  से छुटकारा हासिल करना इन फ़क़ीरों का अंदाज़ है। "


एक ज़माना था जब मुझे किसी  सच्चे फ़क़ीर से मिलने की बहुत चाह थी ओर दिल्ली में ही एक दिन ये चाह पूरी हुई भी ओर नहीं भी। 

वाक़या कुछ यूँ है कि एक दिन मैं लगभग सुब्ह छह बजे के क़रीब अपने स्कूटर से रिंग रोड पर जा रहा था कि अचानक एक ऑटो रिक्शा से मेरा स्कूटर भिड़ गया ओर मैं सीने  के बल सड़क पर गिर पड़ा।  स्कूटर की गति बहुत कम थी सो कोई बाहरी चोट तो नहीं आयी लेकिन मेरे सीने में हल्का हल्का दर्द होने लगा।  एक दो दिन मैंने  इस दर्द की पवाह नहीं करी लेकिन तीसरे दिन यह दर्द पूरे सीने में फ़ैल गया।  मेरी पत्नी ने मुझे डॉक्टर को दिखाने की सलाह दी लेकिन इसी बीच एक चमत्कार हो गया।  मैं अपने मुहल्ले में ही स्कूटर से अपने घर की तरफ़ जा रहा था।  तभी मेरी नज़र दूर सड़क के किनारे  बैठे एक  नंग -धडंग फ़क़ीर पर पड़ी।  इसी बीच मेरे फ़ोन की घंटी बजी ओर जब मैंने फ़ोन सुनने के लिए स्कूटर रोका तो उस फ़क़ीर के बिलकुल क़रीब पहुँच गया था।  मैं स्कूटर पर बैठे बैठे ही  अपनी ज़ेब से फ़ोन निकाल कर सुनने लगा।  इसी बीच वह फ़क़ीर खड़ा हो गया । उसके एक हाथ में  काँसा था ओर दूसरे हाथ में दो मुहँ वाली हड्डी थी। उन्होंने उस हड्डी से मेरे सीने पर हवा में ही  क्रॉस बनाया ओर इससे पहले कि मैं उस काँसें में कुछ डाल पाता फ़क़ीर बाबा   उलटी दिशा में आगे बढ़ गए। उनके जाने के लगभग पाँच सेकंड के बाद ही मेरी फ़ोन की बात खत्म हुई ओर मैंने तत्काल पीछे मुड़कर देखा ,लेकिन उस बंद गली में दूर दूर तक वो फ़क़ीर नहीं था।  लगभग दो मिनट बाद जब मैं अपने घर पहुँचा तो मेरे सीने का भीषण दर्द बिलकुल गायब हो चुका था ओर यह किसी चमत्कार से कम नहीं था।  


मुझे इस बात का बहुत अफ़सोस रहा कि मैं उस फ़क़ीर से बातचीत नहीं कर सका , शायद ईश्वर  की यही इच्छा थी। 

उर्दू के मशहूर शाइर जनाब मीर तक़ी ' मीर ' का यह शे'र   याद आ गया -


फ़क़ीराना    आये सदा   कर चले 

मियां ख़ुश रहो हम दुआ कर चले 


Thursday, August 6, 2020

फ़नकार, पत्रकार , अदाकार ,साहित्यकार - एक वसिष्ठ परिवार

ऐसा अक्सर देखने को मिलता है कि कलाकारों को कविता ,कला , संगीत ,साहित्य  विरासत में मिलता है।  हमारे आस -पास ही ऐसे अनेक परिवार मिल जायेंगे जिनमे पिता की कला उनके बच्चों  में देखने को मिलती है।  ऐसे ही एक परिवार दिल्ली के गुलमोहर पार्क में भी है जिसे सब  वसिष्ठ परिवार के नाम से जानते हैं। 

कीर्तिशेष  विद्यासागर वसिष्ठ का जन्म २ अगस्त १९०८ को मूना   कस्बे में हुआ जोकि अब पकिस्तान में हैं।  इनको   बचपन से ही ख़बरे लिखने का शौक़ था। पढ़ाई पूरी करने के बाद इन्होने   मर्चेंट  नेवी में नौकरी करी लेकिन यह नौकरी इनको  रास नहीं आई ,इसीलिए नौकरी छोड़कर वापिस  अपने घर आ गए।  श्री  विद्यासागर जी ने हिन्दी हिदुस्तान दैनिक में लगभग ३५ वर्षो तक कार्य किया। श्रीमती खजानो  देवी  का यह पुत्र किसी ख़ज़ाने से कम नहीं था। इनका जीवन बहुत ही सादा और सरल था। पत्रकारी में दक्ष और साहित्य में भी दख़ल।  इनकी  कविताओं का प्रथम काव्य संग्रह - 'सागर रचना ' इनकी  प्रथम पुण्यतिथि  पर लोकार्पित हुआ। १९८० में हिंदुस्तान दैनिक  से समाचार सम्पादक के पद से रिटायर हुए और १७ सितम्बर १९८३ को जानलेवा कैंसर से उनकी  मृत्यु हो गयी।  श्री  विद्यासागर जी  ने दो विवाह किये थे ,पहली पत्नी का नाम श्रीमती शान्ति देवी और दूसरी पत्नी का नाम श्रीमती गायत्री देवी। श्री सुभाष वसिष्ठ और कीर्तिशेष सतीश सागर श्रीमती गायत्री देवी की संताने हैं। 


डॉ  सुभाष वसिष्ठ का जन्म ४ नवंबर १९४६ को हुआ। आप एक जाने-माने निर्देशक  ,अभिनेता ,रंगकर्मी ,प्रोफेसर और कवि हैं।बदायूं में रहते हुए लगभद दो दशकों तक आपने अनेक नाटकों में अभिनय किया जिनमे गोदान के पात्र होरी का अभिनय अद्भुत रहा।  नाटकों के अलावा आप कविताये भी लिखते हैं। कुछ वर्षों पहले इनके  नव गीत संग्रह - ' बना रहे ज़ख़्म तू ताज़ा ' का लोकार्पण दिल्ली के गाँधी भवन में हुआ था।   साहित्य ,कला और अभिनय के क्षेत्र  में इनकी  सक्रिय भागीदारी को प्रणाम। 


कीर्तिशेष सतीश सागर , श्री विद्यासागर के छोटे सुपुत्र एक प्रतिष्ठित कवि ,पत्रकार और लेखक थे। इनका जन्म १५ अगस्त १९५५ को दिल्ली में ही हुआ।  नवजीवन , कैपिटल रिपोर्टर ,वीर अर्जुन में विभिन्न पदों पर काम करने के बाद आपने हिन्दी हिन्दुस्तान में कार्य किया। हिंदुस्तान में वरिष्ठ उप सम्पादक के रूप में कार्य करते हुए अपने कविता लेखन के शौक़ को ज़ारी रखा।  आप मूलतः व्यंग तथा आक्रोश के कवि थे। दिल्ली और आस -पास के राज्यों में उन्हें ससम्मान कवि सम्मेलनों में आमंत्रित  किया जाता था।  अनेक साहित्यक पत्रिकाओं में भी उनकी रचनाएँ नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती थी।  आकाशवाणी से भी कविताओं का प्रसारण हुआ और आपने दूरदर्शन के ऑर्काइव  में भी महत्वपूर्ण सहयोग  दिया।  सतीश सागर बहुत ही सरल , विनम्र ,हँसमुख और  मिलनसार इंसान थे। अफ़सोस कि ०४ दिसंबर २०१७ को उन्हें अचानक दिल का दौरा पड़ा और नियति के क्रूर हाथों ने  उन्हें हम से छीन लिया।  

सतीश सागर और सुभाष वसिष्ठ  दोनों भाई मिलकर १९८५ से लगभग ३० वर्षों तक हर वर्ष अपने पिता कीर्तिशेष विद्यासागर वसिष्ठ की पुण्यतिथि १७ सितम्बर को 'अग्रसर ' संस्था के बैनर पर पत्रकारिता पर विमर्श और काव्य संध्या का आयोजन करते रहे जिनमे मैं भी अनेक  बार शामिल हुआ। 

ईश्वर से यही कामना  हैं कि इस परिवार की सांस्कृतिक धरोहर सदा एक अनवरत नदी की तरह बहती रहे। 



NOTE : डॉ सुभाष वसिष्ठ को उनके सहयोग के लिए धन्यवाद 

Wednesday, August 5, 2020

घंटियों की इबारत - Harangfölirat ( हंगेरियन कविता का हिन्दी अनुवाद )



Harangfölirat


घंटियों की इबारत


हाँ , इसीलिए बजती हैं घंटियाँ
कि ज़िंदा लोगों को बुला सके 
मृत  लोगो   को दफ़ना  सके 
और ओलों की बाढ़ व 
आग के संकट के समय 
विजयी वंशजों को  देखते हुए 
मैं  बजाता हूँ लगातार 
' जागते रहो ' की  घंटियाँ। 



कवि -  Kányádi Sándor

अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

Tuesday, August 4, 2020

कौन जाये ' ज़ौक़ ' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर

 मुग़ल सम्राट शाहजहां द्वारा बसाया गया शहर शाहजहानाबाद या'नी पुरानी दिल्ली एक ज़माने में  इतनी हसीन  और शोख़ थी कि उस्ताद इब्राहिम ज़ौक़ ने भी दिल्ली कि गलियाँ छोड़  के जाने के लिए मना कर दिया था। दिल्ली सात  बार उजड़ी और सात बार बसी और दिल्ली पर कई वंशों ने शासन  किया। आख़िरी मुग़ल बादशाह के दौर में
दिल्ली अपने जोबन पर थी इसीलिए उस्ताद ज़ौक़ ने कहा -

इन  दिनों  गरचे   दकन  में  है  बड़ी क़द्र ए सुख़न
कौन जाये 'ज़ौक़' पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर


एक ज़माने में दिल्ली के चाँदनी  चौक बाज़ार में फ़ैज़ नामक नहर बहती थी। नहर के दोनों तरफ़ पीपल और नीम के पेड़ और दुकानें। मुग़ल दरबार से लोग किश्तियों में बैठकर सौदा ख़रीदने के लिए आते थे। हर तरफ़ रंगीनियां बिखरी पड़ी थी,संगीत और शाइरों  की मजलिसे देखने को मिलती थी।  उर्दू के मशहूर शाइर जनाब मीर तक़ी मीर  किन्ही कारणों से आगरा छोड़ कर दिल्ली के लिए रवाना हो गए थे। इस सिलसिले में उनका एक शे'र देखे -

शिकवा ए आबला अभी से ' मीर '
है   पियारे    हनूज़    दिल्ली  दूर 

    मीर तक़ी मीर ने अपनी आँखों से दिल्ली की तबाही भी देखी थी।  अहमद शाह अब्दाली की लूट का हाल मीर तक़ी मीर ने अपनी किताब 'ज़िक्रे मीर ' में ब्यान किया है। 

 अब ख़राबा    हुआ   जहानाबाद 
 वरना हर इक क़दम पे यां घर था 

दिल्ली कि बर्बादी को ब्यान करता मीर तक़ी मीर एक  और शे'र देखे -

दिल्ली में   आज भीख भी मिलती नहीं उन्हें 
था कल तलक़ दिमाग़ जिन्हे ताजो -तख़्त का 

मैं दिल्ली में ही पैदा हुआ , दिल्ली में ही पला-बढ़ा और पुरानी  दिल्ली में ही मेरा बचपन गुज़रा।  २००६ में नौकरी के सिलसले में बैंगलोर आना पड़ा और तभी से   बैंगलोर में ही रह रहा हूँ।  पुरानी दिली कि गलियाँ आज भी बहुत याद आती है ,हालांकि अब पुरानी दिल्ली पहले जैसी नहीं रही। अब सब कुछ व्यवसायिक हो गया है , न पहले जैसे लोग रहे और न पहले जैसी गलियाँ।  न वो कटरे और कटरों में गलियाँ और गलियों में गलियाँ , न वो कूचे और कूचों में गलियाँ और गलियों में गलियाँ... 

जिन गलियों में अक्सर घूमता था उनमे से कुछ नाम आज भी याद है  -

कटरा गोकुल शाह , चूड़ीवालान ,कूचा पाती राम, गली आर्य समाज, लाल दरवाज़ा, गली शीश महल, लाल कुआं, बाज़ार सीता राम, गली मुर्गे वाली ,फ़र्राशखाना ,चावड़ी बाज़ार, नई सड़क ,तुर्कमान गेट ,अजमेरी गेट, हौज़ काज़ी, पत्थर वाले ,दरीबा कलां,चाँदनी  चौक, हवेली  हैदर कुली, खारी बावली, कटरा नील, चौक शाह मुबारक ,गली क़ासिम जान , बल्लीमारान , फतेहपुरी बाज़ार आदि  

फ़ारसी की एक मशहूर कहावत याद आ गयी -

" आदमी का दाना - पानी और उसकी मौत उसको खींच कर ले जाती है

 - मेरा दाना -पानी बैंगलोर से अभी उठा नहीं और अपनी  मौत का मुझे पता नहीं।  


   हनूज़    दिल्ली  दूर ...............दिल्ली अभी दूर है 



Monday, August 3, 2020

गली कीर्तन वाली - ग़ाज़ियाबाद और जगदीश कश्यप


जगदीश कश्यप
गली कीर्तन वाली , ग़ाज़ियाबाद में एक छोटे से कमरे में रहते थे। क़द लगभग  पाँच फुट पाँच इंच ,रंग साँवला  ,दरम्याना बदन , मिजाज़ में बेसब्री और ख़ुशदिल मेज़बान। लघुकथा लिखने की प्रेरणा मुझे उनसे ही मिली।  लघु कथा साहित्य जगत में जगदीश कश्यप को कौन नहीं जानता।  उनके घर पर  लघु कथा विधा पर महाना गोष्ठिया  होती थी जहाँ मुझे  पहली बार लघुकथाएं सुनने का अवसर मिला और बाद में मैंने भी लघु कथा लिखनी शुरू कर दी।  पिछले कुछ सालों में लघुकथा विधा काफी तेज़ी से उभर कर आयी है और  बहुत-सी सांस्कृतिक संस्थाएं लघुकथा को केंद्रित कर विशाल साहित्यिक कार्यक्रम भी आयोजित कर रही है लेकिन उन दिनों अधिकांश लोग इस विधा से परिचित नहीं थे।

 मैं जब भी जगदीश कश्यप को अपनी कोई भी लघुकथा सुनाता तो वो खुल कर तारीफ़ करते और अक्सर अँगरेज़ी में  GOOD कहते।  उनका GOOD शब्द का उच्चारण हिंदी के गुड़ शब्द जैसा होता जिसमे गुड़ जैसे मिठास लिपटी रहती। आज जगदीश कश्यप हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी बेशक़ीमती लघु कथाएं और उनका गुड़ जैसी मिठास वाला स्नेह आज भी मेरी लघु कथाओं को दुलारता रहता है। 
 
 
   इन्ही गोष्ठियों  में महेश सक्सेना , महेश दर्पण और बलराम अग्रवाल  से मुलाक़ात हुई थी। आजकल लघु कथा विधा में बलराम अग्रवाल एक बड़ा नाम है। 




NOTE : जगदीश कश्यप - ( जन्म - 1-12-1949 ,  निधन - 17-8-2004 )

Sunday, August 2, 2020

इश्क़ का सिक्का - मुन्नवर सरहदी

नज़र आती  हैं जब भी कॉलेज की हसीनाएं 
मैं  अपने  इश्क़ का सिक्का उछाल देता  हूँ 
ख़ुदा  का  शुक्र है सब हिन्दी  पढ़ने वाली हैं  
मैं   उर्दू   बोल के     हसरत निकाल लेता हूँ 



        उर्दू बोल के हसरत निकालने वाले  शाइर  जनाब मुन्नवर सरहदी साहब तंज़ो - मज़ाह  की शाइरी करते थे। 
मुन्नवर साहब बहुत ही सहज ,मेहनती ,मिलनसार और ज़िंदादिल इंसान थे। हल्क़ा ए  तिश्नगाने अदब की नशिस्तों में उनसे मुलाक़ात  हुई थी और बाद में आप परिचय साहित्य परिषद् की महाना  नशिस्तों में भी शिरकत फ़रमाने लगे थे।  मेरी अक्सर उनसे शाइरी पर गुफ़्तगू होती  थी।  जब मैंने उनसे ग़ज़ल  के उरूज़ के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने मुझे सलाह दी कि मुझे आहंग में ग़ज़ल कहनी चाहिए।  ऐसा करने से ग़ज़ल किसी न किस बहर
के क़रीब पहुंच जाती हैं और उसके बाद अगर कही वज़न ग़लत रह गया हो तो उसे ठीक कर लिया जाये।  उनका मानना  था कि हमे कम से कम पाँच हज़ार शे'र याद होने चाहिए और जब वो शे'र हमारे ज़हन में बैठ जायेंगे तो ग़ज़ल  के मिसरे वज़न में निकलेंगे। ग़ज़ल के उरूज़ को समझने के लिए यह एक सरल राह है जोकि नए ग़ज़ल कहने वालों के लिए किसी हद तक मददगार साबित हो सकती  है लेकिन यह तो तय है कि ग़ज़ल अगर बहर में नहीं है तो वह ग़ज़ल नहीं हो सकती। 

मुन्नवर साहब ग़ज़लें भी कहते थे लेकिन मूल रूप  से  आप नज़्म के शाइर  थे। नज़्म के अलावा आप क़त्आत और सेहरे भी कहते थे।एक ज़माना था जब शादियों में आजकल की  तरह  DJ  नहीं बल्कि सेहरे पढ़ने का रिवाज़ था।  मुन्नवर साहब ने अपनी ज़िंदगी में सैकड़ों  सेहरे पढ़े और मुशायरों में उनकी तंज़ो - मज़ाह  कि शाइरी श्रोताओं पर हमेशा एक ख़ुशनुमां  असर छोड़ जाती थी।आपकी मातृभाषा सिरायकी  थी और आप सिरायकी ज़बान की नशिस्तों में भी शिरकत फ़रमाते थे । मुन्नवर साहब को किताबे पढ़ने का बहुत शौक़ था और आप पुरानी दिल्ली की दिल्ली पब्लिक  लाइब्रेरी  से नियमित रूप से उर्दू की किताबे लाकर पढ़ते थे। 

पेशे से दिल्ली महानगर टेलीफ़ोन विभाग में कार्य करते थे।  रिटायर होने के बाद अपने सुपुत्र की स्पोर्ट्स की दुकान में उनकी मदद करते थे। आप एक कुशल घड़ीसाज़ भी थे।  उनके पोते ने उनके जीवन काल में उनकी चंद नज़्मों की एक छोटी-सी पुस्तिका ' पहली किरण ' नाम से प्रकाशित करवाई थी लेकिन अफ़सोस कि उनके जीवन काल में  उनकी कोई मुक़म्मल किताब प्रकाशित नहीं हो पाई । कितनी बड़ी विडंबना है कि कोई शाइर ज़िंदगी भर लिखता है  और उसका क़लाम भी अवाम तक नहीं पहुँच पाता। 



शादी तो की थी हमने भी जीदार की तरह 
लटकें   हुए हैं   तार पे   सलवार की तरह
कहने को घर है अस्ल में चौकी पुलिस की 
बेलन  लिए खड़ी   है   हवलदार की तरह   




NOTE : उन्होंने मेरे प्रथम काव्य संग्रह ' शहर और जंगल ' के लिए भूमिका भी लिखी थी । 

              उनके शागिर्द जनाब नाशाद देहलवी के सहयोग के लिए उनका शुक्रिया अदा करता हूँ। 

Saturday, August 1, 2020

प्रेमचंद और उनके समकालीन हंगेरियन साहित्यकार कोस्तोलान्यी दैज़ो ( Dezső Kosztolányi )

मुंशी प्रेमचंद की १४०वी जयंती के अवसर पर साहित्य संसार में प्रेमचंद और उनके साहित्य पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है और हम सब प्रेमचंद की यादों को ताज़ा कर रहे हैं। मुझे हंगेरियन साहित्य पढ़ने का जब अवसर मिला तो यह जानकार सुखद  आश्चर्य  हुआ कि जिस समय भारत में प्रेमचंद साहित्य की रचना कर रहे थे उसी समय उन्ही के मुक़ाम का एक कवि ,सम्पादक ,कहानीकार ,अख़बारनवीस, अनुवादक  और उपन्यासकार कोस्तोलान्यी   दैज़ो  हंगेरियन साहित्य को अपने बेशक़ीमत साहित्य से समृद्ध कर रहे थे। 

जहां हमे प्रेमचंद के साहित्य में भारतीय समाज के तत्कालीन विभिन्न सामजिक पहलू देखने को मिलते हैं उसी प्रकार  कोस्तोलान्यी   दैज़ो के साहित्य में हमें तत्कालीन हंगेरियन समाज के दर्शन होते हैं।  दोनों के साहित्य में समाजिक  चिंताओं को दर्ज़ किया गया है विशेषरूप से शोषित  किसान और मज़दूरों की व्यथा। 

प्रेमचंद शरू से ही कहानी  या उपन्यास लिखते थे , उनकी नज़र में कविता सिर्फ़ एक तस्सवुर पैदा करती है और कविता के ज़रीये समाजिक  उत्थान संभव नहीं।  जब प्रेमचंद गोरखपुर में रहते थे तो अक्सर उनकी मुलाकात मशहूर शायर जनाब फ़िराक़ गोरखपुरी से होती थी और  प्रेमचंद  उनकी शाइरी को  अक्सर नज़रअंदाज़ कर जाते थे। अगर हम साहित्यिक इतिहास पर नज़र डाले तो देखने को मिलता है कि जो साहित्यकार अपनी साहित्य यात्रा कविता से आरम्भ करते है वे बाद में कहानी या उपन्यास लिख लेते हैं लेकिन जो साहित्यकार अपनी साहित्य यात्रा कहानी या उपन्यास से शरू करते हैं ,वे अक्सर बाद में भी कविता नहीं लिखते।  प्रेमचंद एक ख़ालिस कहानीकार और उपन्यासकार थे , उन्हें उपन्यास सम्राट की उपाधि से नवाज़ा गया।  प्रेमचंद ने कवितायेँ नहीं लिखी लेकिन कोस्तोलान्यी   दैज़ो  आरम्भ में कवितायेँ ही लिखते थे और बाद में उन्होंने कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे। प्रेमचंद की कहानियों में तत्कालीन समाज का सजीव चित्रण देखने को मिलता है।  उनके आरम्भ के साहित्य में आदर्शवाद और बाद में यथार्थवाद देखने को मिलता है। आम आदमी की बोल चाल की भाषा और रोज़मर्रा  के मुहावरों ने उनके साहित्य को सहज ,सरल व पठनीय बनाया है लेकिन कोस्तोलान्यी   दैज़ो की कहानियों और उपन्यासों में कविता के बिम्ब बिखरे पड़े हैं जो पाठक को एक दूसरी दुनिया में ले जाते हैं।  प्रेमचंद का उपन्यास पढ़ने के बाद पाठक विचारशील हो जाता है लेकिन कोस्तोलान्यी   दैज़ो के उपन्यास पढ़ने के बाद  पाठक उसके  सौंद्रयबोध में ही खो जाता है। उनके उपन्यासों में  कविता की एक सौंधी महक तैरती रहती है। 

भारतीय पाठक प्रेमचंद के साहित्य से तो परिचित हैं  लेकिन अब  कोस्तोलान्यी   दैज़ो के साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी  पढ़ सकते हैं ।

उपलब्ध हिन्दी अनुवाद - 

अभिनेता की मृत्यु  - डॉ कौवेश मारगित  द्वारा सम्पादित कहानी संग्रह 
                                ( इस पुस्तक में हंगरी के दूसरे साहित्यकारों की कहानियां भी शामिल है ) 
उपन्यास :

प्यारी अन्ना -   अनुवादक - इन्दु मजलदान 
चकोरी      -   अनुवादक -  इन्दु मजलदान 


मुंशी प्रेमचंद

जन्म -   ३१ जुलाई १८८० 
निधन - ०८ अक्टूबर  १९३६ 

कोस्तोलान्यी   दैज़ो

जन्म -   २९ मार्च १८८५ 
निधन -  ०३ नवंबर १९३६ 


प्रेमचंद , कोस्तोलान्यी   दैज़ो से लगभग पांच वर्ष बड़े थे।  कोस्तोलान्यी   दैज़ो शायद अपने बड़े भाई प्रेमचंद की मृत्य का शोक नहीं सह पाए और  उनके जाते ही स्वयं उनसे स्वर्ग में मिलने  चले गए।