रदीफ़ के दोष
1. रदीफ़ का हर्फ़ बदलना- रदीफ के बारे में स्पष्ट है कि ग़ज़ल में हम रदीफ को या इसके किसी अंश को नहीं बदल सकते ।
उदाहरण के लिये
झूठ का वो रो गया
और सच्चा हो गया
मेरे सब सच झूठ की
वादियों में खो गये
यहां रदीफ़ है- गया
लेकिन आगे रदीफ बदलकर गये कर दिया जोकि ग़लत है।
2. तहलीली रदीफ-शेर में ऐसे शब्द का प्रयोग करना जिसमे काफिया और रदीफ योजित हो जाएँ और दोनों का पालन हो जाए ऐस रदीफ को तहलीली रदीफ कहते हैं।
उदाहरण-
सब से मिलता है जो रोकर
रह न जाए खुद का हो कर
ले मजा आवारगी का
मंजिलों को मार ठोकर
मत्ला के अनुसार रो, हो काफिया है और कर रदीफ है मगर दूसरे शेर में ठोकर शब्द में काफिया और रदीफ संयोजित हो कर प्रयोग हुए हैं अर्थात् रदीफ काफिया के साथ चस्पा हो गई है, इसे तहलीली रदीफ कहते हैं।
(अरूज की कई किताबों में तहलीली रदीफ को दोष माना गया है मगर इस विषय में कुछ मतभेद हैं क्योंकि तहलीली रदीफ को कुछ अरूज़ियों ने दोष न मान कर गुण माना है कि इस प्रयोग में काव्य क्षमता का प्रदर्शन होता है इसलिये इसे दोष मानना उचित भी नहीं है।)
3. रब्त न होना-जब शे'र में रदीफ का कोई अर्थ नहीं निकल पाए अथवा रदीफ़ का शब्द बेवजह ठूँसा गया मालूम पड़ता है तो इससे शेर में हल्कापन आ जाता है, इसे जानने का सबसे सरल उपाय यह है कि रदीफ़ को हटा कर देखा जाए, अगर वाक्य विन्यास पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है तो रदीफ भर्ती की मानी जायेगी।
उदाहरण-
आप जो हमसे दूर गए
दिल से हम मजबूर गए
आप न थे तो क्या थे हम
आपसे मिल मशहूर गए
स्पष्ट है कि रदीफ़-कुवाफ़ी का प्रयोग नियमानुसार किया गया है, परन्तु पहली पंक्ति में ही रदीफ़ चस्पा हुई है बाकी में नहीं। मशहूर गये का कोई मतलब नहीं निकल रहा है।
इसको ऐसा कर सकते हैं
आप जो हमसे दूर हुए
दिल से हम मजबूर हुए
आप न थे तो क्या थे हम
आपसे मिल मशहूर हुए
4. तकाबुले रदीफ-यदि गजल में मतला और हुस्ने मत्ला के अतिरिक्त किसी शेर (जिसके मिसरा-ए-ऊला में रदीफ नहीं होता है) से रदीफ का तुकांत अंश आ जाता है तो इसे रदीफ का दोष तकाबुले रदीफ कहा जाता है।
इसका कारण यह है कि शेर अपने आप में स्वतंत्र होते हैं और शाइर कहीं केवल एक शेर भी पढ़ सकता है अथवा कोट कर सकता है। इसे अधूरी रचना नहीं कहा जा सकता और तकाबुले रदीफ दोष होने पर कुछ भ्रम उत्पन्न हो जाते हैं।
स्वतन्त्र रूप से पढ़ने पर तकाबुले रदीफ़ दोषयुक्त शेर को पढ़ने वाले पाठक को उस शे'र के मत्ला होने का भ्रम होता है इस कारण ही इसे दोष माना जाता है। आइये जाने कि यह कैसे होता है।
उदाहरण-1
ये खुद तो जान गया हूँ कि क्या हुआ है मुझे
तुझे ये कैसे बताऊँ तेरा नशा है मुझे- मत्ला
वो हर्फ-हर्फ मुझे याद कर चुका है भले
मुझे पता है कहाँ तक समझ सका है मुझे-शे'र
यदि हम मत्ला सहित इस दूसरे शे'र को पढ़ते हैं तो यह स्पष्ट कि दूसरे शेर में तकाबुले रदीफ़ का दोष है क्योंकि दूसरे शेर के मिसरा ए ऊला में काफ़िया का उपयोग नहीं हुआ है और हमें पता है कि काफिया लिया गया है-हुआ, नशा, सका अर्थात् 'आ' कि मात्रा और इन
अशआर में रदीफ "है मुझे" को सही ढंग से निभाया गया है।
परन्तु यदि हमें मत्ला न पढ़ने को मिले केवल दूसरा शेर पढ़ने मिले तब ?
भले और मुझे दोनों किसी शेर के स्वर काफिया जैसे लगते हैं और यह भ्रम पैदा करता है कि मतला में तो आ की मात्रा का काफिया है लेकिन आगे के शेर में क़ाफिया ही बदल गया।
इसलिये मतला को छोड़कर किसी अन्य शेर के ऊला मिसरा में रदीफ या उसका कोई अंश भले ही वह अंतिम शब्द की मात्रा ही, हो नहीं आनी चाहिये।
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