नक़्क़ाशीदार आईना
कुछ महीनों के अंतराल के बाद एक शाम अपने पुराने मित्र से मिलने गया। ड्राइंग रूम में प्रवेश करते ही मैंने देखा कि लोहे की अलमारी नदारद थी। मैंने जिज्ञासा से मित्र से अलमारी के बारे में पूछा -
" अरे , तेरी लोहे की अलमारी कहाँ गयी ? "
- " अलमारी मैंने बेच दी दोस्त " , मित्र ने सहजता से जवाब दिया।
- " बेच दी , अरे अलमारी तो बढ़िया थी , नक़्क़ाशीदार इतना सुन्दर आईना भी लगा हुआ था उसमें ....आख़िर तूने बेचीं क्यों "
- " उसी नक़्क़ाशीदार ख़ूबसूरत आईने की वजह से बेचनी पड़ी दोस्त " मित्र ने उदासी से कहा ।
- " आईने की वजह से .....मैं समझा नहीं " मैंने हिचकते हुए पूछा।
- " अरे यार , हर वक़्त इधर उधर आते जाते हमारा चेहरा अलमारी के आईने में उतरता ....."
- " तो .....? "
- " अब आईने तो झूठ बोलते नहीं औऱ हमे सच सुनने की आदत नहीं रही , बस इसीलिए बेच दी आईने वाली ख़ूबसूरत
लोहे की अलमारी। " -मित्र एक साँस में बोल गया था।
मैंने कुछ कहने के अपना मुँह तो खोला लेकिन मेरा मुँह खुला का खुला ही रह गया।
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