Thursday, March 13, 2025

शहर और जंगल - चिड़िया

 चिड़िया 


फुर्र से उड़ती , दाना चुगती 

खाती - पीती मोती चिड़िया 

रोज़ आँगन में आती 

देर तलाक बतियाती 

कल चलते पंखे से आ टकराई 

अलग हुई गर्दन कट  कर 

जिस सहजता से वो मरी थी 

उसी सहजता से फेंक औए था मैं

पार्थिव शरीर चिड़िया का 

पर अब भी चहचहा  रही थी वो 

अब भी गुनगुना रही थी वो 

उस कमरे में अब भी 

रह गया था कुछ शेष 

उस चंचल चिड़िया का 

मन हो गया था खिन्न 

देख कर साफ़ सुथरी दीवारों पर 

यहाँ , वहाँ बिखरे धब्बे ख़ून के 

हाँ , उसी मोती ताज़ी 

चिड़िया के ख़ून  के 

यूँ ही नहीं मरी थी चिड़िया 

उसका आ ही गया था काल 

हे ईश्वर !

चिड़िया में भी 

तुम्हें ख़ून ह भरना था 

और वो भी लाल।  



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