शहर और जंगल - कब तक
मेरे और तुम्हारे घर
सूरज एक ही समय उगा
पर
तुमने शायद परदें नहीं उठाये
सच !
कल तुम मुझे बहुत याद आये
इस मन के अँधेरे कुएं में
तुम किरण बन कर कब आओगे
मेरे अधूरे गीतों को
तुम कब गाओगे
मैं कब तक रगड़ता रहूँ
अपनी हथेलियाँ
जलती चट्टान पर
मैं कब तक
तुम्हारी आहट लगाए
बैठा रहूँ कान पर
लगता है
तुम्हारी मूक भाषा का
अधूरा अध्याय
मुझे आज पूर्ण करना ही होगा
तुम्हारी मुक्ति के लिए
मुझे आज मरना ही होगा।
No comments:
Post a Comment