भिश्ती
अब तो एक ज़माने से
मैंने किसी भिश्ती को नहीं देखा
अपने गले में
चमड़े की मश्क लटकाये
वो करता था नालियाँ साफ़,
बहता था पानी से
नालियों में रुका हुआ मल ,
आज हमारे समाज में
पहले से भी अधिक है मल ,
लोगों के दिमाग़ में
भरा हुआ है बहुत - सा कचरा
लेकिन अब भिश्ती नज़र नहीं आते
वास्तव में आज पहले से भी
अधिक ज़रूरत है भिश्तियों की।
कवि - इन्दुकांत आंगिरस
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